कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए-2 सरकार का अब चल-चलाव है. इस कटु सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस द्वारा पिछली चुनावी घोषणा में स्वास्थ्य, आवास, पेंशन, सामाजिक सुरक्षा, इंटरप्रेन्योरशिप, रा़ेजगार, कृषि, सांप्रदायिकता विरोधी क़ानून, महिलाओं को आरक्षण, सच्चर समिति की सिफारिशें लागू करने जैसे वादे पूरे नहीं हो पाए. इस बार के चुनाव घोषणापत्र में कांग्रेस द्वारा ज़्यादातर पुराने और कुछ नए वादे किए गए हैं. अनेक योजनाओं में धनराशि बढ़ाने की बात है, वहीं कुछ बिंदुओं पर फिर से वादे किए गए हैं और यकीन दिलाया गया है. (देखिए, कांग्रेस का घोषणापत्र: वादे हैं वादों का क्या, 7-13 अप्रैल, 2014).
लगता है, कांग्रेस योजनाओं की धनराशियां बढ़ाने को ही विभिन्न समस्याओं का हल मानती है, जबकि नीयत, तरीके और रणनीति की कमी समस्या के मूल में है. बात आम जनता की नहीं, बल्कि कमजोर वर्ग, जिसमें मुसलमान भी शामिल हैं, तक विभिन्न योजनाओं का लाभ न पहुंचने की है. इसके अलावा, देश में 1991 से लागू नई आर्थिक नीति भी विभिन्न समस्याओं का समाधान न होने के लिए ज़िम्मेदार है. सवाल यह है कि 23 वर्षों के अनुभवों के बाद भी कांग्रेस, उसके समर्थक पार्टियां और विपक्षी पार्टियां जाग क्यों नहीं रही हैं? वे बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था की बजाय जनहितैषी अर्थव्यवस्था की बारे में क्यों नहीं सोच रही हैं? एक ऐसा देश, जहां कृषि को आज भी दूसरे क्षेत्रों की तुलना में महत्व प्राप्त है और जहां के पारंपरिक उद्योगों की दुनिया भर में गूंज है, आख़िर क्यों पिछड़ेपन का शिकार है? वजह यह है कि सरकारों ने नई आर्थिक नीति के प्रभाव में इन तमाम मुद्दों पर ध्यान देना कम कर दिया. इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि सबसे पहले जनहितैषी आर्थिक नीति लागू करने का प्रयास हो, तभी देश एवं जनता, दोनों का भला हो सकता है.
हाल में नेशनल सैंपुल सर्वे के 2011 से लेकर 2012 तक सामने आए आंकड़े बताते हैं कि स्थिति बदतर होती जा रही है. आंकड़े कहते हैं कि पुरुष एवं महिला, दोनों की शिक्षा के बढ़ते हुए स्तर के साथ-साथ बेरा़ेजगारी में तेजी से वृद्धि हुई है. 29 वर्ष तक के 16.3 फ़ीसद पुरुष स्नातक बेरोज़गार हैं. बेरोज़गारी की यह स्थिति बीते दशक में बदतर हुई है. डिप्लोमा एवं सर्टिफिकेट धारकों को भी मिला लें, तो बेरोज़गारी 12.5 फ़ीसद और बढ़ जाती है. मतलब यह है कि वोकेशनल कोर्स या डिग्री हासिल करने के बाद युवाओं के लिए रोज़गार के अवसर कम होते जा रहे हैं. स्नातक डिग्री या वोकेशनल कोर्स वाले प्रति चार युवाओं में एक बेरा़ेजगार है. यह प्रतिशत अल्पशिक्षित वर्ग की बेरोज़गारी की तुलना में बहुत अधिक है. जाहिर-सी बात है कि 2014 के संसदीय चुनाव में जो 8 करोड़ नए मतदाता हैं, उनके लिए रोज़गार सबसे बड़ी समस्या है. शिक्षा अधिकार क़ानून एवं राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की स्थिति भी निराशाजनक है. राजनीतिज्ञ शिक्षा एवं स्वास्थ्य के मामलों में फंड देने की बात तो करते हैं, मगर उन फंडों के इस्तेमाल पर उनका कंट्रोल कमजोर है.
इंडिया ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे (आईएचडीएस) 2004-05 एवं 2011-12 के अनुसार, सरकारी कार्यक्रमों और जमीनी स्तर पर अनुभवों के बीच अंतर बहुत ज़्यादा है. रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में नल का पानी 2004-05 में 25 प्रतिशत उपलब्ध था, जबकि 2011-12 में उसमें मात्र 2 प्रतिशत की वृद्धि हुई. शहरी क्षेत्रों में यह पानी आधे या 2 तिहाई परिवारों को हासिल है, जबकि फ्लश वाले शौचालय केवल एक तिहाई लोगों के पास है. बिजली 2004-05 में 72 प्रतिशत लोगों को मिलती थी, 2011- 12 में यह 83 प्रतिशत लोगों को पहुंची. वर्ष 2004-05 एवं 2011-12 में कई नए कार्यक्रम शुरू किए गए, जैसे शिक्षा का अधिकार क़ानून (आरटीई) 2010, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ मिशन (एनआरएचएम) 2005 और जननी सुरक्षा योजना (जेएसवाई) 2005, लेकिन नतीजे निराशाजनक रहे. 2001 की जनगणना के आधार पर अल्पसंख्यक आबादी एवं पिछड़ेपन के पैमाने पर चुने गए अधिक अल्पसंख्यक आबादी वाले 90 ज़िलों में 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत मल्टी-सेक्टोरल डेवलपमेंट प्रोग्राम (एमएसडीपी) लागू किया गया, जो 2012-13 तक चलता रहा, लेकिन 2013-14 में इसके प्रारूप में परिवर्तन करके इसे चुने हुए ब्लॉकों एवं शहरों में लागू कर दिया गया. ग़ौरतलब है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना एवं 2012-13 के दौरान इन 90 ज़िलों के लिए 4843.64 करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट मंजूर किए गए.
अल्पसंख्यकों के लिए एमएसडीपी का मामला हो या मैट्रिक से पूर्व-पश्चात छात्रवृत्ति स्कीम, मौलाना आज़ाद नेशनल फेलोशिप, मुफ्त कोचिंग, इक्विटी, कंट्रीब्यूशन टू नेशनल मायनॉरिटीज डेवलपमेंट एंड फाइनांस को-ऑपरेशन, ग्रांट इन एड टू मौलाना आज़ाद एजुकेशन फाउंडेशन, कंप्यूटराइजेशन ऑफ रिकॉर्ड्स स्टेट वक्फ बोर्ड्स, नई रोशनी, स्किल डेवलपमेंट इनिशिएटिव, जियो पारसी, सिविल सर्विसेज, स्टाफ सेलेक्शन कमीशन एवं स्टेट पब्लिक सर्विस कमीशन की प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए आर्थिक सहायता, विदेशों में शिक्षा के लिए ऋण के ब्याज पर सब्सिडी, प्रधानमंत्री के नए 15 सूत्रीय अल्पसंख्यक कार्यक्रम के बावजूद स्थिति बेहतर होने की बजाय बदतर होती जा रही है. इसकी वजह विभिन्न योजनाओं का लाभ पात्रों तक न पहुंचना है.
सच्चर समिति की सिफारिशें लागू करने के लिए उठाए गए क़दमों के विश्लेषण के लिए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर स्टडी ऑफ रीजनल डेवलपमेंट में प्रोफेसर अमिताभ कुंडू की अध्यक्षता में गठित विशेष समिति की राय भी यही है कि इसका लाभ मुसलमानों तक नहीं पहुंच रहा है. यही कारण है कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने हाल में मुंबई की एक चुनावी रैली में कहा कि एमएसडीपी का एक पैसा भी खर्च नहीं किया जा सका है. प्रोफेसर जोया हसन, जिन्होंने 11वीं पंचवर्षीय योजना के वर्किंग गु्रप की अध्यक्षता की, भी मानती हैं कि सामूहिक तौर पर अल्पसंख्यकों को एमएसडीपी से कोई लाभ नहीं हुआ. बकौल जोया हसन, 2006 में उन्होंने जोर डालकर कहा था कि योजनाएं क्षेत्रों नहीं, बल्कि अल्पसंख्यकों पर केंद्रित होनी चाहिए. ज्ञात रहे कि यूपीए सरकार का यह कार्यक्रम अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए बनीं योजनाओं के विकल्प के तौर पर शुरू किया गया था, लेकिन नाकाम रहा, क्योंकि यह अल्पसंख्यकों के लिए विशेष रूप से नहीं था. यह सुनिश्चित करने के लिए कोई तरीका नहीं था कि सरकार द्वारा किए जा रहे निवेश से अल्पसंख्यकों की स्थिति बदलने जा रही है. दरअसल, उक्त योजनाएं कुछ राज्यों में पिछड़े ज़िलों के विकास कार्यक्रम के आधार पर थीं.
जोया हसन कहती हैं कि इससे विभिन्न ज़िलों के ढांचों में विकास तो हुआ होगा, परंतु अल्पसंख्यकों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ, क्योंकि उक्त ज़िले शत-प्रतिशत अल्पसंख्यक ज़िले नहीं हैं. इसलिए ऐसी योजनाएं बनाई जाएं, जिनका निशाना अल्पसंख्यक बहुल ब्लॉक एवं गांव हों. यही विचार राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्लाह एवं प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हर्षवर्द्धन के हैं. ग़ौरतलब है कि हर्षवर्द्धन ने इस बात पर गत वर्ष विरोध प्रकट करते हुए नेशनल एडवाइजरी काउंसिल से त्यागपत्र भी दे दिया था. उनका ऐतराज यह भी था कि जब सच्चर समिति की सिफारिशों पर अमल करते हुए मुसलमानों की भलाई के लिए योजनाएं बनाई गईं, तो वे आम अल्पसंख्यकों एवं क्षेत्रों के लिए क्यों लागू की गईं? इसके अलावा, अल्पसंख्यक मंत्रालय के अंतर्गत जो धनराशियां अल्पसंख्यकों के लिए तय की जाती हैं, वे उन तक नहीं पहुंच पाती हैं और कुछ तो खर्च भी नहीं हो पाती हैं.
सच्चर समिति की सिफारिश नंबर 40 के अनुसार और वक्फ़ संपत्ति के विकास के मद्देनजर नेशनल वक्फ डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड (नवादको) के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा बीती 29 जनवरी को उद्घाटन के अवसर पर नई दिल्ली के विज्ञान भवन में कांग्रेस एवं यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की उपस्थिति में जाफराबाद-दिल्ली निवासी सामाजिक कार्यकर्ता एवं हकीम फहीम बेग द्वारा उठाई गई बातों पर अगर सरकार समय रहते ध्यान देती, तो आज उसे जिन कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है, न करना पड़ता. फहीम बेग ने उस समय कहा था, प्रधानमंत्री जी, आप द्वारा पहले घोषित योजनाएं असल हक़दार तक पहुंच नहीं पाई हैं. आख़िर क्यों आपकी सरकार योजना पर योजना की घोषणा करती जा रही है? मेरा संबंध दिल्ली के एक ऐसे क्षेत्र से है, जो एमएसडीपी के अंतर्गत चुने हुए 90 ज़िलों में से एक है और जहां आपकी कोई भी अल्पसंख्यक योजना जमीनी सतह तक नहीं पहुंच पाई हैं. अगर सरकार ने फहीम बेग के विरोध को एक व्यक्ति नहीं, बल्कि जनता की आवाज़ समझा होता, तो आज कांग्रेस में जो अनिश्चितता की स्थिति है, वह कदापि न होती. उस समय उनके मुंह को जिस तरह जबरदस्ती बंद करने का प्रयास किया, वह जनतांत्रिक मूल्यों का दमन था. सच तो यह है कि कांग्रेस ने अपने शासनकाल में अपना एपिटाफ स्वयं लिख लिया है और वह अल्पसंख्यकों के लिए इतनी सारी घोषणाओं एवं निर्णयों के बावजूद परेशान है. जो कुछ उसे आज झेलना पड़ रहा है, उसके लिए वह खुद ज़िम्मेदार है. उसे अपनी सोच और व्यवहार पर पुनर्विचार करना चाहिए.
कांग्रेस ख़त्म होने की कगार पर
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