Ganna-Kisanबिहार की सीमा से सटा पूर्वी उत्तरप्रदेश का पिछड़ा जिला देवरिया कभी चीनी की कटोरी (शुगर बाउल) के नाम से प्रसिद्ध था. चौदह चीनी मिलें इसकी समृद्धि की प्रतीक थीं. वक्त बदला, तो सियासत की प्राथमिकताएं भी बदलीं और राजनीति की दुरभिसंधियों ने चीनी मिलों को धीरे-धीरे बंद कराना शुरू कर दिया.

किसान बेबस और लाचार बनते चले गए. विकास से बदहाली के स़फर की पटकथा लिखी जाने लगी. पार्टियों का वार-रूम जातीय गुणा-गणित पर फोकस होने लगा. बाहुबल, जातिबल और धनबल की सियासत ने चुनावों को मुद्दा विहीन कर दिया. मिल-कारखाने बंद होते गए और किसानों की खुशहाली छिन गई.

विडंबना यह है कि इसके बावजूद चीनी मिलों का बंद होना, यहां चुनावों में कभी मुद्दा नहीं बना, जबकि देवरिया समाजवादी आन्दोलन का प्रमुख केंद्र रहा. गन्ना मिलों और गन्ना समितियों ने कई विधायक पैदा किए. लेकिन कालांतर में इन नेताओं ने भी आन्दोलन से अपना किनारा कर लिया. आज यहां के हालात इतने बदतर हो गए हैं कि किसान मजदूर बन गए हैं और युवा दूसरे प्रदेशों में पलायन करने को बेबस हैं.

देवरिया की रामपुर कारखाना विधानसभा सीट से समाजवादी पार्टी की गजाला लारी विधायक हैं. गजाला लारी शिवपाल यादव की नजदीकी मानी जाती हैं, इसलिए अखिलेश निजाम में उनके टिकट मिलने पर ग्रहण लग सकता है. क्षेत्र में गजाला लारी को बिना काम वाला जन प्रतिनिधि माना जाता है. उनके खिलाफ लोगों में काफी रोष है. इस बार रामपुर कारखाना विधानसभा सीट से जुझारू किसान नेता शिवाजी राय की उम्मीदवारी खासी चर्चा में है.

शिवाजी राय पिछले चार बार से विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं. इस बार जनता दल (यू) ने शिवाजी राय को रामपुर कारखाना से अपना आधिकारिक उम्मीदवार घोषित किया है. स्थानीय लोग शिवाजी राय के पक्ष में हैं. इस बार उन्हें चार बार विधानसभा चुनाव लड़ने पर लोगों की सहानुभूति भी मिल रही है. वैसे किसानों के लिए संघर्षरत रहने और दर्जनों बार पुलिस की लाठियां खाने व गिरफ्तार होने और देशभर में पूर्वांचल के किसानों का मसला उठाते रहने के कारण शिवाजी राय नाम के लिए

मोहताज नहीं हैं. गन्ना किसानों के लिए प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक धरना-प्रदर्शनों, आंदोलनों, सभाओं और टीवी चैनेलों पर होने वाली चर्चाओं में शिवाजी राय की सक्रिय भागीदारी सर्वविदित है. देवरिया ओवर ब्रिज निर्माण के लिए 100 दिन का अनशन रहा हो या गोरया घाट पुल निर्माण के लिए लखनऊ में क्रमिक अनशन और खुखुन्दू विकास खंड के लिए अथक संघर्ष का मसला हो, शिवाजी राय का नाम सुर्खियों में रहा है.

राय के पक्ष में लोगों के बीच एक सहानुभूति की लहर भी दिख रही है. स्थानीय लोगों में यह भी चर्चा है कि समाजवादी पार्टी के साथ महागठबंधन में शामिल होने पर जदयू अगर रामपुर कारखाना सीट समझौते में छोड़ भी देगी, तब भी शिवाजी राय को मिल रहे जन समर्थन पर कोई असर नहीं पड़ेगा. वैसे भी मौजूदा विधायक को लेकर स्थानीय लोगों में काफी नाराजगी है.

देवरिया सात विधानसभा क्षेत्रों का जनपद है. जिसमें रामपुर कारखाना, देवरिया सदर, बरहज, सलेमपुर, भाटपाररानी, रूद्रपुर और पथरदेवा विधानसभा सीटें आती हैं. यहां के सात सीटों में से पांच पर समाजवादी पार्टी के विधायक हैं, तो एक सीट पर भाजपा और एक पर कांग्रेस काबिज है. 2012 के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का जिले में खाता भी नहीं खुला था.

बसपा ने देवरिया सदर से अभय नाथ तिवारी, सलेमपुर से शंकर मिस्त्री, रूद्रपुर से चंद्रिका निषाद, पथरदेवा से नीरज वर्मा, रामपुर कारखाना से गिरजेश शाही, बरहज से मुरली जायसवाल और भाटपार रानी से सभा कुंवर को मैदान में उतारा है. जबकि अभी तक भाजपा के प्रत्याशी तय नहीं हो पाए थे. देवरिया जिले में भाजपा के एकमात्र विधायक देवरिया सदर से जनमेजय सिंह हैं.

जनमेजय सिंह कुर्मी जाति से आते हैं. यहां इनका जातीय आधार मजबूत है. इसके पूर्व 1991 में भाजपा से रवीन्द्र प्रताप मल्ल विधायक निर्वाचित हुए थे. सन 1967 व 1985 में इस विधानसभा सीट से एफ. चिश्ती व फजले मसूद कांग्रेस पार्टी से चुनाव जीते थे.

अन्य चुनावों में यहां समाजवादियों को जीत मिली थी. 2017 के चुनाव में समाजवादी पार्टी ने पूर्व एमएलसी रामनगीना यादव के पुत्र विजय प्रताप यादव को उम्मीदवार बनाया है. वहीं बसपा ने अभयनाथ त्रिपाठी को मैदान में उतार कर दलित-ब्राह्मण वोट साथ रखने की जुगत लगाई है. जनमेजय सिंह पर भाजपा फिर से दांव लगाने जा रही है. निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में अभी कोई कददावर चेहरा मैदान में नही है. कुल मिलकर यहां त्रिकोणीय मुकाबले की संभावना है.

बरहज विधानसभा का पुराना औद्योगिक इतिहास रहा है. यहां का लौह उद्योग, काष्ठ उद्योग अब आखिरी सांसें ले रहा है. बाढ़ यहां की मूल समस्या है. अभी यह सीट समाजवादी पार्टी के खाते में है. यहां से विधायक प्रेमप्रकाश सिंह हैं. सपा ने उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया है. उनकी जगह गेनालाल यादव साइकिल की सवारी करते नजर आ रहे हैं. बसपा ने

एनआरएचएम घोटाले के आरोपी रामप्रसाद जायसवाल के पुत्र मुरली मनोहर को हाथी का महावत बनाया है. बरहज सीट से पहली बार 1967 में सोशलिस्ट पार्टी के दिग्गज नेता बाबू उग्रसेन सिंह विधायक बने थे. बाद में 1969 में कांग्रेस के राजा अवधेश प्रताप मल्ल ने जीत दर्ज की. 1974 में कांग्रेस के ही सुरेन्द्र मिश्र विधायक बने.

1977 व 1980 में बाबू मोहन सिंह ने कांग्रेस से सीट छीनकर पुनः सोशलिस्ट खाते में डाल दी. 1985 में कांग्रेस के सुरेन्द्र मिश्र ने इस सीट पर फिर से कब्ज़ा जमा लिया. 1989 में निर्दलीय स्वामीनाथ यादव ने और वर्ष 1985 में भाजपा के दुर्गा मिश्र ने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया. उसके बाद से यह सीट लगातार सपा व बसपा के खाते में जाती रही है.

भाटपाररानी विधानसभा क्षेत्र बिहार से सटा हुआ इलाका है. जातीय लामबंदी के कारण यहां विकास का मुद्दा गौण है. आप इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि यह सीट 40 वर्ष तक दो राजनीतिक व्यक्तियों के कब्जे में रही. वर्ष 1969, 1988, 1989 और 1991 में सोशलिस्ट नेता हरिवंश सहाय यहां से विधायक रहे.

जबकि वर्ष 1985, 1993, 2002, 2007 और 2012 में कामेश्वर उपाध्याय ने यहां से लगातार अपनी जीत दर्ज की. 2013 में उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र आशुतोष उपाध्याय ने यह सीट सपा की झोली में डाल दी. वर्तमान में आशुतोष उपाध्याय सपा उम्मीदवार के रूप में मैदान में हैं, जबकि बसपा ने कुशवाहा बिरादरी के नेता हरिवंश सहाय के शिष्य सभाकुंवर पर दांव लगाया है. भाजपा ने अब तक इस विधान सभा से खाता नहीं खोला है.

रूद्रपुर विधानसभा क्षेत्र सरयू और राप्ती का दियारा क्षेत्र है. विकास के लिहाज से आजादी के बाद भी यह इलाका रेल सम्पर्क मार्ग से नहीं जुड़ पाया है. वर्तमान में इस सीट पर कांग्रेस के अखिलेश प्रताप सिंह का कब्ज़ा है. 1962 से 1985 तक इस सीट पर कांग्रेस का कब्ज़ा रहा. 1989 व वर्ष 1993 में क्रमशः लोकदल व सपा उम्मीदवार के रूप में मुक्तिनाथ यादव ने इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया.

वर्ष 1991 व 1996 में भाजपा के जयप्रकाश निषाद इस सीट से विधायक रहे. वर्ष 2002 में सपा के अनुग्रह नारायण व 2007 में बसपा के सुरेश तिवारी ने जीत दर्ज की. 27 वर्ष बाद अखिलेश सिंह ने कांग्रेस की सीट वापस पाई.

कांग्रेस ने अखिलेश पर फिर से दांव लगाया है. बसपा ने युवा नेता चन्द्रिका निषाद को अपना प्रत्याशी बनाया है. साफ छवि के कारण अखिलेश की दावेदारी इस सीट पर मजबूत है. पथरदेवा विधानसभा सीट सन 2007 के नए परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई. पहले यह पडरौना जनपद के कसया व कुछ देवरिया जनपद में आता था. बाद में गौरीबाजार विधानसभा का अस्तित्व समाप्त कर पथरदेवा विधानसभा का गठन किया गया.

वर्तमान में यह सीट सपा के खाते में है. यहां शकीर अली ने भाजपा के दिग्गज नेता व पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही को मात देकर सीट पर कब्ज़ा किया था. मुस्लिम बहुल यह सीट इन्हीं दिग्गजों के बीच मुकाबले में रहेगी. सलेमपुर विधानसभा ब्राह्मण बहुल सीट होने के बावजूद यहां सिर्फ एक ब्राह्मण निर्णायक भूमिका में रहे. यहां 1980 में दुर्गा प्रसाद मिश्र भाजपा से निर्वाचित हुए थे. वर्ष 1967 व 1969 में कांग्रेस से राजा अवधेश प्रताप मल्ल व शिवबचन ने जीत दर्ज की.

पुनः वर्ष 1985 में राजा अवधेश प्रताप कांग्रेस से विजयी हुए. अन्य समय यह सीट सपा और बसपा खेमे में रही. वर्तमान विधायक मनबोध समाजवादी पार्टी से हैं. यह सीट 2007 में अनुसूचित कोटे के अंतर्गत आरक्षित है. कुल मिलाकर देखा जाए तो इस बार यहां के चुनाव में प्रत्याशियों की साफ छवि, उनके जन सरोकार और उनकी सामाजिक सक्रियता पर लोग ध्यान दे रहे हैं. जातिवाद का फैक्टर तो है, लेकिन इस पर लोगों का इस बार थोड़ा कम ध्यान दिख रहा है.

चुनाव में सत्ताधारी पार्टी को खुश करती हैं चीनी मिलें

देवरिया के रामपुर कारखाना विधानसभा क्षेत्र में किसानों की बदहाली और खास तौर पर गन्ना किसानों के साथ विभिन्न सरकारों द्वारा किए गए आपराधिक सलूक का मुद्दा गरम है. यहां की चीनी मिलों पर किसानों के करोड़ों रुपए बाकी हैं, लेकिन सरकार बकाये का भुगतान कैसे हो इस पर कोई चिंता नहीं करती, उल्टे चीनी मिलों के पूंजीपति मालिकों को खुश करने का जतन करती रहती है. वही पूंजीपति

सत्ताधारी राजनीतिक दलों का चुनाव में खास ध्यान रखते हैं. गन्ना किसानों के मसले पर जूझते रहने वाले किसान नेता व रामपुर कारखाना से जदयू प्रत्याशी शिवाजी राय कहते हैं कि सरकार की शह पर चीनी मिल मालिकों ने अपना सिंडिकेट (गिरोह) बना लिया है. उत्तर प्रदेश में गन्ना किसान पहले बहुत खुशहाल थे.

गन्ने की फसल और चीनी मिलों से प्रदेश के गन्ना बेल्ट में कई अन्य उद्योग धंधे भी फल-फूल रहे थे. चीनी मिलों और किसानों के बीच गन्ना विकास समितियां (केन यूनियन) किसानों के भुगतान से लेकर खाद, ऋण, सिंचाई के साधनों, कीटनाशकों के साथ-साथ सड़क, पुल, पुलिया, स्कूल और औषधालय तक की व्यवस्था करती थीं.

गन्ने की राजनीति कर नेता तो कई बन गए, लेकिन उन्हीं नेताओं ने चीनी मिलों की दलाली करके गन्ना किसानों को बर्बाद कर दिया. गन्ना क्षेत्र से लोगों का भयंकर पलायन हुआ. यह अभी भी जारी है. उन्हें महाराष्ट, पंजाब, दिल्ली, बंगाल या अन्य राज्यों में दिहाड़ी कर पेट पालना पड़ रहा है. साजिशों के तहत उत्तरप्रदेश की तकरीबन सारी सरकारी चीनी मिलें कौड़ियों में बेच डाली गईं. इसमें सारी सरकारें शामिल रही हैं.

भाजपा की सरकार ने हरिशंकर तिवारी की कम्पनी गंगोत्री इंटरप्राइजेज को चार मिलें बेची थीं. गंगोत्री इंटरप्राइजेज ने इन्हें चलाने के बजाए मशीनों को कबाड़ में बेच कर ढांचा सरकार के सुपुर्द कर दिया.

फिर समाजवादी पार्टी की सरकार ने प्रदेश की 23 चीनी मिलें अनिल अम्बानी को बेचने का प्रस्ताव रखा. सपा सरकार ने उन चीनी मिलों को 25-25 करोड़ रुपए देकर चलवाया भी, लेकिन मात्र 15 दिन चल कर वे फिर से बंद हो गईं. फिर बसपा की सरकार आ गई.

मुख्यमंत्री मायावती ने सपा कार्यकाल के उसी प्रस्ताव को उठाया और चीनी मिलों को औने-पौने दाम में बेचना शुरू कर दिया. मायावती ने पौंटी चड्ढा की कम्पनी और आईबीएन कम्पनी के हाथों 14 चीनी मिलें बेच डालीं. देवरिया की भटनी चीनी मिल महज पौने पांच करोड़ में बेच दी गई.

जबकि वह 107 करोड़ की थी. कैग ने इसका पर्दाफाश भी किया. इसके अलावा देवरिया चीनी मिल 13 करोड़ में और बैतालपुर चीनी मिल 11 करोड़ में बेच डाली गई. अब उन्हीं मिलों की जमीनों को प्लॉटिंग कर महंगी कॉलोनी के रूप में विकसित किया जा रहा है.

राय कहते हैं कि चीनी मिलों को चलाने के लिए किसानों ने अपनी जमीनें दी थीं, लेकिन उसके बिकने पर उसकी अधन्नी भी सम्बद्ध किसानों को नहीं मिली. किसानों के खाते में गन्ने का पैसा डालने की व्यवस्था लागू करके तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने केन यूनियनों को पंगु करने की राजनीति की थी. बाद की सपा और बसपा की सरकारों ने उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए किसानों का बंटाधार करके रख दिया.

शिवाजी राय कहते हैं कि भारत विश्व का पहला देश है, जहां किसानों के बजाय पूंजीपतियों को सब्सिडी दी जाती है. यह किसानों के खिलाफ सरकार और पूंजीपतियों की साठगांठ है. चीनी मिलों की हालत इतनी खस्ता है तो केंद्र सरकार को सारी चीनी मिलों का अधिग्रहण कर लेना चाहिए. इससे सरकार का बजटीय बोझ भी कम होगा और किसानों को राहत भी मिल जाएगी.

चीनी मिल मालिकों पर यह भी आरोप है कि किसानों के बकाये के हजारों करोड़ रुपये दूसरे धंधों में निवेश कर दिए गए हैं और उससे भारी मुनाफा कमाया जा रहा है. उद्योगपति धंधा कर रहा है और किसान भुखमरी का शिकार हो रहा है. इसका नतीजा यह निकला है कि उत्तरप्रदेश में गन्ना बुआई के क्षेत्रफल में तेजी से गिरावट आई है. किसान अब गन्ना बोने से परहेज कर रहे हैं. देवरिया समेत पूरे पूर्वांचल में हालात सबसे खराब है.

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