कोलकाता के लुब्धक चटर्जी की हिंदी फिल्म  ‘ ह्विस्पर्स आफ फायर एंड वाटर ‘ छठवें अल गूना फिल्म फेस्टिवल के प्रतिष्ठित मुख्य प्रतियोगिता खंड में दिखाई जा रही है। यह अकेली भारतीय फिल्म है जो इस खंड में प्रतियोगिता कर रही है। यह इस युवा निर्देशक की पहली फीचर फिल्म हैं जो कहानी से अधिक अपनी कलात्मक सिनेमैटोग्राफी और साउंड डिजाइन के कारण अद्वितीय बन गई है। फिल्म के मुख्य किरदार की भूमिका में बांग्ला थियेटर से आए सागनिक मुखर्जी ने शारीरिक उपस्थिति से परे जाकर ऐसा शानदार अभिनय किया है कि वे प्रकृति के साथ हवा और पानी में बदल जाते हैं। कोयला खदानों, डंपिंग ग्राउंड, खान मजदूरों के घरों,घने जंगल, झरनों, हवा और बारिश तथा लैंडस्केप की इतनी विलक्षण सिनेमैटोग्राफी बहुत कम देखने को मिलती हैं।
राजनीति, कोयला खदानों की बदरंग दुनिया, मजदूर यूनियन, कोल माफिया, पुलिस और पर्यावरण विनाश के मुद्दों को उठाने और बदलाव की चाहत जैसे मुद्दों को बिना शोर किए उठाने के बावजूद फिल्म अपनी कलात्मक सिनेमाई पकड़ और अनुभव ढीली नहीं पड़ने देती। फिल्म में प्रत्यक्ष हिंसा और दुर्घटना तो नहीं है पर उसकी आशंका हर फ्रेम में बनी रहती है। संवाद बहुत कम, पर असरदार है। छवियों, दृश्यों, और स्वाभाविक आवाजों और ध्वनियों पर फोकस है जिन्हें हम रोजमर्रा की आपाधापी में अनसुना करते रहते हैं। इस फिल्म को बुद्धायन और मोनालिसा मुखर्जी तथा शाजी एवं अरुणा मैथ्यू ने प्रोड्यूस किया है।


फिल्म का नायक शिवा ( सागनिक मुखर्जी) एक आडियो आर्टिस्ट है जो आवाजों को रिकार्ड करके उनका इंस्टालेशन रचता है। वह एक आर्ट प्रोजेक्ट के सिलसिले में पूर्वी भारत ( संभवतः झारखंड) के कोयला खदानों में पहुंच जाता है । इस इलाके में हर जगह धरती के भीतर आग लगी हुई है और कोयले का सफेद धुआं निकलता रहता है। बताते हैं कि घरती के भीतर सौ साल से आग लगी हुई है। इस इलाके के बाशिंदे कालिख,  धुआं और बीमारियों के साथ जीना सीख गए हैं।


उसे वहां एक शिक्षक , एक पुलिस इंस्पेक्टर और एक आदिवासी खदान मजदूर दीपक मिलते हैं जिनके साथ उसकी खोज यात्रा चलती है। शिक्षक शिवा से पूछते हैं कि  ” जगह जगह धरती से निकलते सफेद धुएं, घुटन और बुझी हुई जिंदगियों में क्या ढूंढ रहे हैं, यहा सबकुछ खोखला है।” शिक्षक को आश्चर्य होता है कि शहर की कला दीर्घाओं में लोग टिकट कटा कर आडियो इंस्टालेशन को सुनने आते हैं। कोयला खदान का एक अधिकारी एक महिला टीवी रिपोर्टर का मजाक उड़ाते हुए कहता है कि -” आपलोग यहां पिकनिक मनाने आते हैं और कहानियां बनाते हैं जबकि यहां सबकुछ ठीक चल रहा है। ” पुलिस इंस्पेक्टर को शहर में हुए मर्डर के चश्मदीद गवाह की तलाश है। उसे शिवा में वह गवाह नजर आता है।  शिवा एक दिन आदिवासी खान मजदूर दीपक के साथ जंगल में उसके गांव पहुंच जाता है। पता चलता है कि अक्सर गांव के कुछ आदिवासी रहस्यमय ढंग से गायब हो जा रहे हैं। शिवा के पूछने पर दीपक बताता है कि उसके पूर्वज ज्ञान के पेड़ की तलाश में जंगल जाते थे और फिर कभी वापस नहीं लौटते थे। जंगल में आवाज़ों को रिकार्ड कर रहे शिवा को एक दिन सीआरपीएफ के जवान पूछताछ के लिए रोक लेते हैं। शिवा उनसे पूछता है कि ” आपलोग इतने सवाल क्यों पूछते हैं?”  उनके जाते ही दूर से गोलियां चलने की आवाजें आने लगती है। यह एक ऐसी दुनिया है जो सुविधा संपन्न शहरी जीवन के आदी हो चुके शिवा के लिए रहस्यमय किंतु आकर्षक है।  यहां शिवा के शहरी संस्कारों और मूल्यों को गहरी चुनौती मिलती है।वह जीवन के किसी सत्य की तलाश में आदिवासी इलाके के जंगल में भटक रहा है।

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