पिछले 70 वर्षों में विभाजित हुए देश बांग्लादेश से गैर-कानूनी तौर पर भारत में दो बार घुसपैठ की कोशिश हुई. यह समस्या एक राजनैतिक समस्या है और असम व पूर्वोत्तर के मूल निवासियों के लिए एक बड़ी सामाजिक समस्या भी है. फिलहाल यह मसला एक बार फिर सुर्ख़ियों में है, क्योंकि केंद्र सरकार नागरिकता (संशोधन) बिल, 2016 संसद में पेश करने की तैयारी कर रही है. इस बिल को लेकर असम और पूर्वोत्तर के कई राज्यों में विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए हैं. हालांकि इन प्रदर्शनों ने अभी व्यापक रूप नहीं लिया है, लेकिन यहां के सामाजिक और राजनैतिक संगठनों ने जिस तरह इस बिल का संज्ञान लिया है, उसे देखते हुए इसे व्यापक रूप धारण कर लेने की पूरी आशंका है.
घुसपैठ असम का भावनात्मक मुद्दा
गौरतलब है कि असम में इस बिल को लेकर विरोध करने वाले संगठनों का कहना है कि यह बिल, 1985 में हुए ‘असम समझौते’ के प्रावधानों का खुला उल्लंघन है. समझौते में एक प्रावधान यह रखा गया था कि 25 मार्च 1971 (बांग्लादेश स्वतंत्रता युद्ध की शुरुआत) के बाद बांग्लादेश से आए सभी धर्मों के अवैध नागरिकों को वहां से निर्वासित किया जाएगा. ज़ाहिर है यह एक भावनात्मक मुद्दा है, जिसके इर्द-गिर्द असम की राजनीति कई दशकों से घूम रही है. पिछले विधानसभा चुनाव में भी भाजपा ने इस मुद्दे को उठाया था और उसे इसमें कामयाबी भी मिली थी. लेकिन भाजपा ने 2014 में एक और चुनावी वादा किया था, जिसमें कहा गया था कि सताए गए हिंदुओं के लिए भारत एक प्राकृतिक निवास बनेगा और यहां शरण मांगने वालों का स्वागत किया जाएगा. ज़ाहिर है यहां आशय पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए और अवैध रूप से भारत में रह रहे हिन्दुओं से था.
दरअसल भाजपा यहां एक तीर से दो शिकार खेल रही थी. एक तरफ वह असम में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशी नागरिकों के निर्वासन की बात कर असम में अपनी पकड़ मज़बूत कर रही थी, दूसरी ओर नागरिकता (संशोधन) बिल लाकर अपना चुनावी वादा पूरा कर हिन्दू वोट बैंक मज़बूत करना चाहती थी. लेकिन फिलहाल असम में उसकी चाल उलटी पड़ती दिख रही है, क्योंकि इस बिल को लेकर राज्य में शुरू हुए विरोध प्रदर्शन के बाद राज्य की भाजपा सरकार की प्रमुख घटक असम गण परिषद (एजीपी) ने धमकी दी है कि अगर यह बिल पास होता है तो वह गठबंधन से अलग हो जाएगा. एजीपी ने न केवल इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किए हैं, बल्कि उसने इस बिल के ख़िला़फ राज्य में हस्ताक्षर अभियान भी शुरू किया है. हालांकि कांग्रेस ने भी इस बिल का विरोध किया है, लेकिन उसका रुख नपा-तुला है. फिलहाल कांग्रेस का कहना है कि यह विधेयक 1985 के असम समझौते की भावना के ख़िला़फ है और यह राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को भी प्रभावित करेगा. विरोध के सुर खुद भाजपा के अन्दर से भी सुनाई दिए. मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने राज्य के लोगों के हितों की रक्षा नहीं कर पाने की स्थिति में इस्तीफा देने की बात कह दी. सोनोवाल ने कहा, मुख्यमंत्री होने के नाते यह मेरा कर्तव्य है कि सभी को साथ लेकर चलें और केवल ख़ुद से ही निर्णय नहीं लें. असम के लोगों की राय लेकर हम इस मुद्दे पर फैसला करेंगे. कहने का अर्थ यह कि मुख्यमंत्री खुल कर इस बिल कर विरोध नहीं कर सके.