आख़िर में बिहार विधानसभा उपचुनावों में लालू यादव, रामविलास पासवान, कांग्रेस और नीतीश कुमार की साख किस स्तर पर है, देखने लायक़ होगी. सभी ताल ठोंक रहे हैं, पर नीतीश कुमार के दल में शोर थोड़ा ज़्यादा ही है. सभी नेता अपने बेटों या बेटियों को लड़ाना चाहते हैं, पर नीतीश चाहते हैं कि वंशवाद का सिक्का उन पर न चिपके. दिल्ली में हुए अपने दल के सम्मेलन में भी उन्होंने यही बात कही.

हाराष्ट्र और हरियाणा में चुनावों की घोषणा हो चुकी है. महाराष्ट्र कांग्रेस के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहां कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार भी है और कांग्रेस सरकार बनाना भी चाहती है. दूसरी ओर, अभी तक कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस की आपस में सीटों के तालमेल के बारे में बातचीत भी नहीं चल रही है. बल्कि चल रही है तलवारबाज़ी. विलासराव देशमुख और दिग्विजय सिंह बयान पर बयान दिए जा रहे हैं कि एनसीपी का कांग्रेस में विलय होना चाहिए, जबकि ऐसा होना संभव ही नहीं है. कांग्रेस को कब समझ में आएगा कि बेकार की बयानबाज़ी आम लोगों को पसंद नहीं आती.
महाराष्ट्र के लोग उत्तरप्रदेश और बिहार से प्रेरणा ले रहे हैं, जहां कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया था. उत्तरप्रदेश में 21 सीटें जीतीं और बिहार में उसका वोट प्रतिशत बढ़ा. पर दोनों के अलग-अलग कारण थे. उत्तरप्रदेश के विधानसभा उपचुनावों में एक भी सीट कांग्रेस नहीं जीत पाई और बिहार में अभी विधानसभा उपचुनाव होने हैं, जिसका फैसला महाराष्ट्र से पहले आने वाला है. अच्छा होता कि दोनों एक-दूसरे की आंख फोड़ने की जगह अपने साझा दुश्मन भाजपा-शिवसेना का सामना करने की रणनीति बनाते. कांग्रेस को भूलना नहीं चाहिए कि यदि राज ठाकरे की पार्टी अलग से लोकसभा में उम्मीदवार नहीं उतारती तो उसके सभी उम्मीदवार मुंबई में हार जाते. कांग्रेस इसी पर आस लगाए बैठी है कि उसे विधानसभा चुनावों मे भी इसका फायदा मिलेगा और भाजपा-शिवसेना गठबंधन  हार जाएगा. कांग्रेस के लिए ज़रूरी है कि वह दोस्तों की शान बढ़ाए न कि दुश्मनों की. अगर एनसीपी अलग चुनाव लड़ती है और उसका समझौता भाजपा-शिवसेना गठबंधन से हो जाता है, तब क्या होगा? इस स्थिति को नहीं आने देना चाहिए. क्या करेंगे राज ठाकरे, उद्धव ठाकरे अभी नहीं पता, पर महाराष्ट्र में आम धारणा है कि चुनावों के बाद तीनों मिलकर सरकार बनाएंगे. महाराष्ट्र का असर झारखंड और बिहार के आने वाले विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा ही, इसलिए कांग्रेस को इसका ध्यान रखना चाहिए.
शिवसेना अपनी पूरी तैयारी के साथ विधानसभा चुनावों में उतर रही है क्योंकि भाजपा ने कहा है कि उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री बनने पर उसे कोई एतराज़ नहीं है. शिवसेना अभी तक अपना सौम्य चेहरा दिखा रही है क्योंकि उसे उत्तर भारतीयों के वोट चाहिए और ऐसा वह भाजपा के कहने पर ही कर रही है. भाजपा महाराष्ट्र में भी थोड़ी परेशानी में है क्योंकि दिल्ली में चल रही लड़ाई उसके पक्ष में महाराष्ट्र में कोई माहौल नहीं बना पा रही है. महाराष्ट्र भाजपा ने इसीलिए न तो अपने यहां भाजपा की कार्यकारिणी होने दी और न ही

महाराष्ट्र के लोग उत्तरप्रदेश और बिहार से प्रेरणा ले रहे हैं, जहां कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया था. उत्तरप्रदेश में 21 सीटें जीतीं और बिहार में उसका वोट प्रतिशत बढ़ा. पर दोनों के अलग-अलग कारण थे. उत्तरप्रदेश के विधानसभा उपचुनावों में एक भी सीट कांग्रेस नहीं जीत पाई और बिहार में अभी विधानसभा उपचुनाव होने हैं, जिसका फैसला महाराष्ट्र से पहले आने वाला है. अच्छा होता कि दोनों एक-दूसरे की आंख फोड़ने की जगह अपने साझा दुश्मन भाजपा-शिवसेना का सामना करने की रणनीति बनाते.

चिंतन बैठक क्योंकि उसे डर था कि ऐसा होने पर भाजपा का झगड़ालू चेहरा जनता के सामने आएगा.
कांग्रेस ने बस एक अच्छा काम किया और वह यह कि उसने राज्यसभा के उप-सभापति के रहमान ख़ान को महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों का प्रभारी बनाया और उन्हें सभी मुस्लिम विधानसभा क्षेत्रों की ज़िम्मेदारी दे दी. के रहमान ख़ान की छवि अच्छी है और उन्हें महाराष्ट्र में मुसलमानों का समर्थन मिल भी रहा है. लेकिन ख़तरा इस बात का है कि यदि कांग्रेस अकेली लड़ती नज़र आती है तो कहीं लोगों का उत्साह न ठंडा हो जाए.
महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में एनसीपी भी परेशानी में है क्योंकि मराठों के अलावा पिछड़ों का समर्थन भी वह लेना चाहती है. उनके एजेंडे में मुसलमान कभी नहीं हैं, हां किसान ज़रूर हैं, पर लोकसभा चुनावों में उन्हें बहुत सफलता नहीं मिली और अब विधानसभा चुनाव सामने है. शरद पवार अपने बाद किसे नेतृत्व सौंपते हैं, इसकी झलक भी इन विधानसभा चुनावों में देखने को मिल सकती है.
महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव लोकसभा के बाद पहली बार देश की जनता का संकेत देने वाले हैं. हरियाणा में मायावती जी की बहुजन समाज पार्टी और भजनलाल की हरियाणा विकास पार्टी मिलकर कांग्रेस के लिए ख़तरा बन सकती है. कांग्रेस के लिए चैन की बात है कि वहां चौटाला और भाजपा मिलकर अब चुनाव नहीं लड़ेंगे, लेकिन चुनावों के बाद भी नहीं मिलेंगे, यह अभी तय नहीं है. मायावती का ख़तरा महाराष्ट्र में कम है लेकिन वह वहां अपने  उम्मीदवार खड़े कर रही हैं. साथ ही महाराष्ट्र में दलित संगठन अंत तक एक होते हैं या नहीं, यह भी देखना दिलचस्प होगा. प्रकाश आंबेडकर अभी तक किसी दलित संगठन के साथ अपनी पार्टी को मिलाना नहीं चाहते.
और आख़िर में बिहार विधानसभा उपचुनावों में लालू यादव, रामविलास पासवान, कांग्रेस और नीतीश कुमार की साख किस स्तर पर है, देखने लायक़ होगी. सभी ताल ठोंक रहे हैं, पर नीतीश कुमार के दल में शोर थोड़ा ज़्यादा ही है. सभी नेता अपने बेटों या बेटियों को लड़ाना चाहते हैं, पर नीतीश चाहते हैं कि वंशवाद का सिक्का उन पर न चिपके. दिल्ली में हुए अपने दल के सम्मेलन में भी उन्होंने यही
बात कही.
ये थोड़ी झलकियां हैं जो भारतीय राजनीति में आ रही एकरसता को तोड़ेंगी. अभी तक केवल भाजपा के झगड़े का नगाड़ा हर जगह गूंज रहा था, अब कुछ दिनों तक सभी दलों के नगाड़े बजेंगे. जनता पहले भी तमाशबीन थी, अभी भी तमाशबीन ही रहेगी क्योंकि उसे तो बुरों में से सबसे कम बुरे को चुनना है. उसके पास अच्छा उम्मीदवार चुनने का विकल्प ही नहीं है.

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