भारतीय समाज में बहुत सारी कहानियां और कहावतें हैं, जो सैकड़ों-हज़ारों सालों के अनुभवों के बाद सूत्र रूप में बनी हैं. एक कहानी आपको सुनाते हैं. दो पड़ोसी थे. एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी से बहुत जलता था और उसकी जलन का हाल यह था कि वह अपने पड़ोसी का अहित करने के लिए किसी से भी मदद ले सकता था. उसने अचानक सोचा कि मैं अपने पड़ोसी का रोज सुबह अपशकुन करूं. भारतीय समाज में अपशकुन के कई तरीके हैं, जैसे बिल्ली रास्ता काट जाए, तो अपशकुन मान लेते हैं. उसी तरह एक आंख का व्यक्ति दिखाई दे जाए, तो देखने वाला उसे अपना अपशकुन मान लेता है. तो जलने वाले पड़ोसी ने सोचा कि बिल्ली मैं तो उसके रास्ते में नहीं छोड़ सकता, पर उसे मैं एक आंख का व्यक्ति, जिसे काना कहते हैं, उसका चेहरा रोज दिखा सकता हूं. उसने काने की तलाश की, लेकिन उसे कोई काना मिला नहीं. तब उसने अपनी ही एक आंख फोड़ ली और अपना चेहरा रोज सबेरे पड़ोसी को दिखाने का निर्णय लिया, ताकि उसका रोज अपशकुन हो.
यह कहानी भारतीय राजनीति में कांग्रेस के ऊपर सटीक बैठती है. इस समय कांग्रेस जलन की जगह निष्क्रिय शब्द के दायरे में अपनी आंख फोड़कर पड़ोसी का अपशकुन करने की योजना बनाती दिखाई दे रही है. कांग्रेस को जहां जनता को साथ लेकर, जनता के सवालों को लेकर सत्तारूढ़ पार्टी से लड़ते दिखना चाहिए, वहां वह आपस में लड़ने में पूरा समय खर्च कर रही है. किसे हटाया जाए, किसे घर बैठाया जाए, किसे बर्फ में लगाया जाए, बस जनता के बीच न जाया जाए. यह चार लफ्जों की कहानी कांग्रेस की बन गई है. न कांग्रेस से किसी की शत्रुता है, न कांग्रेस की किसी से मित्रता है. पर लगता ज़रूर है कि लोकतंत्र का महत्व कांग्रेस ने भुला दिया है. अगर लोकतंत्र में कांग्रेस को विपक्ष का स्थान मिला है, तो इसका मतलब उसे पांच साल तक जनता के सवालों को लेकर जनता को खड़ा करने, उसे उत्साहित करने और निराशा से लड़ने का वक्त मिला है. पर कांग्रेस तो शायद विपक्ष का मतलब ही नहीं समझती, इसलिए उसने लोकसभा में विपक्ष के नेता पद को भी न्यायालय में लाने की चीज बना दिया और जब सुप्रीम कोर्ट ने उसके ऊपर ध्यान नहीं दिया, तो एक तरह से विपक्ष के नेता का पद भीख में मांगने जैसा माहौल बना लिया. क्या लोकसभा में नेता विपक्ष का पद मिलने से ही विपक्ष का रोल पूरा होता है? शायद नहीं.
कांग्रेस अपने पिछले दस सालों के शासनकाल की एक सीख भूल गई. पिछले दस सालों में विपक्ष के रूप में भारतीय जनता पार्टी थी और विपक्ष के नेता पद पर सुषमा स्वराज थीं, उसके पहले लालकृष्ण आडवाणी थे. इतने भारी-भरकम नेताओं के होने के बावजूद देश में भारतीय जनता पार्टी ने विपक्ष का कोई सार्थक रोल नहीं निभाया और इसके लिए उसे कभी माफ़ नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसने पहली बार विपक्ष की गरिमा के ऊपर सवाल खड़ा कर दिया. लेकिन, इसके बावजूद सरकार की गलत नीतियों, सरकार के गलत ़फैसलों और सरकार द्वारा उत्पन्न की हुई समस्याओं से उपजे गुस्से ने कांग्रेस पार्टी को विपक्ष के नेता पद पर काबिज होने की संख्या भी नहीं मिलने दी और जिस दल ने विपक्ष का सक्षम रोल नहीं निभाया या सार्थक रोल नहीं निभाया, उसे ही सत्ता सौंप दी.
शायद कांग्रेस उसी रास्ते पर चलना चाहती है. कांग्रेस में अब राजनीतिक रूप से सोचने-समझने वाले नेताओं का या तो अभाव दिखने लगा है या जो राजनीतिक रूप से सोच-समझ सकते हैं, वे अपनी बात कहना व्यर्थ मानते हैं. बिहार विधानसभा चुनाव के समय राहुल गांधी ने वहां पूरी ताकत लगाई, लेकिन ताकत उन्होंने ऐसे संगठन को लेकर लगाई, जिसे उन्होंने या उनके साथियों ने कभी बनने ही नहीं दिया. नतीजे के तौर पर बिहार में कांग्रेस के स़िर्फ चार विधायक चुने गए. इसके डेढ़ साल के बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव था, लेकिन कांग्रेस ने कोई सीख नहीं ली और उत्तर प्रदेश में संगठन को मजबूत करने का कोई कार्यक्रम नहीं बनाया. न पार्टी के सांसदों को उत्तर प्रदेश में लगाया गया, न विधायकों को और न उन नेताओं को, जो न सांसद थे, न विधायक, लेकिन जिनकी समाज में पैठ थी. एक निष्क्रिय-निर्जीव संगठन उत्तर प्रदेश में बना रहा और दिल्ली से बैठकर उसी लुंजपुंज संगठन को हिलाने-डुलाने की कवायद होती रही.
यह सब राहुल गांधी की आंख के नीचे हो रहा था. उस पार्टी में, जिसकी अध्यक्ष खुद उनकी मां सोनिया गांधी हैं. नतीजा यह हुआ कि उत्तर प्रदेश में पार्टी बुरी तरह हारी. लोकसभा के चुनाव इसके दो साल बाद होने थे, लेकिन लोकसभा चुनाव को लेकर भी सारे देश में न संगठन को सक्षम बनाया गया, न पार्टी के सांसदों- विधायकों को ज़िम्मेदारी दी गई और न उन्हें बताया गया कि किस दिशा में पार्टी संगठन को खड़ा करना है. दूसरी तरफ़ सरकार मनमाने तरीके से ़फैसले लेती रही और राहुल गांधी उन पीआर कंपनियों के इशारे पर अपना रुख तय करते रहे, जो हिंदुस्तानी समाज को समझती ही नहीं हैं. पार्टी के भीतर राजनीतिक सलाहों और राजनीतिक क़दमों का इतना अभाव पैदा हो गया, जिसे केवल एक शब्द से व्याख्यायित किया जा सकता है और वह शब्द है शून्यता.
आम तौर पर यह माना जा रहा है कि सरकार के फैसले सरकार नहीं लेती थी, वे दस जनपथ से होते थे. दस जनपथ ने भी आज तक यह खंडन नहीं किया है कि फैसले उनके यहां से नहीं होते थे. पर अगर सत्ता का एक ही केंद्र था, तो उसके जो सकारात्मक परिणाम निकलने चाहिए थे, वे नहीं निकले. घोटाले पर घोटाले सामने आते गए और पार्टी उनमें लगातार घिरती चली गई. इसके बावजूद लोकसभा चुनाव लड़ने की कोई भी योजना कांग्रेस पार्टी में बनती नहीं दिखाई दी. और, यह सब राहुल गांधी की निष्क्रियता और सोनिया गांधी के अराजनीतिक ज्ञान का परिणाम माना जा सकता है. नरेंद्र मोदी द्वारा उठाए गए सवालों का जवाब कांग्रेस पार्टी कभी दे नहीं पाई और वह नरेंद्र मोदी द्वारा बनाए गए अखाड़े में लड़ती दिखाई दी. कांग्रेस यह भूल गई कि अपने अखाड़े में जीतना आसान है, जबकि प्रतिद्वंद्वी के अखाड़े में लड़ने में हारने की आशंकाएं ज़्यादा होती हैं.
लोकसभा का चुनाव समाप्त हुआ, कांग्रेस पार्टी 44 सीटों पर आ गई. इसके बावजूद ग़ैर राजनीतिक सवाल उसके लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गए, मसलन नेता विपक्ष का पद. होना यह चाहिए था कि राहुल गांधी या कांग्रेस की औपचारिक अध्यक्ष उनकी मां सोनिया गांधी पार्टी के सभी गुटों को, पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं को अलग-अलग बुलातीं और इतने बड़े देश में पार्टी को कैसे खड़ा करना है, इसके बारे में सबकी राय लेतीं. पर इसकी जगह स्वयं को बचाने के लिए ज़िम्मेदारियां तय की जाने लगीं और हमेशा की तरह हार का विश्लेषण करने के लिए एंटोनी कमेटी बनी. पार्टी को लेकर अब तक जितनी भी कमेटियां बनी हैं, उनमें ज़्यादातर में एंटोनी साहब रहे हैं. एंटोनी ने राहुल गांधी को पाक-साफ़ करार दे दिया और कहा कि पार्टी मनमोहन सिंह की वजह से हारी. पार्टी में इसे लेकर कोई चर्चा ही नहीं हुई, बल्कि पार्टी में ही लोगों ने इसका मखौल उड़ाया, क्योंकि मनमोहन सिंह को दिशा देने वाला भी तो दस जनपथ ही था और जब-जब राहुल गांधी ने मांग की, तब-तब मनमोहन सिंह ने उस मांग को पूरा किया. भले ही उसे थूककर चाटने की संज्ञा विपक्ष ने दी हो.
राहुल गांधी बजाय इसके कि पार्टी की नई तरह से विवेचना करते, राज्यों के संगठनों को नए तरीके से संगठित करते, क्योंकि हर साल लगभग एक या दो विधानसभाओं के चुुनाव लगातार आने वाले हैं अगले लोकसभा चुनाव तक. और, राज्यों में कांग्रेस का जीतना बहुत ज़रूरी है. किसी तरह बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव के साथ उसने समझौता किया, लेकिन बाकी राज्यों में पार्टी संगठन क्या करेगा और किसके सहारे अपनी एक या दो या पांच सीटें जीतने की संभावनाएं तलाशेगा, यह अभी तक साफ़ नहीं है. अब कांग्रेस के सचिव, जिनका कांग्रेस के विधान में कोई रोल नहीं है, वे कांग्रेस के सभी नेताओं के ख़िलाफ़ खड़े हो गए हैं. इनमें से ज़्यादातर सचिव ऐसे हैं, जो नए उभरे धनाढ्य वर्ग से आते हैं. इन्हें न राजनीति की समझ है, न विपक्षी पैतरों की समझ है. इनमें से ज़्यादातर जी- हुजूरी और चापलूसी में डिग्री लिए हुए हैं. इनके पास बेपनाह पैसा है और ये राहुल गांधी के साथ खड़े होकर देश में एक नई राजनीति करना चाहते हैं. स्वागत किया जाना चाहिए इस नई राजनीति का भी, क्योंकि इसका जवाब कांग्रेस को हरियाणा विधानसभा चुनाव में मिलेगा, बिहार विधानसभा चुनाव में मिलेगा. उसके पहले झारखंड विधानसभा चुनाव में मिलेगा और यह जवाब कांग्रेस को भारतीय जनता पार्टी नहीं देगी, बल्कि जनता देगी. वह जनता, जिसने कांग्रेस को लंबे समय तक देश में सत्ता पर काबिज रखा. इसका स़िर्फ और स़िर्फ एक कारण होगा, लोगों का कांग्रेस से संपूर्ण मोहभंग.
राहुल गांधी सोनिया गांधी के पुत्र हैं, यह बात उनके पक्ष में जाती है, पर इससे भी ज़्यादा उनके पक्ष में कोई तर्क भविष्य में जा सकता है, तो वह है उनकी समझ. अगर वह भारतीय समस्याओं को समझें, भारत के लोगों की तकलीफों के प्रवक्ता बनें, तो शायद लोग उनकी तरफ़ दोबारा देखें. पर अभी तो ऐसा लगता है कि राहुल गांधी भारतीय जनता पार्टी का अपशकुन हो, इसके लिए अपनी ही आंख फोड़ने में लगे हुए हैं. मुझे लगता है, भारतीय लोकतंत्र में विपक्ष का बहुत सशक्त स्थान है. उस रोल को कांग्रेस पार्टी को किसी और के पास नहीं जाने देना चाहिए, बल्कि स्वयं उसे निभाने का ज़िम्मा पूरा करना चाहिए, अन्यथा विपक्ष के उस रोल को निभाने के लिए नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, देवेगौड़ा और ओम प्रकाश चौटाला जैसे नेता तैयार बैठे हैं. मुझे लगता है, अगले पांच सालों में विपक्ष के अध्याय में एक नई इबारत लिखी जी सकती है.
कांग्रेस को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए
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