कांग्रेस हाई कमान, जिसे पहले सोनिया गांधी के नाम से जाना जाता था और अब उसमें राहुल गांधी का नाम जुड़ गया है, चाहता था कि वह उत्तर भारत के लिए एक ऐसा नाम तलाशे जो मुस्लिम नेतृत्व की कमी को दूर करने में सक्षम हो. कांग्रेस के पास उत्तर भारत में केवल गुलाम नबी आज़ाद और सलमान ख़ुर्शीद के नाम थे.
इस बार यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस ने अगस्त महीने की शुरुआत में क्या काम किया, या कहें कि जो फैसला लिया उसका परिणाम क्या निकलेगा. कांग्रेस ने, विशेषकर सोनिया गांधी के उस फैसले से हमारा मतलब है जिसका दूरगामी असर मुसलमानों की सियासत पर पड़ने वाला है. अगस्त में दिल्ली से राज्यसभा के लिए चुनाव होने वाला था, क्योंकि दिल्ली से राज्यसभा सदस्य जयप्रकाश अग्रवाल लोकसभा का चुनाव जीत चुके थे. हर वह व्यक्ति कांग्रेस का प्रत्याशी होना चाहता था जो या तो चुनावों में हार चुका था या जिसे टिकट नहीं मिला था. जगदीश टाइटलर भी उनमें से एक थे तथा बिहार से लोकसभा का चुनाव हारे भूतपूर्व गृह राज्य मंत्री और कांग्रेस प्रवक्ता शकील अहमद दिल्ली से राज्यसभा के लिए सशक्त दावेदार थे. शीला दीक्षित और अहमद पटेल के यहां उम्मीदवारों के समर्थक और विरोधी दबाव डाल रहे थे. अख़बारों में नाम छपने शुरू हो गए, और इसमें उनका ग़म भी छपने लगा जो राज्यसभा में जाना ही नहीं चाहते थे, डॉ. मंज़ूर आलम का ऐसा ही नाम था. दरअसल यह एक रणनीति थी कि नाम छप जाने पर उन्हें टिकट मिलेगा ही नहीं. एक सशक्त लॉबी ने महमूद पराचा का नाम सोनिया गांधी के यहां पहुंचाया तथा एक बार लगने लगा कि उन्हें कांग्रेस का टिकट मिल जाएगा. दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष कमाल फारूखी के समर्थक भी शीला दीक्षित और अहमद पटेल के यहां दबाव डालने लगे. दरअसल हुआ यह कि जुलाई के आख़िरी हफ़्ते में कांग्रेस ने दिमाग़ बनाया कि उसे किसी अल्पसंख्यक को दिल्ली से राज्यसभा में भेजना है, तथा यह बात कांग्रेस नेताओं को लीक कर दी गई. सिख नेता परमजीत सरना के लिए सिखों ने दबाव बनाना शुरू किया.
कांग्रेस हाई कमान, जिसे पहले सोनिया गांधी के नाम से जाना जाता था और अब उसमें राहुल गांधी का नाम जुड़ गया है, चाहता था कि वह उत्तर भारत के लिए एक ऐसा नाम तलाशे जो मुस्लिम नेतृत्व की कमी को दूर करने में सक्षम हो. कांग्रेस के पास उत्तर भारत में केवल गुलाम नबी आज़ाद और सलमान ख़ुर्शीद के नाम थे जिन्हें वह मुस्लिम चेहरे के रूप में मुसलमानों के सामने रखती थी. बाक़ी नेता या तो उम्र गुज़ार चुके हैं या कांग्रेस ख़ुद उन्हें ज़िम्मेवारी के लायक नहीं समझती. यहां हाई कमान ने एक सधी चाल चली कि उसने इशारा किया कि दिल्ली का रहने वाला मुसलमान ही राज्यसभा में जाएगा. यह सलाह हाई कमान को अहमद पटेल ने दी थी, कि इससे पार्टी के भीतर मुस्लिम नेतृत्व के योग्य संभावित नाम आ जाएंगे. नाम आए ज़रूर, पर वे नाम आए जिनमें पार्टी का नेतृत्व करने की क्षमता कम, अपना महत्व बताने का दंभ ज़्यादा था. अहमद पटेल ने हाई कमान को कोई नाम नहीं दिया जबकि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने एक नाम सोनिया गांधी के यहां भेजा.
अब परवेज़ हाशमी पर बात शुरू हुई तो किसी ने उनके नाम का विरोध नहीं किया, करता भी कौन, क्योंकि उनका नाम ख़ुद सर्वोच्च व्यक्ति की ओर से आया था. पिछले सालों में, जब परवेज़ हाशमी शीला दीक्षित मंत्रिमंडल से हटे थे तो उन्हें ख़ुद कांग्रेस अध्यक्ष ने अपनी टीम में सचिव के रूप में शामिल किया था. इसके बाद परवेज़ हाशमी को दिग्विजय सिंह के साथ उत्तर प्रदेश कांग्रेस का भार सौंपा.
उनतीस और तीस जुलाई की रात दिल्ली की सीट के लिए 10 जनपथ में माथापच्ची शुरू हुई. कांग्रेस के तीन महामंत्री कांग्रेस के अध्यक्ष के साथ बैठे. एक महामंत्री ख़ामोश था, दूसरा लगातार कुछ सोच रहा था तथा तीसरा नामों को पढ़ता और काट रहा था. सबसे अंत में नाम शकील अहमद का बचा. अचानक कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि परवेज़ हाशमी को क्यों न राज्यसभा में भेजा जाए. सभी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को देखने लगे.
अब परवेज़ हाशमी पर बात शुरू हुई तो किसी ने उनके नाम का विरोध नहीं किया, करता भी कौन, क्योंकि उनका नाम ख़ुद सर्वोच्च व्यक्ति की ओर से आया था. पिछले सालों में, जब परवेज़ हाशमी शीला दीक्षित मंत्रिमंडल से हटे थे तो उन्हें ख़ुद कांग्रेस अध्यक्ष ने अपनी टीम में सचिव के रूप में शामिल किया था. इसके बाद परवेज़ हाशमी को दिग्विजय सिंह के साथ उत्तर प्रदेश कांग्रेस का भार सौंपा. बिहार कांग्रेस का ज़िम्मा भी उन्हें दिया गया. असम के चुनाव तथा जम्मू-कश्मीर के चुनावों में उन्हें दिग्विजय सिंह के साथ खुद कांग्रेस अध्यक्ष ने भेजा. सभी जगह कांग्रेस को सफलता मिली. दिग्विजय सिंह ने हमेशा सोनिया गांधी से परवेज़ हाशमी की तारी़फ की. शायद सोनिया गांधी की नज़र भी परवेज़ हाशमी पर थी. इसीलिए उन्होंने जिस अंदाज़ में परवेज़ हाशमी का नाम लिया, वह फैसला लेने वाला अंदाज़ था. शायद इसमें परवेज़ हाशमी की विधानसभा चुनावों में चौथी बार जीत भी एक बड़ा कारण बनी और बाटला हाउस कांड के बाद उनका जीतना सोनिया गांधी पर यह असर डाल गया कि मुसलमान कांग्रेस पर भरोसा करते हैं, सोनिया गांधी ने इसे परवेज़ हाशमी की व्यक्तिगत कुशलता के रूप में लिया. परवेज़ हाशमी को लाने का मतलब कांग्रेस पार्टी द्वारा एक नए मुस्लिम नेता की राष्ट्रीय स्तर पर स्थापना है. गुलाम नबी आज़ाद और सलमान ख़ुर्शीद सरकार में हैं और कांग्रेस को महाराष्ट्र में, उसके बाद झारखंड में तथा हरियाणा और बिहार में चुनावों का सामना करना है. इन जगहों पर मुसलमानों का वोट बहुत सी सोटों पर ़फैसला करने वाला है. कांग्रेस के लिए मुस्लिम वोट को जीतना और अपने पक्ष में करना अत्यंत आवश्यक है और साथ ही उसे इस तरह करना है कि हिंदू वोट नाराज़ न हो. परवेज़ हाशमी का चुनाव शायद इसीलिए किया गया है कि वह उन चंद मुस्लिम नेताओं में हैं जिन्हें हिंदू भी अपने क़रीब मानते हैं. सोनिया गांधी परवेज़ हाशमी की इसी क़ाबिलियत का इस्तेमाल करना चाहती होंगी.
लेकिन कांग्रेस में एक बीमारी बहुत पुरानी है. यहां साथ देने की जगह टांग खींचना ज़्यादा पवित्र माना जाता है. कांग्रेस और परवेज़ हाशमी का इम्तहान भी यही है कि कैसे वे इस बीमारी का सामना करते हैं और कैसे उन मुसलमानों को कांग्रेस के साथ लाते हैं जो कांग्रेस से दूर चले गए हैं. अगर परवेज़ इस इम्तहान में सफल हो गए तो कांग्रेस को, विशेषकर सोनिया गांधी, राहुल गांधी और अहमद पटेल को यह श्रेय जाएगा कि उन्होंने देश को एक सेकुलर मुस्लिम नेता दे दिया है.