विधानसभा चुनाव के पहले उत्तर प्रदेश में राज्यसभा की सीट मोलभाव और शर्तों पर बिकने वाला माल हो गई है. पार्टियां योग्यता पर नहीं, उससे होने वाले राजनीतिक फायदे का गुणाभाग कर सीट दे रही हैं तो उम्मीदवार भी कितना तोल कर उस पार्टी को फायदा देगा, इसकी बोली लगा रहा है. इसमें समाजवादी पार्टी कुछ अधिक ही बेचैनी में दिख रही है. सपा की बेचैनी यह दिखा रही है कि राज्यसभा की सीट देकर वह विधानसभा की सारी सीटें अपने कब्जे में करने का जैसे स्वप्न देख रही हो. सपा की इन कोशिशों में उसका वैचारिक विरोधाभास जनता के समक्ष बुरी तरह उजागर हो रहा है.
एक तरफ समाजवादी पार्टी कांग्रेस को सहयोग कर उसके प्रत्याशी कपिल सिब्बल को राज्यसभा तक पहुंचाने की जोड़तोड़ में लगी है तो दूसरी तरफ वह कांग्रेस के बेनी वर्मा को तोड़ कर अपनी पार्टी में शरीक करा लेती है और उन्हें भी राज्यसभा का रास्ता दिखा देती है. इससे पहले सपा ने कांग्रेस के प्रमोद तिवारी और पीएल पुनिया को भी राज्यसभा भेजने में मदद की थी. लेकिन तब भी सपा को इसका कोई फायदा नहीं मिला था.अमर सिंह का भी उदाहरण सामने है, जिन्हें राज्यसभा पहुंचाने के लिए मुलायम ने रामगोपाल और आजम जैसे नेताओं की नापसंदगी का कोई ध्यान नहीं रखा. अब ताजा मामला राष्ट्रीय लोक दल के नेता चौधरी अजित सिंह के साथ हुए मोलभाव का सामने आया. राजनीतिक अवसरवादिता के शिखर-पुरुष चौधरी अजित सिंह ने इसके पहले जदयू अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमारका दरवाजा खटखटाया था, लेकिन जदयू ने स्पष्ट कर दिया कि रालोद का पहले जदयू में विलय हो तो फिर आगे की बात हो. रालोद के जदयू में विलय की बातें काफी परवान चढ़ीं, लेकिन इसी क्रम में चौधरी की नई-नई शर्तें भी परवान चढ़ती रहीं, और आखिरकार धराशायी हो गईं.
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इसके बाद चौधरी ने बसपा नेता मायावती के आगे मत्था टेका, लेकिन क्रय-विक्रय में चौधरी का मायावती के सामने क्या चलता, वहां भी वे खेत रहे. चौधरी को कांग्रेस और भाजपा की तरफ से भी ना मिल चुकी थी. तभी उन्हें सपा की विधानसभाई बेचैनी का तापमान मिला और वे मुलायम की दहलीज पर आ धंसे. इसमें पर्दे के पीछे अमर सिंह की भी भूमिका रही होगी, लेकिन वे कहीं भी सामने नहीं आए, क्योंकि उन्हें पहले अपनी राज्यसभा की सीट तो हासिल करनी थी. मुलायम ने अपने राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव की नाराजगी को दरकिनार कर चौधरी अजित सिंह से मुलाकात की और विस्तार से बातचीत की. शिवपाल यादव भी इस पहल में मुलायम का साथ दे रहे थे. हालांकि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इस पहल से असहमत हैं. अखिलेश सोचते हैं कि वे अपने बूते ही फिर से विधानसभा का चुनाव जितवा ले जाएंगे. बहरहाल, जदयू वाले फार्मूले की तरह मुलायम भी चाहते थे कि रालोद का सपा में विलय हो जाए, लेकिन विलय में चौधरी की शर्तें भारी थीं. लिहाजा, खबर लिखे जाने तक सपा नेतृत्व की तरफ से कोई स्पष्ट फैसला नहीं आया था.
रालोद और चौधरी अजित सिंह के भविष्य को लेकर समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने अभी कोई फैसला भले ही नहीं लिया, लेकिन इस प्रकरण ने सपा के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव और राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के मतभेद को सामने जरूर ला दिया. इस मतभेद को बढ़ाते हुए प्रदेश के लोक निर्माण मंत्री शिवपाल यादव यह कहते रहे कि रालोद के साथ सपा का गठबंधन साम्प्रदायिक शक्तियों से लड़ाई में फायदेमंद साबित होगा. शिवपाल ने कहा कि वह चाहते हैं कि साम्प्रदायिक शक्तियों कोे हराने के लिए सभी लोहियावादी, चौधरी चरण सिंह के सिद्धान्तों पर चलने वाले और गांधीवादी विचारधारा के लोग एक मंच पर हो जाएं. शिवपाल ने कहा कि रालोद के साथ गठबंधन को लेकर बातचीत अभी शुरू हुई है, अच्छी बात हुई है, चौधरी अजित सिंह से उनके पहले से ही बहुत अच्छे रिश्ते हैं. बातचीत आगे बढ़ी तो बेहतर परिणाम सामने आएंगे.
शिवपाल के ऐसे बयान के समानान्तर रामगोपाल ने कहा कि रालोद के मुखिया अजित सिंह अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं. उनसे किसी भी तरह का समझौता करना किसी भी राजनीतिक दल के लिए समझदारी नहीं होगी. रामगोपाल बोले कि कभी अजित सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति के लिए अपरिहार्य हुआ करते थे. उनसे गठबंधन करने के लिए बसपा को छोड़कर सभी दल तैयार रहते थे. यह अजित सिंह पर निर्भर करता था कि वह अपने राजनीतिक नफा-नुकसान को ध्यान में रखकर किसके साथ गठबंधन करें. वह कांग्रेस, भाजपा और सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ चुके हैं. लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अब स्थितियां बदल चुकी हैं. यही वजह है कि अजित कोे राज्यसभा में पहुंचने के लिए लगभग सभी राजनीतिक दलों के दरवाजे खटखटाने पड़े और हर जगह से उन्हें अपनी पार्टी को विलय कर देने की शर्त सुननी पड़ी.
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साफ है कि चौधरी अजित सिंह को लेकर समाजवादी पार्टी में कितने गहरे विरोधाभास हैं. रामगोपाल ने सही ही कहा कि चौधरी सब तरफ आजमा कर सपा के दरवाजे पहुंचे. राजनीतिक गतिविधियों के जानकार बताते हैं कि इसके पहले चौधरी अजित सिंह ने बहुजन समाज पार्टी से भी हाथ मिलाने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे. मायावती इसके लिए कतई तैयार नहीं हुईं. जाटव वोट बैंक को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा का मुख्य आधार माना जाता है. जाटवों और जाटों के बीच शाश्वत झगड़ा रहता है. रालोद से तालमेल पर जाटव वोट बैंक नाराज हो सकता था, क्योंकि जाट और जाटव कभी साथ में नहीं आ सकतेे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट वोट के खिलाफ गैर जाट वोटों के ध्रुवीकरण का फायदा भी बसपा को मिलता है. लिहाजा, ऐसा गठजोड़ बसपा के लिए प्रतिगामी हो सकता है.
इस प्रकरण में चौधरी अजित सिंह की तो फजीहत हो गई. यहां तक कि उनकी मदद के लिए कांग्रेस भी तैयार नहीं हुई जबकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हालत खुद ही खस्ता है, फिर भी कांग्रेस ने चौधरी में कोई रुचि नहीं दिखाई. अजित सिंह राज्यसभा जाने के इरादे से सोनिया गांधी से मिले भी थे और राज्यसभा भेजने के बदले 2017 में कांग्रेस से गठबंधन करने की बात भी कही थी, लेकिन कांग्रेस ने उनका प्रस्ताव खारिज कर दिया.
यहां तक कि भारतीय जनता पार्टी ने भी चौधरी की शर्तों के बरक्स विलय कर लेने की सलाह रखी थी. भाजपा के साथ मिल कर वे पहले कई चुनाव लड़ चुके हैं और इसका उन्हें फायदा भी मिला है. 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के तालमेल से रालोद के पांच सांसद जीते थे. 2002 के विधानसभा चुनाव में भी रालोद के 14 विधायक जीते थे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट वोटरों के साथ भाजपा का सामंजस्य हो जाता था, लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जाट वोटर पूर्ण रूप से भाजपा के साथ हो गए. 2014 के लोकसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा की शानदार कामयाबी के पीछे जाट-शक्ति ही है. यही वजह है कि चौधरी अजित सिंह की प्रासंगिकता उतनी नहीं रही, हालांकि भाजपा ने उनके समक्ष विलय की शर्त रखी थी, लेकिन चौधरी को यह मंजूर नहीं हुआ. 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने अजित सिंह से तालमेल किए बगैर पश्चिमी उत्तर प्रदेश से काफी सीटें जीती थीं. सपा को मुसलमान और गैर जाट वोटों के ध्रुवीकरण का फायदा मिला था. लेकिन मुजफ्फरनगर कांड ने इस ध्रुवीकरण को बुरी तरह झकझोर दिया. यही वजह है कि मुलायम सिंह यादव एक बार फिर से पश्चिम पर अपनी पकड़ बनाना चाहते हैं और इसके लिए उन्हें चौधरी अजित सिंह को अपने साथ मिलाने से परहेज नहीं.प
मुलायम चाहते हैं पश्चिम में जाट और मुसलमान फिर एक हों
राष्ट्रीय लोक दल का समाजवादी पार्टी में विलय के बहाने मुलायम की मंशा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक बार फिर जाटों और मुसलमानों के बीच एकता और व्यापक समीकरण स्थापित करने की है. मुजफ्फरनगर कांड के बाद पश्चिम के दो बड़े वोट बैंक अलग-अलग हो गए, जिसका खामियाजा सपा को भुगतना पड़ रहा है, वही नतीजा 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी नहीं भुगतना चाहती. लिहाजा, विलय या तालमेल की इन कोशिशों के गहरे निहितार्थ हैं. राजनीतिक समीक्षकों का भी मानना है कि अगर सपा के मुस्लिम और रालोद के जाट वोटरों का गठजोड़ फिर से बन जाता है तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 145 विधानसभा सीटों पर भाजपा और बसपा के लिए तगड़ी चुनौती दे सकता है. पिछले दिनों सपा के वरिष्ठ नेता शिवपाल सिंह यादव और रालोद नेता चौधरी अजित सिंह की दिल्ली में जो मुलाकात हुई उसमें इन मसलों पर विस्तार से चर्चा हुई. इसके बाद ही चौधरी सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव से मिलने दिल्ली में महारानीबाग स्थित उनके आवास पर गए. इससे पहले भी शिवपाल अजित सिंह से मिल चुके थे. सपा के रणनीतिकारों का कहना है कि रालोद सहित कई दूसरी छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन कर विधानसभा चुनाव में सरकार विरोधी माहौल से होने वाले नुकसान की भरपाई की जा सकती है.सपा नेतृत्व यह भी देख रहा है कि पिछले दो चुनावों में सपा और बसपा के बीच करीब चार फीसदी वोट के अंतर पर हार-जीत हुई है, जबकि रालोद करीब तीन फीसदी वोट हासिल करने में कामयाब रहा है.पिछले दो विधानसभा चुनाव में जो भी पार्टी तीस प्रतिशत वोट हासिल करने में कामयाब रही, वह बहुमत का आंकड़ा हासिल कर लेती है. वर्ष 2007 में बसपा कोे 30.43 प्रतिशत वोट के साथ 206 सीटें मिली थीं. जबकि 2012 में सपा को 29.3 प्रतिशत वोट के साथ 224 सीटें मिलीं. इस चुनाव में रालोद ने 46 सीट पर चुनाव लड़ा और उसे 2.5 फीसदी मतों के साथ नौ सीटें मिली थीं. प
कांग्रेस से खुद दफा हो जाएंगे खफा प्रशांत!
कांग्रेस की नैया पार लगाने के लिए बड़ी उम्मीदों से लाए गए प्रशांत किशोर के कांग्रेस छोड़ कर जाने की चर्चाएं यूपी कांग्रेस से लेकर दूसरी पार्टियों में भी सरगर्म हैं. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व कोे प्रशांत किशोर के सुझाव रास नहीं आ रहे हैं. ऐसे में संभव है कि कांग्रेस उनसे और वे कांग्रेस से जल्दी ही मुक्ति पा लें. इस तरह कांग्रेस मंझधार में ही छूट जाएगी. राजनीतिक पंडितों का कहना है कि वैसे ही कांग्रेस को यूपी में क्या मिलना है.
प्रशांत किशोर के सुझावों और शिकायतों को सुधारात्मक तौर पर लेने के बजाय कांग्रेस के नेता उसे निजी तौर पर ले रहे हैं. वे प्रशांत किशोर के खिलाफ बगावती माहौल तैयार कर रहे हैं. उनकी सभाओं में सार्वजनिक विरोध और यहां तक कि मारपीट की घटनाएं भी होने लगी हैं. कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने ही प्रशांत किशोर की सेवाएं ली थीं. प्रशांत किशोर को बिहार चुनाव में नीतीश का साथ देने और उनकी सफलता में भूमिका अदा करने का पुरस्कार मिला था. लेकिन प्रशांत को बिहार से कहीं अधिक मुश्किलों का सामना उत्तर प्रदेश में करना पड़ रहा है. उत्तर प्रदेश के कांग्रेसियों को प्रशांत की दखलंदाजी पसंद नहीं आ रही है. पार्टी नेताओं की शिकायत पर आलाकमान ने यह कह कर प्रशांत को फटकार भी लगाई है कि उन्हें पार्टी के लिए चुनाव प्रचार की रणनीति बनाने का जिम्मा दिया गया है न कि संगठन का पदाधिकारी बनाने और टिकट बांटने को लेकर फैसला करने का. इस फटकार और फजीहत के बाद प्रशांत का जाना करीब-करीब तय हो गया है. प्रशांत ने उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर जो योजना तैयार की थी, उसे भी कांग्रेस नेताओं की आपत्तियों के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने खारिज कर दिया है.
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प्रशांत किशोर ने पार्टी को सुझाव दिया था कि यूपी में पार्टी का चेहरा किसी ब्राह्मण का हो. प्रशांत ने राजपूत और मुस्लिम वोट को भी लक्ष्य करने की योजना कांग्रेस के समक्ष रखी थी. प्रशांत का मत था कि कांग्रेस दलित वोटों के लिए अन्य समीकरण खराब न करेे, क्योंकि दलितों का एक खास तबका मायावती के साथ ही रहेगा. प्रशांत ने यह भी सुझाव दिया था कि राहुल के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में प्रियंका की भी खास भूमिका होनी चाहिए. प्रशांत ने उम्मीदवारों के लिए 250 कार्यकर्ताओं को अपने साथ लाने की शर्त के साथ ही टिकट देने का फॅार्मूला भी रखा था, लेकिन कांग्रेस के नेता इसे पचा नहीं पाए. इन बदली हुई स्थितियों में प्रशांत को यह लगने लगा है कि उन्हें अगर बिहार चुनाव की तरह बहुत हद तक आजादी से काम नहीं करने दिया गया तो अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं होंगे, ऐसे में उनका निकल लेना ही बेहतर है. प्रियंका का नाम लेने पर कांग्रेस की इलाहाबाद इकाई के दो नेताओं हसीब और शिरीष को महासचिव पद से हटा दिए जाने का तमाशा प्रशांत देख चुके हैं, लिहाजा ऐसे तमाशे को वो अपने लिए पूर्व संकेत भी मान कर चल रहे हैं. इलाहाबाद कांग्रेस के ये दोनों नेता प्रियंका गांधी कोे राजनीति में सक्रिय करने और कांग्रेस पार्टी में अहम ज़िम्मेदारी दिए जाने की मांग कर रहे थे.