social mediaअपनी समस्याओं को लेकर सोशल मीडिया पर कई सारी चीजें चल रही हैं. हमारे पास भी कई लोग कई बातें लिख कर भेजते हैं. इसे भेजने वाले ने अपना नाम तो नहीं बताया है, लेकिन इस कहानी से उस आदमी की तकलीफ समझी जा सकती है. हम आपके सामने ये दो छोटी कहानियां रख रहे हैं. एक तो है कि जीएसटी के लिए क्या-क्या करना पड़ सकता है और दूसरा एक बालक और एक शिक्षक के बीच का संवाद है. हो सकता है ये संवाद आपको कुछ सीख सीख दे सके. सबसे पहले जीएसटी से जुड़ी इस कहानी को पढ़ें.

बस एक बड़ी दुकान ही तो लेनी पड़ेगी.

कुर्सी-टेबल लगा कर कंप्यूटर ही तो रखना पड़ेगा बस.

इंटरनेट का कनेक्शन और नया सॉफ्टवेयर ही तो डलवाना पड़ेगा बस.

एक समझदार सीए और क़ाबिल अकाउंटेंट ही तो

रखना पड़ेगा.

7 तारीख़ तक टीडीएस के रिटर्न के अलावा 10 तारीख़, 15 तारीख़ और 20 तारीख़ को तीन और रिटर्न ही तो भरने पड़ेंगे, आपके क्रेडिटर्स और डेटर्स ने बिल्स अपलोड किए या नहीं, यही तो देखते रहना है बस.

अगर आपके क्रेता या विक्रेता से आपकी डिटेल्स मिलान नहीं होती हैं, तो उनके पीछे-पीछे घूमना ही तो है बस.

अगर आपके छोटे सप्लायर्स या सर्विस प्रोवाइडर्स जीएसटी में रजिस्टर्ड नहीं हैं, तो उनका जीएसटी भी आपको ही भरना है बस.

अगर कोई भूल-चूक रह गई, तो जुर्माना ही तो भरना है, ज़्यादा से ज़्यादा जेल ही तो जाना पड़ सकता है बस.

घर चलाने के लिए इतना नहीं कर सकते आप? धिक्कार है आपके व्यापारी होने पर!

अब ये दूसरी कहानी पढ़िए, जो एक बालक और एक शिक्षक के बीच संवाद पर आधारित है.

चिंटू – मास्टर जी, ये स्टेशन चलाने में भी बुलेट ट्रेन वाली टेक्नोलॉजी चाहिए क्या? जो बेच डाले!!

मास्टर जी – अरे नहीं! स्टेशनों की हालत ख़राब है. सरकारी कर्मचारी काम तो करते नहीं, तो प्राइवेट लोगों को दे दिए हैं. वो इन्हें चमका देंगे.

चिंटू – और फिर स्टेशन में 5 रुपए के फुल्के के 50 रुपए मांगेंगे उसका क्या?

मास्टर जी – सेना के जवान सीमा पे रोज़ पाकिस्तानियों की गोलियां खा रहे हैं, किसान ख़ुद को लटका दे रहे हैं और तुम देश हित में इतना सा भी नही सह सकते. मल्टीप्लेक्स में भी तो दे ही रहे हो 5 के 50!

चिंटू – मास्टर जी, क़ायदे की बात करो. सरकारी स्कूलों और अस्पतालों का निजीकरण होने से जो भुगत रहे हैं, वो नज़र नहीं आ रहा क्या? लूट के अड्डे बन चुके हैं और अब रेलों के बाद स्टेशन भी. 2 करोड़ लोग रोज़ स़फर करते हैं ट्रेनों में. ग़रीब आदमी की मौत है. ज्यूरी सिस्टम और राईट टू रिकॉल रेल मंत्री का क़ानून डाल देते तो 6 महीने में ही रेल मंत्री इन्ही स्टेशनों को इसी स्टा़फ और इसी ख़र्चे में एयरपोर्ट जैसा बना देता.

मास्टर जी – वो तो ठीक है. पर बात हो चुकी है. मोदी साहेब ने सा़फ बोल दिया है कि ज्यूरी सिस्टम-राईट टू रिकॉल का तो नाम भी मत लो. तो फिर ऐसी हालत में तो बेचने ही पड़ेंगे न. और वैसे भी राष्ट्रवादी लोग भी इनको बेचने का समर्थन ही कर रहे हैं!!

चिंटू – अयं !! ये कौन सी क़िस्म के राष्ट्रवादी हुए?

मास्टर जी – राष्ट्रवादी की कोई दो चार क़िस्में थोड़े ही है. अपने संघी. वे मोदी साहेब के समर्थन में हैं. उनके कार्यकर्ता नए पैंट-शर्ट पहन के बेल्ट लगा कर दोनो हाथ ऊपर उठाकर बोल रहे हैं कि — आप बेचो. हम साथ हैं. अब तुम बित्ते से आदमी क्या

राष्ट्रवादियों से ज़्यादा अक़्लमंद हो!

चिंटू – काहे के राष्ट्रवादी? इनको भी इस पंगत में जिमने को मिल रहा है, तो समर्थन कर रहे हैं. मुफ़्त में नही. राष्ट्रवाद इनके ठेंगे पर है.

मास्टर जी – संघ के कार्यकर्ताओं को इसमें क्या मिल रहा है .

चिंटू – अरे जो भी कम्पनी ठेके लेती है, तो आगे कई छोटी कम्पनियों को ठेके (सब कांट्रैक्ट) दे देती है. तो संघ के मझौले नेता ये ठेके ले लेते हैं और अपने स्थानीय कार्यकर्ताओं को काम दिला देते हैं. इस तरह से जब ये तरबूज़ कटता है, तो फांके सब आपस में बांटते हैं. इनके राष्ट्रवाद की जड़ यही है.

मास्टर जी – तो भी सबको इससे पैसा और काम नही मिलता है न? तो संघ के शेष सभी छोटे कार्यकर्ता क्यों इन ़फैसलों का समर्थन करते हैं?

चिंटू – अरे जब स्थानीय स्तर पर इनके भाई साहब लोग इस सब का समर्थन कर रहे हैं, तो छोटे-छोटे कार्यकर्ता क्या खाकर इनका विरोध करेंगे? उन्हें भी आगे बढ़ना है. तो उन्हें अपने भाई साहब लोगों का वरदहस्त चाहिए. ऐसा करके सब अपने-अपने निजी हितों के लिए एक दूसरे से चिपके हुए हैं. देशहित से इनको कोई सरोकार नहीं है. स्टेशन तो दूर की बात है, ये लोग तो शिक्षा, चिकित्सा, रेल, बीमा, रक्षा, दूरसंचार, निर्माण से लेकर मीडिया तक सभी क्षेत्र विदेशियों को बेचने का समर्थन कर रहे हैं. कृषि में भी इनको विदेशी निवेश चाहिए और जब इनसे पूछा जाता है कि ये विदेशी कंपनियां जो मुना़फा कमाएंगी उसके बदले में हम डॉलर कहां से देंगे, तो ये लोग भारत माता की जय, गाय हमारी माता है, मंदिर वहीं बनाएंगे जैसे जुमले सुनाने लगते हैं.

मास्टर जी – मतलब! भारत माता की जय नही है क्या?

चिंटू – हां भई जय है तो ! एक विदेशी कम्पनी ने भारत में कारोबार करके 700 करोड़ रुपए कमाए. अब वो हमें ये रुपए पकड़ा कर कहेगी कि इसके बदले में 10 करोड़ डॉलर दो, तो हम उन्हें डॉलर देने की जगह कहेंगे कि भारत माता की जय है, इसलिए डॉलर-टॉलर कुछ नही मिलेगा!! यूं?

मास्टर जी – हां तो अब चाह क्या रहा तू?

चिंटू – क़ानून बनाओ कि जो भी विदेशी कम्पनी भारत में धंधा करेगी, उसे मुना़फे के रुपयों के एवज़ में डॉलर नही मिलेंगे. जितना वे एक्सपोर्ट करेंगे उतना ही डॉलर मिलेगा. और रेल, रक्षा, दूरसंचार, कृषि, बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में एफडीआइ रद्द हो. इससे भारत माता की जय होगी. नारे से नहीं होगी .

अंग्रेजी कानून प्रत्यक्ष आर्थिक, सामाजिक, नैतिक, न्यायिक गुलामी है, जिसे संविधान के रूप में भारतीयों पर थोपा गया है.

…संविधान हटाओ , भारत बचाओ

अब सवाल सिर्फ इतना है कि क्या सरकार के कान में उनकी भी आवाज पहुंच पाती है, जो छद्म राष्ट्रवाद की जुबान नहीं बोलते. इन सवालों को लोगों की नजर में लाना चाहिए.

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