प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी के सभी सदस्यों को आगाह करते हुए कहा है कि विभिन्न विषयों पर हर एक सदस्य को हर जगह बोलना आवश्यक नहीं है. उन्होंने कहा कि पार्टी सदस्यों को अपना ध्यान अपने क्षेत्र के विकास पर केंद्रित रखना चाहिए. दरअसल, यह एक ऐसी सलाह है, जिसके आने में थोड़ी देर हो गई है. विभिन्न योगियों और साध्वियों आदि के ग़ैर ज़िम्मेदाराना बयानों से देश का वातावरण पहले से ही ख़राब हो चुका है, लेकिन मैं आशा करता हूं कि प्रधानमंत्री की हिदात के बाद ऐसे लोग अपने बयानों-भाषणों में संयम बरतेंगे. ज़ाहिर है कि प्रधानमंत्री ने अभी भी जेएनयू प्रकरण पर अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी है. दरअसल, मोदी को छात्र समूदाय को यह यकीन दिलाना चाहिए था कि उन्हें चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है, उन्हें अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी मिलेगी. अरुण जेटली कह रहे हैं कि देश में अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी है, लेकिन भारत की बर्बादी के लिए नहीं. यह मेरी समझ से बाहर है कि कोई भाषण देकर भारत को कैसे बर्बाद कर सकता है?
सरकार, अखिल भारती विद्यार्थी परिषद, विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्री स्वंसेवक संघ और भाजपा, सभी इस मामले को ज़रूरत से ज़्यादा तूल दे रहे हैं. भारत कोई शीशे का गिलास नहीं है कि कोई इसे ज़मीन पर गिरा दे और इसके टुकड़े-टुकड़े हो जाएं. भारत एक बहुत विशाल देश है और मैं नहीं समझता कि कोई इसे तोड़ सकता है. यहां तक कि अगर माओवादी अपनी पूरी ताकत लगा लें, तब भी यह संभव नहीं है. कम से कम छात्र तो ऐसा हरगिज नहीं कर सकते, वे महज अपनी भावनाएं प्रकट करते हैं. आप जितना अधिक उन्हें खामोश करने की कोशिश करेंगे, वे उतने ही बड़े नेता बनकर उभरेंगे. सरकार की ग़लतियों से एक नेता पैदा हो गया. दरअसल, कन्हैया एक ऐसा नेता बन गया, जिसके बारे में खुद उसने भी नहीं सोचा होगा. लिहाज़ा मैं आशा करता हूं कि प्रधानमंत्री के ’शविरे पर उनकी पार्टी के लोग अमल करेंगे. यह एक सराहनीय क़दम है. कुछ देर हो गई है, लेकिन फिर भी यह एक अच्छा क़दम है.
दूसरा मुद्दा यह कि आख़िरकार भारतीय जनता पार्टी ने वास्तविक राजनीति करने का फैसला कर लिया है. उसके तमाम आदर्शवाद और कांग्रेस विरोधी विचार अब ख़त्म हो गए हैं. पहले अरुणाचल प्रदेश में और अब उत्तराखंड में पार्टी वही नीति अपना रही है कि पैसा देकर दो-चार विधाकों को इधर-उधर से इकट्ठा कर लो, मंत्री पद का लालच दे दो और काम पूरा हो गया. दरअसल, अब पार्टी विथ डि’रेंस पूरी तरह ख़त्म हो गई है. वेंकैया नायडू ने अपने बयान में यह दावा किया है कि कांग्रेस दलबदल की जननी है. तो अब सवाल यह उठता है और जैसा कि मैंने अपने ट्वीट में कहा था कि बेचारी भाजपा केवल कांग्रेस के पदचिन्हों पर चल रही है. दरअसल, उन्हें कहना यह चाहिए था कि अगर कांग‘ेस टूट रही है, तो विधानसभा भंग होने दीजिए और नए सिरे से चुनाव होने दीजिए, हम सरकार नहीं बनाएंगे.
वैसे मुझे अभी भी मालूम नहीं है कि उत्तराखंड में क्या होगा? लेकिन, इससे एक अच्छी बात यह निकल कर सामने आई कि भाजपा को अब यह एहसास हो गया है कि भारतीय चुनाव राष्ट्रपति शैली के चुनाव की तरह नहीं जीते जा सकते हैं, जैसा कि उन्होंने मोदी की छवि पर 2014 का आम चुनाव जीता था. अब यह मुमकिन नहीं है, जैसा कि दिल्ली और बिहार के चुनाव परिणा’ों से ज़ाहिर हो गया है तथा जैसा अन्य राज्यों में होने वाले चुनावों के परिणा’ ज़ाहिर करेंगे. देश में राजनीति वैसे ही चलनी चाहिए, जिस तरह संविधान में इसका प्रावधान किया गया है, न उससे कम और न उससे अधिक. संसद के बजट सत्र के पहले हिस्से में कुछ दलगत सहमति बनी और इस आधार पर सदन में कुछ काम हुआ. बजट सत्र का दूसरा हिस्सा 25 अप्रैल से शुरू होने वाला है, जिसमें केवल वित्तीय विधेयक पारित होने हैं, कोई बड़ा विधेयक नहीं है. जीएसटी अब भी एक बड़ी समस्या है. अगर इस पर भी सहमति बनती है, तो बहुत अच्छा. वरना कुछ समय के लिए इसे ठंडे बस्ते में रख देने में कोई बुराई नहीं है.
इसके अतिरिक्त कोई उल्लेखनीय घटना नहीं घटी है. जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग आदि पर बहुत चर्चा हो रही है और जिस तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं, अगर वैसा हुआ, तो वह एक ़खतरनाक स्थिति होगी. मुझे संदेह है कि भारत इसे दुरुस्त करने में कोई बड़ी भूमिका निभा सकता है. दरअसल, हम केवल इस क्षेत्र में हो रहे अध्यन को आगे बढ़ा सकते हैं और उसके परिणा’ साझा कर सकते हैं. दिल्ली में आरके पचौरी की संस्था एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट इस संबंध में अच्छा काम कर रही है. आरके पचौरी ने पृष्ठभूमि तैयार कर दी है. हमें आशा करनी चाहिए कि दूसरे लोग भी इस क्षेत्र में शोध करेंगे और उसके परिणा’ अंतरराष्ट्रीय पटल पर रखेंगे.