क्वीन एलिज़ाबेथ ने अभी हाल में क्वीन विक्टोरिया का सबसे लंबे समय तक रानी बने रहने का रिकॉर्ड तोड़ा है. ब्रिटेन में राजशाही का विरोध करने वाले एक शख्स ने लिखा कि वह इस उत्सव में इसलिए शामिल हुआ, क्योंकि एलिज़ाबेथ की वजह से प्रिंस चार्ल्स अभी तक राजा नहीं बन पाए हैं. इधर भारत में सोनिया गांधी एक बार फिर कांग्रेस अध्यक्ष बन गई हैं. यह उनकी अध्यक्षता का रिकॉर्ड 18वां साल है. बेशक, वह इस पद पर बने रहने की योग्य हैं, क्योंकि उन्होंने ही 1998 में पार्टी को पूरी तरह से तबाह होने से बचाया था.
एक बार फिर कांग्रेस का अस्तित्व सवालों के घेरे में आ गया है. अब यह सवाल उठ रहा है कि क्या कांग्रेस अपने वर्तमान संकट से उबर पाएगी? लिहाज़ा पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने एहतियातन पार्टी के उत्तराधिकारी की ताजपोशी का मामला ़िफलहाल टाल दिया है. राहुल गांधी को ज़हर का प्याला पीने के लिए ़िफलहाल इंतज़ार करना पड़ेगा.विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है. यह कहना ग़लत नहीं होगा कि पार्टी अपनी ताक़त से अधिक शोर मचा रही है.
लगातार संसद की कार्रवाई बाधित करने की उसकी गुरिल्ला नीति ने ़िफलहाल भाजपा के विधायी कार्यों पर नकारात्मक प्रभाव डाला है, लेकिन इसके बावजूद दूसरे मोर्चों पर कांग्रेस अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है. मुलायम सिंह यादव को कांग्रेस के साथ गठबंधन में कोई फायदा नहीं दिख रहा है. उनके हिसाब से कांग्रेस एक हारी हुई पार्टी है. लिहाज़ा वह बिहार के सेक्युलर गठबंधन से बहार हो गए. उन्हें याद आया होगा कि जनता आंदोलन, जिसे जय प्रकाश नारायण ने शुरू किया था, पूरी तरह से कांग्रेस के विरोध में था.
यही वजह थी कि जदयू को एनडीए का हिस्सा बनने में कोई खास परेशानी नहीं हुई. हालांकि, नरेंद्र मोदी के सवाल पर नीतीश कुमार 2013 में एनडीए से अलग हो गए थे. जहां तक जदयू और राजद का साथ है, तो वह भी बेमेल की शादी ही लगता है. मुलायम का गठबंधन से अलग होना नीतीश के सेक्युलर चरित्र को भी सवालों के घेरे में ला खड़ा करता है.
दरअसल, कांग्रेस को यह एहसास हो गया कि अगर राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाया जाता है, तो लालू यादव को वह दिन ज़रूर याद आ जाएगा, जब उन्होंने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में उस अध्यादेश को फाड़ दिया था, जो लालू यादव की लोकसभा की सदस्यता बचाए रखने के लिए तैयार किया गया था. राहुल यदि बिहार में चुनाव प्रचार के लिए जाते हैं, तो उन्हें लालू से अलग ही रखा जाएगा. बिहार चुनाव में उनका रिकॉर्ड बहुत ही ख़राब है.
पिछले चुनाव में उन्होंने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया था, जिसके नतीजे में वह बुरी तरह से नाकाम हो गए थे. शायद इसलिए सोनिया गांधी का नर्म रवैया कांग्रेस के लिए बेहतर है. बिहार चुनाव भाजपा की परीक्षा से बढ़कर कांग्रेस की परीक्षा है. पार्टी मई 2014 के बाद से दिल्ली (जहां उसका खाता भी नहीं खुला), महाराष्ट्र, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर चुनाव हार चुकी है.
मध्य प्रदेश और राजस्थान, जो राहुल गांधी के भविष्य की रणनीति का हिस्सा हैं, के स्थानीय निकाय के चुनावों में कांग्रेस के व्यापमं और मोदीगेट के ऊपर संसद में हंगामे के बावजूद भाजपा जीत गई. अगर बिहार चुनाव में उसे धक्का लगता है या कांग्रेस कोई सीट नहीं जीत पाती या कम सीटें जीत पाती है, तो उसके भविष्य पर सवाल उठना लाज़िमी हो जाएगा. कांग्रेस का वजूद उससे अलग हुए घटकों यानी एनसीपी, टीएमसी, आरएलडी इत्यादि की शक्ल में ज़रूर बचा रहेगा.
अभी यह कहना जल्दबाजी होगा कि बिहार में कौन जीतेगा. ज़्यादा से ज्यादा यह कहा जा सकता है कि म़ुकाबला कांटे का है. उत्तर प्रदेश और बिहार जातिवादी राजनीति के दो आ़िखरी किले बचे हुए हैं. यहां हर जाति के वोट बैंक का हिसाब लगाया जाएगा और उस पर डोरे डालने की कोशिश की जाएगी. कांग्रेस ब्राह्मण वोट लेने की कोशिश करेगी, तो भाजपा भी ब्राह्मणों को अपने पाले में लेेने की कोशिश करेगी. दूसरी तऱफ दलित एवं महादलित की लड़ाई कांग्रेस, पासवान और मांझी के बीच होगी. यादव वोट सपा के अलग होने से पहले पूरी तरह से राजद के साथ था. लेकिन यह सच्चाई है कि बिहार में जो भी जीते, जातिवाद बना रहेगा. यह सबसे बड़ी त्रासदी है.