coalदेश के विभिन्न हिस्सों में मौजूद कोयला खदानें हासिल करने के लिए देश की बड़ी-बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों, राजनेताओं एवं नौकरशाहों ने कैसे-कैसे तिकड़म आजमाए, यह सब कुछ जनता के सामने आ चुका है. सुप्रीम कोर्ट तक को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा, तब कहीं जाकर यूपीए शासनकाल में हुए कोयला खदानों के आवंटन निरस्त हुए.

नई सरकार आने के बाद उक्त कोयला खदानों की फिर से नीलामी हुई और उससे क़रीब दो लाख करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ. कंपनियों ने ऊंची बोली लगाकर कोयला खदानें हासिल कीं. ज़ाहिर है, यह एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन कोयला तो आ़िखर कोयला है. कोयले और विवाद का रिश्ता चोली-दामन जैसा बना दिया गया है. नतीजतन, कोयला खदान आवंटन के छह महीने बाद अब उससे जुड़ा एक नया विवाद सामने आ रहा है.

दरअसल, सितंबर 2014 में जब सुप्रीम कोर्ट ने 214 कोयला खदानों का आवंटन रद्द कर दिया, तो उसके बाद आई नरेंद्र मोदी सरकार ने फिर से उनकी नीलामी कराई और ऊंचे दामों पर उक्त कोयला खदानें नीलाम हुईं. नीलामी में कामयाब रहीं कंपनियों को एक अप्रैल से संबंधित खदानों पर कब्जा भी मिल गया, लेकिन छह माह बीत जाने के बावजूद आज तक खनन का काम शुरू नहीं हो सका है, क्योंकि स्टांप ड्यूटी और रजिस्ट्रेशन शुल्क में क़रीब सौ गुना वृद्धि हो गई है.

पहले स्टांप ड्यूटी की गणना खनिज की रॉयल्टी के आधार पर होती थी. जैसे, किसी कंपनी की उत्पादन क्षमता यदि एक मिलियन टन प्रति वर्ष है, तो 100 रुपये प्रति टन रॉयल्टी के हिसाब से उसे स्टांप ड्यूटी देनी पड़ती थी. अब चूंकि कोयले की खरीद बोली लगाकर होती है, इसलिए स्टांप ड्यूटी की गणना बोली की रकम पर की जाती है.

अब बदले हुए केंद्रीय नियम के मुताबिक, यदि कोई कंपनी 3000 रुपये प्रति टन के हिसाब से कोयला खरीदती है और उसकी उत्पादन क्षमता एक मिलियन टन प्रति वर्ष है, तो उसे स्टांप ड्यूटी के रूप में 300 करोड़ और रजिस्ट्रेशन शुल्क के रूप में 225 करोड़ रुपये अदा करने होंगे.

यानी पहले जहां चार से पांच करोड़ रुपये में काम चल जाता था, वहां अब कंपनी को 500 करोड़ रुपये से ज़्यादा रकम खर्च करनी पड़ेगी. छत्तीसगढ़ का मामला देखिए. यहां वेदांता के नियंत्रण वाली कंपनी बाल्को ने चोटिया कोयला खदान 3,025 रुपये प्रति टन के हिसाब से ली है, जिसके लिए अब उसे 536 करोड़ रुपये बतौर स्टांप ड्यूटी अदा करने पड़ेंगे.

बाल्को का कहना है कि इतनी भारी-भरकम स्टांप ड्यूटी देने से उसके लिए खदान चलाना मुश्किल होगा. हिंडालको ने भी क़रीब 3,000 रुपये प्रति टन के हिसाब से बोली लगाई थी. उसके बाद से ही दोनों कंपनियों ने सरकार पर यह शुल्क कम करने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया. नतीजतन, हाल में छत्तीसगढ़ सरकार ने अपना स्टांप ड्यूटी नियम बदल डाला.

वह भारतीय स्टांप (छत्तीसगढ़ संशोधन) अध्यादेश 2015 के ज़रिये मूल अधिनियम की अनुसूची एक (क) में संशोधन करके कोयला खदानों पर लगने वाली स्टांप ड्यूटी में छूट देने जा रही है. यहां सवाल उठता है कि जब उक्त कंपनियों को पहले से पता था कि नीलामी की राशि से स्टांप ड्यूटी तय होगी, जिससे उसमें वृद्धि तय है और ज़ाहिर है कि उन्होंने मुना़फे का दोबारा आकलन करने के बाद ही नीलामी में हिस्सा लिया होगा, तो फिर अब स्टांप ड्यूटी कम करने की मांग क्यों की जा रही है?

छत्तीसगढ़ सरकार का कहना है कि स्टांप ड्यूटी कम करने से संबंधित अध्यादेश लाने से पहले राज्य के महाधिवक्ता से राय-मशविरा किया गया. लेकिन, यहां राय-मशविरा करने से कहीं अधिक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या इस फैसले से राज्य सरकार को करोड़ों रुपये के राजस्व का ऩुकसान नहीं होगा?

एक तऱफ तो केंद्र सरकार ने पारदर्शी तरीके से कोयला खदानों की नीलामी कराकर क़रीब दो लाख करोड़ रुपये एकत्र किए, वहीं दूसरी तऱफ आज छत्तीसगढ़ सरकार स्टांप ड्यूटी और रजिस्ट्रेशन शुल्क में छूट देकर क्यों अपने राजस्व का ऩुकसान कराना चाहती है?

एक अनुमान के मुताबिक, छत्तीसगढ़ सरकार के संशोधित स्टांप ड्यूटी अध्यादेश की वजह से कोयला खदानें हासिल कर चुकीं कंपनियों मसलन, बाल्को को 500 करोड़, मोनेट को 1,300 करोड़ और हिंडाल्को को 2,700 करोड़ रुपये का फायदा पहुंच सकता है.

यानी इतनी बड़ी रकम का ऩुकसान राज्य सरकार को होने जा रहा है. सवाल है कि यह हज़ारों करोड़ रुपये का जो नुक़सान होगा, वह पैसा आ़खिर किसका है? राज्य सरकार का या राज्य की जनता का?

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