खरमास खत्म हो गया है. सूबे में सोलहवीं लोकसभा के लिए चुनाव की तैयारी जोरों पर है. अब यह कयास लगाए जा रहे हैं कि जल्द ही बिहार में नए समीकरण सामने आने वाले हैं. प्रमुख राजनीतिक दलों जदयू, भाजपा, राजद, लोजपा और कांग्रेस में से हर किसी को एक साथी की आवश्यकता है. फिलहाल स्थिति यह है कि बिहार के प्रमुख राजनीतिक दलों में से किसी के भी पास चालीस सीटों पर भरोसेमंद उम्मीदवार नहीं हैं. भाजपा और जदयू अलग हो चुके हैं. राजद और लोजपा मे टकरार जारी है. कांग्रेस के अंदर ही दो खेमे हैं. एक लालू के साथ जाना चाहता है तो दूसरा नीतीश को तवज्जो दे रहा है. वहीं बिहार के वामपंथी भी एक मंच पर आने को तैयार नहीं दिख रहे हैं. ऐसे में यह माना जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में बिहार में नया समीकरण देखने को मिलेगा. लेकिन इन तमाम कवायदों के बीच बिहार के छोटे दल भी अपने-अपने स्तर पर तैयारी मे लगे हुए हैं. बसपा, राकपा और रालोसपा, ये तीन प्रमुख छोटी पार्टियां हैं बिहार में. ये तीनों पार्टियां भी आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर कमर कस चुकी हैं और अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने का दावा कर रही हैं.
बात अगर बसपा की करे तो वह लंबे समय से बिहार में जमीनी स्तर पर काम कर रही है. बिहार के लगभग सभी जिलों में उसके संगठन हैं. साल भर वह कैडर बनाने की दिशा में आयोजन और प्रशिक्षण का काम अलग-अलग जिलों में करती रहती है. यही वजह है कि बिहार में भी धीरे-धीरे उसका जनाधार बढ़ता जा रहा है. 1995 में बिहार में बसपा के दो विधायक थे. चैनपुर विधानसभा से महाबली सिंह और मोहनिया सुरक्षित सीट से सुरेश पासी. वहीं 2000 के विधानसभा में उसके पांच विधायक जीत कर आए. धनहा से राजेश सिंह, राजपुर सुरक्षित से छेदी राम, फारबिसगंज से जाकिर हुसैन. वहीं चैनपुर और मोहनिया की सीट पर भी उसने कब्जा बरकरार रखा, लेकिन 2005 में ही जब नवंबर में चुनाव हुए तो इसके फिर चार विधायक हुए. भभुआ से रामचंद्र यादव, दिनारा से सीता सुंदरी, बक्सर से हृदयनारायण यादव और कटया से अमरेंद्र पाण्डेय ने अपनी सीट बरकरार रखी, लेकिन 2006 में जब मध्यावधि चुनाव हुआ तो नैतन विधानसभा की सीट ही इसके हाथ लगी और नारायण साह वहां से चुने गए. 2010 के विधानसभा चुनाव में तो उसका एक भी उम्मीदवार सदन तक नहीं पहुंचा. वैसे यह चौंकाने वाली बात नहीं थी. नीतीश की लहर में कई दलों की स्थिति बदतर हो गई थी. बावजूद इसके बसपा की संगठनात्मक कार्रवाई चलती रही. बिहार में हुए लोकसभा के चुनावों में भी कई सीटों पर बसपा का प्रदर्शन बेहतर ही माना जाता है. कई लोकसभा सीटों पर बसपा के प्रत्याशियों को पचास हजार से एक लाख तक वोट मिले. बक्सर में इसके प्रत्याशी श्यामलाल सिंह कुशवाहा को एक लाख 27 हजार वोट मिले थे. वहीं सासाराम में गांधी आजाद को 96 हजार मत प्राप्त हुए थे तो शिवहर से उसके प्रत्याशी रहे अनावरुल हक को भी एक लाख से अधिक मत ही प्राप्त हुए थे. बसपा इस बात को लेकर आश्वस्त है कि बिहार में उसका जनाधार बढ़ता जा रहा है. यही वजह है कि बसपा इस बार भी बिहार में अपने दम पर लोकसभा चुनाव लड़ेगी. पार्टी सूत्रों ने बताया कि बिहार में बसपा चालीस सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करेगी. पिछले कई दिनों से राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा थी कि आगामी लोकसभा का चुनाव बसपा कांग्रेस के साथ लड़ेगी, लेकिन बसपा के राष्ट्रीय महासचिव और सांसद सतीश चंद्र मिश्र ने इस बात का खंडन किया है. बताते चलें कि बसपा ने एक बार कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था और कहा जाता है कि इसमें कांग्रेस को तो बसपा का वोट मिल गया था, लेकिन बसपा को कांग्रेसियों ने वोट नहीं दिया था. इसके बाद से ही बसपा पूरे देश में लोकसभा का चुनाव अकेले लड़ती है. 2009 के लोकसभा में बसपा ने 500 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, जिसमें से उसे 21 सीटें हाथ लगी थीं. बोधगया बम बलास्ट के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती का बिहार आना हुआ था. उस दौरान भी उन्होंने केंद्र सरकार के साथ-साथ बिहार सरकार पर जमकर प्रहार किया था. उसी समय से यह संकेत मिलने लगे थे कि बसपा बिहार में चालीस सीटों पर चुनाव लड़ेगी. सूत्रों ने बताया कि पिछले दिनों अपने जन्मदिन के मौके पर मायावती ने बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के प्रभारियों से विशेष मुलाकत की और आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर विस्तृत बातचीत की. मुलाकात में यह बात कही गई कि इन राज्यों में कैडर निर्माण का काम युद्ध स्तर पर चलाया जाए और कार्यकर्ताओं को साहित्य और सूचनाओं से लैस किया जाए. जानकार बताते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी को बिहार में पांच फीसद वोट मिले थे. अब देखना यह होगा कि आगामी लोकसभा में बसपा क्या कर पाती है.
बसपा बिहार में चुनावी रणनीति को लेकर अपना स्टैंड साफ कर चुकी है, लेकिन रालोसपा और राकपा में अब भी संशय बरकरार है. यह सर्वविदित है कि राकपा का जन्म ही कांग्रेस के खिलाफ हुआ था. बिहार के तारिक अनवर राकपा के प्रमुख सदस्य हैं और केंद्र में मंत्री भी हैं. तारिक हाल के दिनों में बिहार में सक्रिय भी रहे हैं. उन्होंने पिछले दिनों एक संवाददाता सम्मेलन के दौरान कहा कि शरद पवार प्रधानमंत्री की दौ़ड में नहीं हैं. साथ अगले लोकसभा चुनाव को लेकर क्या रणनीति होगी? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि हम फिलहाल कांग्रेस के साथ संप्रग में हैं और उसी संप्रग का विस्तार बिहार में होगा. तारिक कई दफे पहले भी कह चुके हैं कि प्रदेश की सेक्युलर पार्टियों के साथ ही उनका गठबंधन संभव है. राकपा कटिहार को अपनी सीट कहती है. साथ ही आगामी लोकसभा चुनाव में औरंगाबाद, उजियारपुर और झारखंड के चतरा से अपने उम्मीदवार खड़े करने का मन बना चुकी है. पार्टी के कई नेताओं से बातचीत के बाद ऐसा लगता है कि राकपा आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के फैसले के साथ ही जाएगी. फिलहाल जो समीकरण बनता दिख रहा है, उस लिहाज से कांग्रेस अपने पुराने साथी राजद और लोजपा के साथ ही बिहार में गठबंधन करेगी और अगर ऐसा होता है तो पार्टी की बिहार इकाई में दरार आना तय है. राकपा के प्रदेश अध्यक्ष नागमणी कहते हैं कि अगर कांग्रेस राहुल और मनमोहन को सामने रखकर चुनाव लड़ेगी तो कुछ भी हासिल नहीं होने जा रहा है. उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी की काट यूपीए में सिवा शरद पवार के कोई नहीं हैं. नागमणी नीतीश के विकास मॉडल के भी प्रशंसक दिखे. उन्होंने कहा कि लालू ने अपने पंद्रह वर्षों के शासनकाल में बिहार को बर्बाद कर दिया था इसे रास्ते पर नीतीश ने लाया है. यह कहने पर कि कांग्रेस तो बिहार में लालू के साथ ही जाएगी, नागमणी हत्थे से उखड़ जाते हैं. नागमणी साफ कहते हैं कि हम किसी के गुलाम नहीं हैं. अगर आलाकमान जमीनी हकीकत को नहीं समझता है तो पार्टी की बिहार इकाई में बगावत तय है. नागमणी की मानें तो बीजेपी को शिकस्त देने के लिए पार्टी और कांग्रेस को अगामी लोकसभा चुनाव जदयू, लोजपा और सीपीआई-सीपीएम के साथ मिलकर लड़ना होगा.
बहरहाल, सोलहवीं लोकसभा चुनाव को लेकर सबसे ज्यादा दुविधा में रालोसपा ही दिख रही है. किसी भी दल ने इसे अब तक पनाह नहीं दी है. पूर्व सांसद और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने जदयू से बगावत कर अपनी नई पार्टी रालोसपा बनाई थी. पार्टी बनाने से पहले उन्होंने पूरे राज्य का भ्रमण किया था और घूम-घूमकर कहा था कि वे ही बिहार में नीतीश का विकल्प बनेगे. कुछ दिनों तक वे एनसीपी के साथ भी रहे, लेकिन यहां भी उनकी नहीं बनी. 2009 में उन्होंने राष्ट्रीय समता पार्टी भी बनाई और चुनाव भी लड़ा. बाद के दिनों में यानी 2010 में वे फिर नीतीश के साथ चले गए. नीतीश ने उन्हें राज्यसभा में भेजा और बाद में नीतीश की कार्यशैली से नाखुश होकर बिहार बचाओ यात्रा पर निकले और अपनी पार्टी ही बना ली. कहा जाता है कि बिहार में कुशवाहा जाति की संख्या अच्छी है और यादव की अपेक्षा इसकी मारक क्षमता भी अधिक है, लेकिन यह भी सच है कि उपेंद्र कुशवाहा अब तक खुद को कुशवाहा समाज के सर्वमान्य नेता के रूप मे स्थपित नहीं कर पाए हैं.
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