santoshbhartiya-sirचाहे कोई भी विषय हो, देश का एक छोटा लेकिन ख़तरनाक तबक़ा फेसबुक का सहारा लेकर नफ़रत फैलाने का काम त़ेजी से कर रहा है. हर चीज़ छद्म राष्ट्रवाद से जोड़ी जा रही है और देश के लोगों में हिंदू-मुसलमान के बीच बंटवारा करने, नफ़रत फैलाने का सशक्त प्रयास किया जा रहा है. जैसे यह छोटा ग्रुप अंधराष्ट्रवाद के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश कर रहा है, वैसे ही मुस्लिम समुदाय का एक छोटा तबक़ा ठीक वैसी ही हरकतें कर रहा है. न हिंदू और न मुस्लिम समाज इन घटनाओं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहा है और न चिंतित हो रहा है, पर देश एक ख़तरनाक मुहानेे की तरफ त़ेजी से बढ़ता चला जा रहा है.
देश का मतलब अंधराष्ट्रवाद हो गया है, चाहे वो कश्मीर के बहाने हो, चाहे वंदे मातरम या फिर लव जिहाद के बहाने. अंधराष्ट्रवाद का मतलब ही देश है, हमें ये समझाने की कोशिश की जा रही है. ये लोग किसानों की आत्महत्या, बेरा़ेजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, शिक्षा और स्वास्थ्य के सवालों को देश का सवाल नहीं मानते. इन सवालों पर राजनीतिक दल भी बात नहीं कर रहे हैं. इससे लगता है कि वो पीढ़ी जिसे हम देश की रहनुमाई करने वाली पीढ़ी मानते थे, पूर्णतया समाप्त हो गई है. हम बात चाहे जवाहरलाल नेहरू की करें, इंदिरा गंधी की, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, ज्योति बसु, अटल बिहारी वाजपेयी या फिर लालकृष्ण आडवाणी की. अब इनकी परंपराएं भी इनके दलों में नहीं बची हैं.
जो तबक़ा हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अंधराष्ट्रवाद की वकालत कर रहा है, उसके लिए किसान की आत्महत्या या किसान की समस्या कोई अस्तित्व नहीं रखती. सरकार के बीच के लोग किसानों की आत्महत्या का मजाक़ उड़ा रहे हैं. देश के कृषि मंत्री किसानों की आत्महत्या को अतिसाधारण शब्दों में लेते हैं और वहीं मध्य प्रदेश के गृह मंत्री भूत-प्रेतों की वजह से किसान आत्महत्या कर रहे हैं, इसे कहते ज़रा भी नहीं शर्माते हैं. संसद के दोनों सदन किसानों की आत्महत्या पर एक दिन भी ख़ामोश नहीं होते. संसद के दोनों सदन एक दिन भी खेती के समाप्त होने की प्रक्रिया पर बात नहीं करते. किसान, बेरोज़गारी, महंगाई और भ्रष्टाचार की समस्या जैसे सवाल अब संसद और सांसदों को परेशान नहीं करते.
संसद में सांसद देश के राजनीतिक दलों से आते हैं, लेकिन राजनीतिक दल पूरी तरह से असंवेदनहीन हो गए हैं. अब उनके बीच देश की समस्याओं को लेकर बातचीत नहीं होती. मुझे याद नहीं है कि देश के सवालों पर किन्हीं दो या तीन या चार या पांच राजनीतिक दलों के बीच पिछले वर्षों में कोई चर्चा हुई हो. उस स्थिति को देश का नाम लेने वाले राजनेता कैसे अनदेखा कर रहे हैं. उन्हें ये अंदाज़ा नहीं है कि दुनिया के अन्य देशों में वहां की राजनीति के विरुद्ध जिस तरह नकारात्मक ग़ुस्सा फूटता है, वैसा ग़ुस्सा भारत में भी फूट सकता है. उस समय क़ानून धराशायी हो जाता है और ग़ुस्सा सिर्फ उनके प्रति फूटता है जो जाने या अनजाने उस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार होते हैं.
इसलिए देश में एक नई तरह की राजनीति पैदा हुई है, जिसके सामने कोई विचारधारा नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है. लेकिन वो समस्याओं के लिए कुछ व्यक्तियों या कुछ दलों को ज़िम्मेदार बनाती है और उसी को अपनी विचारधारा के रूप में प्रकट करती है. इससे बड़ा विचारधारा का कोई मखौल नहीं हो सकता. जब हम विचारधारा की बात करते हैं, तो हम उन नियमों, उन सिद्धांतों की बात करते हैं, जिनके आधार पर कोई दल शासन करने का अधिकार जनता से लेता है. लेकिन अगर महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, समानता, किसान को उपज का सही लाभ, हर व्यक्ति को जीने का, पढ़ाई का और स्वास्थ्य का अधिकार मिले-जब ये सिद्धांत सामने नहीं होते, तो फिर वैसे नकारात्मक फैसले सामने होते हैं, जिनका विरोध करने के नाम पर लोग सत्ता हासिल करने की कोशिश करते हैं और मुझे लगता है कि ये स्थिति अंतत: अराजकता और अधिनायकवाद में परिवर्तित होती है. इसलिए मुझे लगता है कि देश के राजनेताओं को सोचने और समझने की जरूरत है.
देश के बुनियादी सवाल चाहे वो विद्यार्थियों, किसानों व लोगों की जीवनशैली से जुड़े हों, वेे महत्वपूर्ण हैं बनाम अंधराष्ट्रवाद के. ये अलग बात है कि बुनियादी सवालों से ध्यान हटाने का सबसे आसान रास्ता अंधराष्ट्रवाद है, जिसके लिए अब कुछ टेलीविज़न चैनल खुल्लम-खुल्ला हिस्सेदार बन गए हैं और सोशल मीडिया पर अंधराष्ट्रवाद की इन दिनों बाढ़ आई हुई है. मुझे लगता है कि हमारे देश में लोकतंत्र के ख़िलाफ़ अगर कोई सबसे सशक्तसाज़िश हो रही है, वो सोशल मीडिया के जरिए हो रही है. इस पर वे लोग ख़ामोश हैं जो लोकतंत्र को दुनिया की सबसे सशक्त राजनीतिक प्रणाली मानते हैं, जिनका विश्‍वास है कि लोकतंत्र से ही विकास हो सकता है, पर ये लोग हार रहे हैं और वे लोग जीत रहे हैं जो मानते हैं कि लोकतंत्र के ज़रिए विकास नहीं हो सकता. इसमें वे भी हैं जो खुलेआम हथियार चलाते हैं और वेे भी हैं जो खुलेआम हथियार की तरह लोगों के ज़ेहन को प्रदूषित कर रहे हैं.
इसमें सबसे ज़्यादा दोषी मीडिया है, जो इस स्थिति का हिस्सेदार बन रहा है. जिस तरह राजनीतिक दलों में आपस में बातचीत नहीं होती, वैसे ही मीडिया में भी आपस में बातचीत नहीं होती है. राजनीतिक दलों से ज़्यादा ख़तरनाक मीडिया का बंटवारा, मीडिया की चुप्पी और मीडिया की समझ है. क्या हम लोकतंत्र को समाप्त करने में हिस्सेदार बनना ज़्यादा अच्छा समझते हैं.

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