मजे की बात यह है कि इन पदों के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, मान्यता प्राप्त रिसर्च इंस्टिट्यूट्स, यूनिवर्सिटीज और यहां तक कि मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करने वाले लोग भी पात्र होंगे. इन विशेषज्ञ अफसरों को वही वेतन-भत्ते और अन्य सभी सुविधाएं मिलेंगी जो सिविल सर्विसेज के जरिए आने वाले अफसरों को आम तौर पर मिलती हैं. हालांकि इन विशेषज्ञों की संयुक्त सचिव स्तर पर भर्ती एक ‘कॉन्ट्रैक्ट’ के रूप में होगी, लेकिन इन पर भी वे सभी ‘सर्विस कंडक्ट रूल्स’ लागू होंगे जो सामान्यतः सिविल सर्विसेज कैडर से आने वाले अधिकारियों पर लागू होते हैं.
मोदी सरकार एक नए ‘टैलेंट’ हंट अभियान की शुरुआत करने जा रही है. सरकार अब पब्लिक और प्राइवेट सेक्टर के उन लोगों को, जो किसी ख़ास क्षेत्र में विशेष अनुभव और योग्यता रखते हैं, सीधे संयुक्त सचिव के पद पर तैनात करेगी. सरकार ने ऐसे 10 पदों पर भर्ती के लिए अधिसूचना भी जारी कर दी है.
सामान्य तौर पर पब्लिक सर्विस कमीशन द्वारा चुने गए अधिकारी ही वरिष्ठता के आधार पर ज्वाइंट सेक्रेटरी के रूप में तैनात किए जाते हैं. लेकिन केंद्र सरकार अब कुछ तथाकथित विशेषज्ञ लोगों को सीधे टॉप ब्यूरोक्रेसी में बैठाने की तैयारी कर रही है. सरकार की यह योजना यदि परवान चढ़ी, तो प्राइवेट सेक्टर में काम कर रहे तमाम लोग सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास किए बिना ही ब्यूरोक्रेसी का हिस्सा बन जाएंगे. इन तथाकथित विशेषज्ञों की नियुक्ति ‘लैटरल एंट्री’ के जरिए होगी, जिसमें उन्हें महज़ ‘इंटरव्यू’ की रस्म अदायगी से गुजरना होगा. मतलब यह कि इन उम्मीदवारों को कोई लिखित परीक्षा नहीं देनी होगी.
संयुक्त सचिव स्तर के इन विशेष प्रतिभावान अफसरों की आधारभूत योग्यता के लिए जो मापदंड निर्धारित किए गए हैं, उनमें आवेदक का किसी भी यूनिवर्सिटी से सिर्फ ग्रेजुएट होना तथा उसके पास किसी भी कंपनी, कंसल्टेंसी या संगठन में समान स्तर पर 15 वर्ष का कार्यानुभव होना जरूरी होगा. साथ ही इन आवेदकों की उम्र 40 साल से अधिक होनी चाहिए. केंद्र सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने इन एक्सपर्ट्स की भर्ती के लिए हाल ही में जो अधिसूचना जारी की है, उसके अनुसार इन विशेष दक्षता वाले आवेदकों की नियुक्ति पहले 3 साल के लिए की जाएगी, जिसे बाद में 5 साल तक बढाया जा सकेगा. शुरुआती चरण में इन विशेषज्ञ अफसरों को राजस्व, वितीय सेवाएं, आर्थिक मामले, कृषि सहकारिता, किसान कल्याण, भूतल परिवहन, शिपिंग, वैकल्पिक उर्जा, वन एवं पर्यावरण, सिविल एविएशन, वाणिज्य एवं क्लाइमेट चेंज जैसे विशिष्ट क्षेत्रों में योगदान के लिए तैनात किया जाएगा, जिसे बाद में अन्य क्षेत्रों तक ले जाया जाएगा.
मजे की बात यह है कि इन पदों के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, मान्यता प्राप्त रिसर्च इंस्टिट्यूट्स, यूनिवर्सिटीज और यहां तक कि मल्टीनेशनल कंपनियों में काम करने वाले लोग भी पात्र होंगे. इन विशेषज्ञ अफसरों को वही वेतन-भत्ते और अन्य सभी सुविधाएं मिलेंगी जो सिविल सर्विसेज के जरिए आने वाले अफसरों को आम तौर पर मिलती हैं. हालांकि इन विशेषज्ञों की संयुक्त सचिव स्तर पर भर्ती एक ‘कॉन्ट्रैक्ट’ के रूप में होगी, लेकिन इन पर भी वे सभी ‘सर्विस कंडक्ट रूल्स’ लागू होंगे जो सामान्यतः सिविल सर्विसेज कैडर से आने वाले अधिकारियों पर लागू होते हैं. सरकार का कहना है कि अगर जरूरी हुआ, तो इन विशेषज्ञ अफसरों के लिए सरकार सर्विस रूल्स में जरूरी बदलाव भी करेगी.
दरअसल, ब्यूरोक्रेसी में लैटरल एंट्री या जिसे हम पिछले दरवाजे से एंट्री कह सकते हैं, पहली कोशिश नहीं है. इसके पहले वर्ष 2005 और 2010 में भी ऐसी कोशिशें हो चुकी हैं. तब प्रशासनिक सुधार आयोग ने ऐसे विशेषज्ञों की भर्ती का सुझाव दिया था. लेकिन यूपीए सरकार ने दोनों बार इन सुझावों को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इससे ब्यूरोक्रेसी में असंतोष फैलेगा और साथ ही इससे एक समानांतर नौकरशाही बनने की बेवजह कंट्रोवर्सी खड़ी होगी. लेकिन किसी भी तरह के विवादों से बेपरवाह मोदी सरकार न सिर्फ विशेषज्ञ अफसरों की लैटरल एंट्री के मामले में काफी आगे बढ़ गई, बल्कि उसे नए अंजाम या कहें कि एक तार्किक परिगति तक ले जाने के लिए भी प्रतिबद्ध मालूम पड़ती है.
यह पहला मौका नहीं है, जब निजी क्षेत्र के एक्सपटर्स को प्रशासनिक स्तर पर किसी बड़े ओहदे पर नियुक्त किया गया हो. सन 1993 में टाटा ग्रुप के रूसी मोदी को एयर इंडिया का प्रमुख बनाया गया था. बाद में यूपीए सरकार के समय इसी तरह नंदन नीलेकणी को यूआईडीएआई का मुखिया बनाया गया. यही नहीं, वर्ष 2002 में एनडीए सरकार ने भी रिलायंस ग्रुप की पॉवर कंपनी बीएसईएस के मुखिया आर.वी.साही को सीधे उर्जा सचिव बना दिया था.
मायावती ने भी उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहने के दौरान राज्य सरकार के पायलट शशांक शेखर सिंह को केबिनेट सेक्रेटरी बना दिया था. मोदी सरकार में भी बाहरी विशेषज्ञों की नियुक्ति का यह सिलसिला जारी है. केंद्रीय आयुष मंत्रालय के सचिव राजेश कोटेचा इसी परम्परा की देन हैं. आयुष मंत्रालय में नियुक्ति के पहले वे गुजरात आयुर्वैदिक यूनिवर्सिटी में वाईस चांसलर थे. अलबत्ता यह पहला मौका जरूर है, जब संयुक्त सचिव पद पर नियुक्ति के दरवाजे सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों के ‘प्रतिभावान विशेषज्ञों’ के लिए खोले गए हैं.
दिलचस्प यह है कि नीति आयोग जहां संयुक्त सचिव पद पर विशेषज्ञों की इस सीधी भर्ती को प्रशासनिक सुधार की दिशा में बड़ा कदम बता रहा है, वहीं विपक्ष इस फैसले के पीछे संघ की गहरी साजिश देख रहा है. आयोग के उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढ़िया का कहना है कि इससे देश की सर्वोत्तम मेधा का देश के पुनर्निर्माण और उसकी संरचना में बेहतर बौद्धिक योगदान संभव हो सकेगा. देश के पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त शैलेश गांधी भी मानते हैं कि कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में विशेषज्ञ अफसरों की नियुक्ति के अच्छे परिणाम आ सकते हैं, बशर्ते ये नियुक्तियां पारदर्शी ढंग से की गई हों.
दूसरी ओर, विपक्ष का आरोप है कि पेशेवर दक्ष लोगों को संयुक्त सचिव स्तर पर नियुक्त करने सम्बन्धी मोदी सरकार का फैसला राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रति गहरी प्रतिबद्धता वाले लोगों को नौकरशाही में घुसाने की एक सोची समझी योजना है. इस गैर पारंपरिक तरीके से की गई नियुक्तियों से एक तरफ जहां संघ लोक सेवा आयोग जैसी संस्थाओं की गरिमा और निष्पक्षता को ठेस लगेगी, वहीं आईएएस, आईपीएस संवर्ग के अफसरों की मनोदशा पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा.
लैटरल एंट्री के जरिए अधिकारियों की सीधी भर्ती के बारे में सरकार के नजरिए को साफ़ करते हुए नीति आयोग ने कहा है कि इस मामले में हम एक वैश्विक परम्परा पर चलना चाहते हैं. अमेरिका समेत तमाम मुल्कों में ऐसे विशेषज्ञों को सरकार में अहम जिम्मेदारी दी जाती है, फिर इसमें संघ को खींचना या कोई और राजनीतिक मकसद देखना पूरी तरह बेबुनियाद है. वहीं विपक्ष का मानना है कि इस प्रक्रिया से सिविल सर्विसेज के माध्यम से आए अफसरों और सीधी भर्ती वालों के बीच हितों के टकराव का मुद्दा उठ खड़ा होगा.
आरक्षित कोटे से आने वाले अधिकारियों के हित भी इससे प्रभावित होंगे. एक सवाल यह भी है कि संयुक्त सचिव स्तर पर ही सरकार की बहुत सारी योजनाएं फाइनल होती हैं. अब अगर ऐसे पदों पर बाहरी पेशेवर बैठेंगे, तो सरकार से सम्बन्धित सूचनाएं कितनी सुरक्षित और गोपनीय रह पाएंगी कहना मुश्किल है.