आज पत्रकारिता के मायने बदल गए हैं, बदल रहे हैं अथवा बदल दिए गए हैं, नतीजतन, उन पत्रकारों के सामने भटकाव जैसी स्थिति आ गई है, जो पत्रकारिता को मनसा-वाचा-कर्मणा अपना धर्म-कर्तव्य और कमज़ोर-बेसहारा लोगों की आवाज़ उठाने का माध्यम मानकर इस क्षेत्र में आए और हमेशा मानते रहे. और, वे नवांकुर तो और भी ज़्यादा असमंजस में हैं, जो पत्रकारिता की दुनिया में सोचकर कुछ आए थे और देख कुछ और रहे हैं. ऐसे में, 2005 में प्रकाशित संतोष भारतीय की पुस्तक-पत्रकारिता: नया दौर, नए प्रतिमान हमारा मार्गदर्शन करती और बताती है कि हमारे समक्ष क्या चुनौतियां हैं और हमें उनका सामना किस तरह करना चाहिए.
चार दशक से भी ज़्यादा समय हिंदी पत्रकारिता को समर्पित करने वाले संतोष भारतीय देश के उन पत्रकारों में शुमार किए जाते हैं, जो देश और समाज से जुड़े प्रत्येक मुद्दे पर निर्भीक, सटीक, निष्पक्ष टिप्पणी करते हैं.
जब एक स्त्री डाकू बदला लेने पहुंचती है-4
बेहमई में हुए नरसंहार के बाद स्थानीय नेताओं द्वारा उसका राजनीतिक लाभ उठाने के जो प्रयास किए गए, उन्हें भी घिनौना कहा जाएगा. ज़रूर बेहमई में जो हुआ, उसके पीछे जातीय भेदभाव की सोच और एक जाति से बदला लेने की उत्तेजना कार्यरत थी, लेकिन उसे कांग्रेस (इं) व भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय नेताओं द्वारा एक घृणित तथ्य के रूप में चिन्हित किए जाने के बजाय अपनी ज़मीन को पुख्ता करने के लिए जातीय आधार पर लोगों की भावनाएं उभारने के लिए ही इस्तेमाल किया गया. संभवत: इसके पीछे एक तीर से दो शिकार करने की योजना थी.
एक तो यह कि इससे क्षेत्र के ठाकुर इकट्ठे होने की ज़रूरत महसूस करेंगे और दूसरे राज्य के मुख्यमंत्री, जो स्वयं ठाकुर हैं, में भी जातीय भावना को उभारा जा सकेगा. इसका यह असर तो अवश्य हुआ कि क्षेत्र के ठाकुर आपस में मोर्चेबंदी की बात करते नज़र आ रहे हैं. क्षेत्र के क्षेत्राधिकारी खुर्शीद आलम, जिन पर घटनास्थल पर पड़े 305 बोर के कारतूसों को बदल कर 13 बोर के कारतूस फेंके जाने का आरोप है व थाना सिकंदरा के प्रभारी राम नाथ सिंह यादव को हटाकर उनके स्थान पर क्रमश: अभिमन्यु त्रिपाठी व श्यामवीर सिंह राठौर की नियुक्ति कर दी गई है. संभव है, दोनों नवनियुक्त पुलिस अधिकारियों का सवर्ण होना महज संयोग हो, लेकिन क्षेत्र के कुर्मियों द्वारा इसे सुनियोजित कार्रवाई की ही संज्ञा दी जा रही है.
क्षेत्रीय विधायक राम स्वरूप वर्मा घटना की सूचना पाकर पांच दिन बाद राजपुर गए और बेहमई गए बिना ही लखनऊ वापस लौट गए. कहते हैं, वहां उन्हें किसी ने यह समझा दिया कि बेहमई में उनके खास स्वागत की तैयारियां हुई हैं और उनका बेसब्री से इंतजार किया जा रहा है, जिससे वह भयभीत हो गए. यह भी चर्चा है कि उनके चतुर अनुभवी राजनीतिक मस्तिष्क ने घटना से जन्मी जातीयता के उन्माद को समझ लिया और उन्होंने सोचा कि वहां जाकर मृतकों के परिवारों के प्रति सहानुभूति प्रकट करने से क्षेत्र के कुर्मियों में उनके विरुद्ध आक्रोश फैल सकता है.
अब जरा पुलिस व्यवस्था का चेहरा देखिए. उत्तर प्रदेश में राज्यपाल शासन के समय 1980 में जालौन, इटावा, मैनपुरी, एटा व फर्रुखाबाद में चुन-चुनकर ऐसे पुलिस अधिकारी नियुक्त किए गए, जिन्हें विभाग में सबसे घटिया समझा जाता था. जब विश्वनाथ प्रताप सिंह मुख्यमंत्री बने, तब उन्हें समझाया गया कि चूंकि इन्हें अभी ही नियुक्त किया गया है, अत: इन्हें न हटाया जाए. यह सिफारिश इंका के ऐसे नेताओं ने की, जो डाकुओं को संरक्षण देने के लिए बदनाम हैं. जितने भी अच्छे आईपीएस अफसर हैं, सबको इंटेलिजेंस तथा सीआईडी में भेज दिया गया. इन ज़िलों में नियुक्त सभी अधिकारी पैंतालिस वर्ष से ज़्यादा उम्र के हैं. लगता है, उन्हें प्रदेश के संवेदनशील ज़िलों में अवकाश पूर्व पेंशन-सी दे दी गई है. इन अफसरों के विरुद्ध बहुत-से शिकायती पत्र मुख्यमंत्री को दिए गए, लेकिन उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की.
पुलिस की भी अपनी दिक्कतें हैं. एसएसपी या एसपी को प्रतिदिन खाता-बही लिखने का काम करना होता है, जिसके कारण वह हेडक्वार्टर नहीं छोड़ सकता है. सन् 1978 से 303 बोर की गोलियां पुलिस को अभ्यास के लिए नहीं दी गई हैं, जबकि डकैत रोज उनका अभ्यास करते हैं. परिणामत: डकैतों का निशाना सही होता है, पुलिस का ग़लत. पुलिस आयोग की 1960 की रिपोर्ट पर अमल अभी तक नहीं किया गया. नतीजा यह है कि आज भी पुलिस को यदि एक मुर्दा लाना हो, तो 60 मील का किराया 35 रुपये दिए जाते हैं. गवाही के लिए किसी को लाना हो, तो एक रुपये 25 पैसे किराए के लिए दिए जाते हैं. चौकीदार को अभी भी पांच रुपया महीना वेतन मिलता है. कठिनाइयां और भी हैं. एक उच्च पुलिस अधिकारी के शब्दों में, यहां पीएसी के लोग पूरी तरह पुलिस पर ही निर्भर हैं. एक तरह से पुलिस ही उनकी आंखें हैं. उन्हीं के निर्देशन में उन्हें कार्रवाई करनी होती है.
बीहड़ों में पड़ी पीएसी की टुकड़ियों का काम दिन में पेट्रोलिंग करना तथा रात में डाकुओं के आने-जाने के संभावित रास्तों पर घात लगाना होता है. पीएसी की टुकड़ियों में आपस में संवाद बनाए रखने का कोई साधन नहीं है. उन पर यदि डाकू गिरोह हमला कर दे, तो उसकी खबर वहां से हम तक पैदल चलकर पहुंचेगी. पीएसी की जिस टुकड़ी पर सूचना पाकर भी न पहुंचने का आरोप लगाया गया है, उसके बारे में उनका कहना था कि उस वक्त कैंप में स़िर्फ चार पोस्ट गार्ड ही थे, जिन पर पोस्ट की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी थी.
बाकी जवान पेट्रोलिंग पर गए हुए थे. फिर सूचना पाकर पेट्रोलिंग करती टुकड़ी को बेहमई से बाहर निकलने के डाकुओं के संभावित रास्ते पर घात लगाने के लिए भेज दिया गया था, लेकिन शायद किसी ने डाकुओं को इसकी सूचना दे दी और उन्होंने लौटने का रास्ता बदल लिया. कमांडर महोदय के अनुसार, सैन्य दृष्टिकोण से यही उचित भी था, क्योंकि बेहमई में जो होना था, हो चुका था. हां, उस वक्त बेहमई जाकर लोगों को संतुष्ट करने का काम अवश्य किया जा सकता था.
लेकिन जिसे पीएसी के जवानों ने दूसरे नंबर का काम समझा, उसे राजनेताओं व प्रशासनिक अधिकारियों ने पहले नंबर का माना. जिस तरह दनादन घटना के बाद से बेहमई में अधिकारियों का तांता लग गया, उसने गांव के हताहत परिवारों को निश्चय ही एक संतुष्टि दी. प्रति व्यक्ति पांच हज़ार रुपये व एक कंबल भी बांटा गया. यह सामान बांटने गए पुखरायां के तहसीलदार साहब ने गांव पहुंचते ही जिस तरह लोट लगाई, उससे उनकी दयानतदारी का आभास मिलता था. चारपाई पर अधलेटे, उन्होंने गांव के मुखिया के ज़रिये मृतकों की बेवाओं को वहीं एक-एक करके आने का निर्देश दिया. शायद यही होता भी, किंतु तभी कोई अक्खड़ स्वर में बोला कि सबके घर जाकर रुपये दीजिए.
इससे तहसीलदार की भौंहें ऐठीं, लेकिन मा़ैके की गंभीरता को समझ कर वह अपना कोट संभालते हुए उठ गए. चलते-चलते उन्होंने अपनी जीप के ड्राइवर को बुलाकर आस-पास के किसी खेत से चने का हरा साग तोड़ लाने का आदेश दे दिया.
जारी…