बिहार कांग्रेस में जिस नई टीम का गठन हुआ है, वो जाहिर तौर पर सवर्ण मतदाताओं को रिझाने की एक कोशिश नजर आ रही है. इस नई टीम के मुखिया मदन मोहन झा बनाए गए है जबकि अखिलेश प्रसाद दिंह को कैंपेन कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया है.
इसके साथ ही 4 कार्यकारी उपाध्यक्ष बेहे बनाए गए है. इस नई टीम से कांग्रेस को कितना राजनीतिक लाभ होगा, यह कहना अभी कठिन है. पर, इतना तो तय है कि इसने एनडीए विशेषकर भाजपा से नाराज अगड़े मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की एक पहल की है.
एससी/एसटी कानून में बदलाव या दलित आरक्षण को लेकर सवर्ण उथल-पुथल ने अभी गति पकड़ी है, पर यह मतदाता समूह एनडीए सरकारों की रीति-नीति और भाजपा व जद (यू) की राजनीति में खुद को उपेक्षित पाता रहा है. हां, उक्त मसलों ने इस उपेक्षा को आक्रामक तेवर दे दिया.
वस्तुतः मंडल राजनीति के दौर में कांग्रेस से सवर्णों विशेषकर भूमिहार व ब्राह्मण की नाराजगी बढ़ी और ये राजनीतिक तौर पर भाजपा से जुड़ गए. इसका लाभ भाजपा और उसका सहयोगी होने के कारण नीतीश कुमार की पार्टी को मिलता रहा. बाद में ये नीतीश कुमार से छिटकने लगे और भाजपा के अघोषित अगड़ा विरोधी राजनीतिक रूख ने भी उन्हें निराश किया.
2015 के विधानसभा चुनावों में सूबे के अगड़ा मतदाता समूह में इस ट्रेंड की झलक मिली. उस चुनाव में उन अगड़ा बहुल अनेक क्षेत्रों में कांग्रेस उम्मीदवारों की जीत हुई, जो पिछले कई चुनावों से भाजपा (या एनडीए) की सीटें मानी जाने लगी थीं. उस हालत में अब भी कोई सुधार नहीं दिखता है. इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस आलाकमान का यह फैसला उसे यदि कुछ राजनीतिक लाभ दिला दे तो बड़ी बात नहीं है. पर यह लाभ अधिकाधिक तभी मिल सकता है जब पूरी कमिटी पूरे तालमेल से काम करे.