अब बिहार चुनाव की बात. हमें कहा गया कि अमित शाह इसका प्रभार एक बार फिर से खुद ही ले रहे हैं. जाहिर है, वे पार्टी अध्यक्ष हैं, ऐसा करना सही भी है, लेकिन भाजपा के लिए बिहार बहुत आसान नहीं होने जा रहा है. जाहिर है, यहां पर जनता परिवार का अभी भी एक साथ आना बाकी है, लेकिन जो जमीनी हकीकत है, वो भाजपा के लिए लोकसभा चुनाव से अलग है. लोकसभा के दौरान जनता के सामने प्रधानमंत्री का चयन था. राष्ट्रीय स्तर पर जनता को भाजपा या कांग्रेस का प्रधानमंत्री चुनना था. जाहिर है, जनता कांग्रेस को नहीं चुनती, इसलिए भाजपा को भारी जीत मिली, लेकिन विधानसभा चुनाव का मसला अलग है.
केंद्रीय बजट को पास करने के क्रम में संसद में बहस जारी है. इस दौरान बजट पर वास्तविक विश्लेषण शुरू हो गया है कि बजट से क्या मिला? विश्लेषक दो नतीजों पर पहुंचे हैं. पहला यह कि राज्यों के लिए बहुप्रचारित फंड के हिस्से को 32 प्रतिशत से बढ़ाकर 42 प्रतिशत कर दिया गया है. 15वें वित्त आयोग ने केंद्रीय कर में राज्यों की हिस्सेदारी को बढ़ाने की सिफारिश की थी. जो अच्छी बात है, लेकिन जिस मुद्दे ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया, वह था फंड ट्रांसफर के साथ-साथ बहुत सारी योजनाओं का राज्यों को हस्तांतरित किया जाना. जिसके लिए पहले केंद्र सरकार राज्यों को वित्त मुहैया कराता था. हालांकि ऐसा नहीं है कि राज्यों को खर्च के लिए एक बड़ी राशि नहीं मिलेगी, लेकिन इस राशि के साथ जिन योजनाओं की जिम्मेदारी राज्यों के हिस्से में आयेगी, उसके हिसाब से जो रकम मिलेगी वह कम होगी. बहरहाल, यह एक सही दिशा में उठाया गया क़दम है, क्योंकि इससे जहां राज्य फंड के इस्तेमाल के लिए स्वतंत्र होंगे, वहीं उनके बीच प्रतिस्पर्धा का माहौल भी बनेगा. जिन राज्यों में शासन व्यवस्था अच्छी होगी, वे राज्य अच्छा प्रदर्शन करेंगे और जिन राज्यों में शासन व्यवस्था अच्छी नहीं होगी, उन्हें नुकसान होगा.
अगर नीतियों का दिल्ली से नियंत्रण करने के बजाए केंद्र सरकार राज्यों को थोड़े और अधिकार दे देती है तो यह सैद्धांतिक तौर पर अच्छी बात है, लेकिन निराश करने वाली बात यह है कि कृषि के लिए अपर्याप्त फंड का प्रावधान किया गया है, इस वजह से हालत कितने विस्फोटक हो सकते हैं, फिलहाल हम समझ नहीं पा रहे हैं. कृषि उपज में वृद्धि जनसंख्या में वृद्धि के अनुसार होनी चाहिए. इसका असर हमें 10 साल बाद दिखेगा, जब हम एक बार?फिर खाद्यान्न की कमी महसूस करने लगेंगे, और यही भारत के एक शक्तिशाली अर्थव्यवथा बनने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित होगा. अभी भी समय है कि वित्त मंत्री इस पर पुनर्विचार करें और कृषि के लिए अतिरिक्तफंड मुहैया करवाएं और इस क्षेत्र में दीर्घकालिक पूंजी निवेश की व्यवस्था करें. खाद्यान्न की कमी का एहसास इस साल या आने वाले एक-दो सालों में नहीं होगा. क्योंकि फिलहाल हमारे पास खाद्यान्न का पर्याप्त भंडार है. चीनी उद्योग पूरी तरह कृषि पर आश्रित है और सरकार के लिए यह एक गंभीर समस्या बनने जा रहा है. यदि किसानों को उनका पैसा नहीं मिला तो चीनी मिलों के पास इतना भी पैसा नहीं होगा कि वे गन्ने से चीनी बना सकें. इसलिए किसानों का बकाया लगातार बढ़ता जाएगा. इस मुद्दे पर रंगराजन कमेटी का गठन किया गया था. कमेटी ने गन्ने की कीमत को चीनी के बाजार भाव के आधार पर निर्धारित करने का सुझाव दिया था. राज्यों के बजाए कृषि मंत्री, खाद्य मंत्री और वित्त मंत्री को एक कमेटी का गठन करना चाहिए, जो एक ऐसा फार्मूला बनाए, जिससे कीमतों का निर्धारण हो, ताकि यह उद्योग बन्द न हो.
अब बजट के आगे की बात. एक अफवाह फैलाई जा रही है कि यह सरकार पिछली सभी सरकारों से अधिक पैसा खर्च करने जा रही है. इसमें ऐसी कौन सी अनोखी बात है. हर साल ये आंकड़े बढ़ जाते हैं. हर साल का बजट पिछले साल के बजट की तुलना में अधिक पैसे का प्रावधान करता है. सरकार ने इंफ्रास्ट्रकचर के बारे में जितनी बातें की इसके लिए उतना प्रावधान बजट में नहीं किया. अब एफडीआई और विदेशी कंपनियों के आने की बात कर रही है लेकिन पब्लिक सेक्टर में विवेश की बैत हो सकती थी लेकिन सरकार ने बजट में इस संदर्भ में कोई बात नहीं की. बजट में रेल?अथवा इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में निवेश की कोई ठोस बात बजट में नहीं है जैसा कि सरकार अब तक कहती आई है. सरकार की नीति क्या है, इसे बताया जाना चाहिए, ताकि लोगों को यह महसूस हो कि कुछ होने वाला है या होने जा रहा है.
सामाजिक मोर्चे पर कुछ चिंताजनक बातें हैं. चर्च जलाए जा रहे हैं. पत्थरबाजी हो रही है. लोग डर के साये में जी रहे हैं. खास तौर से क्रिश्चियन समाज के लोग. इन सब को कैसे जायज ठहरा सकते हैं? हालांकि, प्रधानमंत्री ने कहा कि हर कोई अपने धर्म को मानने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन संघ परिवार समूह यह सब नहीं समझता और वे भय का वातावरण बनाना चाहते हैं, बिना यह समझे कि इससे केन्द्र सरकार को ही नुकसान पहुंचेगा.
सामाजिक मोर्चे पर कुछ चिंताजनक बातें हैं. चर्च जलाए जा रहे हैं. पत्थरबाजी हो रही है. लोग डर के साये में जी रहे हैं. खास तौर से क्रिश्चियन समाज के लोग. इन सब को कैसे जायज ठहरा सकते हैं? हालांकि, प्रधानमंत्री ने कहा कि हर कोई अपने धर्म को मानने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन संघ परिवार समूह यह सब नहीं समझता और वे भय का वातावरण बनाना चाहते हैं, बिना यह समझे कि इससे केन्द्र सरकार को ही नुकसान पहुंचेगा.
कैग ने रॉबर्ट वाड्रा की कंपनी को अनुचित तरीके से लाभ पहुंचाने को लेकर एक रिपोर्ट दिया है. कांग्रेस ने हमेशा की तरह कहा है कि इसमें वाड्रा का नाम नहीं लिया गया है. इससे क्या फर्क पड़ता है? स्काईलाइट हॉस्पिटैलिटी का नाम रिपोर्ट में आया है. यह किसकी कंपनी है? कांग्रेसी शायद कभी नहीं सीखेंगे. अब हरियाणा सरकार वाड्रा के साथ क्या करेगी, हमें नहीं मालूम.
अगर वाड्रा की गिरफ्तारी के मामले में कोई आपसी सहमति बन गई हो, तो कुछ नहीं किया जा सकता है, लेकिन यदि कानून अपना काम करता है, तो वाड्रा को बहुत सारी बातों का जवाब देना होगा, क्योंकि ये सामान्य प्रक्रिया है. भूमि का अधिग्रहण किस उद्देश्य के लिए किया गया, यह साफ नहीं है. जमीन पहले वाड्रा को मिली, फिर इसे डीएलएफ को दे दिया गया. यह सब कॉरपोरेट वर्ल्ड की सन्देहास्पद बातें हैं और वाड्रा को अपने संपर्कों के साथ यह बताना होगा कि कैसे वह इतने पैसे वाले बन गए. वाड्रा के अलावा सिर्फ वाईएस जगन रेड्डी ही ऐसे है, जो इतने कम समय में इतना अधिक पैसा कमा सके. यह उनके पिता वाईएसआर की वजह से हुआ और वाड्रा इसलिए, क्योंकि उनकी सास सोनिया गांधी हैं. यह एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सही नहीं है. छोटी-मोटी हेराफेरी तो ठीक है, लेकिन एक सीमा के बाद यह सब सहनीय नहीं है. इन सब की विशेष जांच होनी चाहिए.
अब बिहार चुनाव की बात. हमें कहा गया कि अमित शाह इसका प्रभार एक बार फिर से खुद ही ले रहे हैं. जाहिर है, वे पार्टी अध्यक्ष हैं, ऐसा करना सही भी है, लेकिन भाजपा के लिए बिहार बहुत आसान नहीं होने जा रहा है. जाहिर है, यहां पर जनता परिवार का अभी भी एक साथ आना बाकी है, लेकिन जो जमीनी हकीकत है, वो भाजपा के लिए लोकसभा चुनाव से अलग है. लोकसभा चुनाव के दौरान लोगों के सामने प्रधानमंत्री का चयन था. राष्ट्रीय स्तर पर जनता को भाजपा या कांग्रेस का प्रधानमंत्री चुनना था. जाहिर है, जनता कांग्रेस को नहीं चुनती, इसलिए भाजपा को भारी जीत मिली, लेकिन विधानसभा चुनाव का मसला अलग है. बिहार में भाजपा के पास कोई चेहरा नहीं है. बिहार के निर्विवादित नेता नीतीश कुमार ही हैं. अब भाजपा के पास क्या रास्ता है? क्या वह किरण बेदी की तरह किसी को सीएम उम्मीदवार बनाएगी या किसी पुराने नेता को सामने लेकर आएगी? कहा नहीं जा सकता है, लेकिन उम्मीद करते हैं कि अमित शाह अपना बेहतर देंगे. जाहिर तौर पर धर्मनिरपेक्ष ताकतों को अब कमर कस लेना चाहिए और अपना बेहतर देने के लिए तैयार रहना चाहिए और यह तय करना चाहिए कि यह देश आगे किस दिशा में जाए और कैसे जाए? क्या हमें डर, खौफ फैलाने वाले संघ परिवार के रास्ते पर चलना है या संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक वास्तविक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी रास्ते पर जाना है.