नोटबंदी के बाद उठाए गए उक्त कदमों को कई समीक्षकों ने राजनीतिक चंदे से भ्रष्टाचार दूर करने की दिशा में एक सकारात्मक पहल के तौर पर देखा, हालांकि बहुतों को इसमें कुछ नया नज़र नहीं आया. दरअसल, इन सुधारों ने फिर बैताल डाल पर की कहावत को चरितार्थ कर दिया. सबसे पहले तो फंडिंग की अधिकतम सीलिंग समाप्त कर दी गई और फिर फंडिंग एजेंसीज को यह छूट दे दी गई कि वे राजनीतिक दल का नाम घोषित न करें. हालांकि, विपक्ष ने अपने विपक्षी होने की भूमिका अदा करते हुए राज्यसभा में वित्तीय विधयक पर अपने संशोेधन पेश किए, लेकिन लोकसभा में सरकार ने उन्हें ख़ारिज कर दिया.

leadersइस वर्ष जनवरी में जारी एडीआर रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 11 वर्षों के दौरान देश के दो बड़े राजनीतिक दलों, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की 83 और 63 प्रतिशत फंडिंग अज्ञात स्रोतों से हुई. वर्ष 2014 में दिल्ली हाईकोर्ट ने आम चुनाव से ठीक पहले दिए गए अपने ऐतिहासिक फैसले में कांग्रेस और भाजपा को एफसीआरए (विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम) का उल्लंघन कर विदेश से फंड हासिल करने का दोषी करार दिया था. यहां इन दो पार्टियों का ज़िक्र इसलिए नहीं किया गया है कि केवल यही दो पार्टियां हैं, जो अज्ञात स्रोतों से फंड हासिल करती हैं, बल्कि अज्ञात स्रोतों से फंडिंग हासिल करने वाली पार्टियों में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर की लगभग सभी पार्टियां शामिल हैं. अब सवाल यह उठता है कि जब देश की दो प्रमुख पार्टियों की ये स्थिति है, तो क्या चुनावी फंडिंग में प्रदर्शिता लाने की जो कवायद वर्तमान में चल रही है, उसमें किसी क्रांतिकारी सुधार की आशा की जा सकती है?

चुनावी फंडिंग की पारदर्शिता और चुनाव की सरकारी फंडिंग की बहस बहुत पुरानी है. लेकिन हालिया दिनों में इस बहस में उस समय तेज़ी आई, जब इस वर्ष के बजट में चुनावी फंडिंग में पारदर्शिता लाने के लिए वित्त मंत्री ने अज्ञात स्रोतों से राजनीतिक दलों को मिले चंदे की सीमा बीस हजार रुपए से घटा कर दो हजार रुपए कर दी. बजट में, चंदा देने के लिए चुनावी बॉन्ड (इलेक्टोरल बॉन्ड) जारी करने का प्रावधान किया गया है. इसके तहत, फंडिंग करने वाला व्यक्ति या संस्था बांड खरीदेगा और पैसा उस पार्टी के खाते में चला जाएगा, जिसे वो चंदा देना चाहेगा. साथ ही कंपनी एक्ट 2013 में संशोधन कर कॉर्पोरेट फंडिंग पर लगी सीलिंग समाप्त कर दी गई है. गौरतलब है कि पूर्व में कम्पनियां अपने तीन वर्ष के लाभ का केवल 7.5 प्रतिशत ही राजनीतिक चंदा के रूप में दे सकती थीं.

कंपनियों को उनके लाभ-हानि के खाते में चंदा लेने वाले राजनीतिक दल का नाम घोषित करने की अनिवार्यता भी समाप्त कर दी गई. दरअसल, देश में जब भी भ्रष्टाचार, काला धन और आम लेनदेन के मामलों में पारदर्शिता की बात आती है, तो उसमें लाजिमी तौर पर चुनावी चंदे की बात भी शामिल हो जाती है. लेकिन राजनीतिक दलों के चंदे में पारदर्शिता लाने के क्रम में सरकार जो प्रावधान ले कर आई है, क्या वो चुनावी फंडिंग की पारदर्शिता के लिए काफी हैं? इस संबंध में आलोचकों के जो भी संदेह थे, क्या उनको दूर कर दिया गया है? क्या अब मतदाताओं को यह ज्ञात हो सकेगा कि किस पार्टी की फंडिंग किस संस्था या व्यक्ति ने की है?

नोटबंदी के बाद उठाए गए उक्त कदमों को कई समीक्षकों ने राजनीतिक चंदे से भ्रष्टाचार दूर करने की दिशा में एक सकारात्मक पहल के तौर पर देखा, हालांकि बहुतों को इसमें कुछ नया नज़र नहीं आया. दरअसल, इन सुधारों ने फिर बैताल डाल पर की कहावत को चरितार्थ कर दिया. सबसे पहले तो फंडिंग की अधिकतम सीलिंग समाप्त कर दी गई और फिर फंडिंग एजेंसीज को यह छूट दे दी गई कि वे राजनीतिक दल का नाम घोषित न करें. हालांकि, विपक्ष ने अपने विपक्षी होने की भूमिका अदा करते हुए राज्यसभा में वित्तीय विधयक पर अपने संशोेधन पेश किए, लेकिन लोकसभा में सरकार ने उन्हें ख़ारिज कर दिया.

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी ने राज्यसभा में इस विधेयक पर बहस के दौरान प्रस्तावित संशोेधन में कहा था कि कॉर्पोरेट्‌स को राजनीतिक दल के नाम की घोषणा किए बिना असीमित चंदा की अनुमति देने से राजनीतिक फंडिंग और अधिक अपारदर्शी होगी. दूसरे विपक्षी दल भी उनकी इस राय से सहमत दिखे. लेकिन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस तर्क को ख़ारिज कर दिया. उनका कहना था कि फंडिंग पर वापस सीलिंग लगाने का एकमात्र अर्थ कानूनी चंदे को सीमित करना होगा. जेटली का यह भी कहना था कि राजनीतिक दल के नाम की घोषणा करने से फंडिंग करने वाली कंपनियां दूसरे दलों के दबाव में आ जाएंगी, जिससे उनका नुकसान हो सकता है.

एक न्यूज़ प्रोग्राम में भाग लेते हुए जेटली ने यह स्वीकार किया कि भारतीय लोकतंत्र के 70 साल पूरे हो जाने के बावजूद राजनीतिक फंडिंग अभी तक पारदर्शी नहीं हुई है. आज बहुत सारे ऐसे ईमानदार उद्योगपति भी हैं, जो कहते हैं कि उन्हें पैसा निकालना पड़ता है और वे निकालना नहीं चाहते. कंपनी से पैसा निकालना पैसे की चोरी है. उससे कंपनी की ताक़त कम होती है.

उनका कहना है कि वे इसलिए पैसा नहीं निकालना चाहते हैं, क्योंकि उन्होंने एक पार्टी को चंदा दिया और यदि दूसरी पार्टी सत्ता में आई, तो वो कहेगी उसे क्यों नहीं दिया. जेटली ने यह भी माना कि आज भी कैश में पैसा आता है और 20 हज़ार रुपए के फर्जी नामों में एडजस्ट हो जाता है. ज़ाहिर है, जेटली के इस स्पष्टीकरण में तथ्य है. राजनीतिक दलों की आपसी रस्साकशी में कॉर्पोरेट डोनर उलझ सकते हैं. लेकिन, राजनीतिक फंडिंग में व्याप्त अनियमितता को समाप्त करने का वादा प्रधानमंत्री लगातार करते रहे हैं, उन वादों का क्या होगा?

बेशक, वित मंत्री की बातों और सरकार के पक्ष में वज़न है. लेकिन कॉर्पोरेट फंडिंग से अपने तीन वर्ष के लाभ से केवल 7.5 प्रतिशत ही चंदा दिए जाने की सीलिंग समाप्त करने और अपने लाभ-हानि के खाते से लाभान्वित दल का नाम शामिल करने की शर्त हटाने से चुनावी चंदे में कई और तरह की अनियमितताएं आएंगी. इन प्रावधानों का अर्थ यह होगा कि कोई कंपनी एक असीमित राशि चंदे के रूप में किसी राजनीतिक दल को दे सकती है.

खस्ता वित्तीय हालत वाली कंपनी भी सरकारी रियायत हासिल करने के लिए अपनी हैसियत से अधिक चंदा दे सकती है या राजनीतिक दल उस पर चंदा देने के लिए दबाव डाल सकते हैं और नतीजे में उसकी हालत और खस्ता हो सकती है. फाइनेंस बिल पर बहस के दौरान कुछ राजनीतिक दलों का यह भी मानना था कि इस तरह की फंडिंग की वजह से बड़ी कंपनियों की सहायक कंपनियां खुल जाएंगी, जिसकी वजह से कंपनियों से सियासी छीनाझपटी का बाज़ार गर्म हो जाएगा और भ्रष्टाचार के नए रास्ते खुल जाएंगे.

बहरहाल, दाता कंपनी को यह बताना होगा कि उसने कितना चंदा दिया, लेकिन किसे चंदा दिया है, बताना ज़रूरी नहीं होगा. इसका एक अर्थ यह भी होगा कि सत्ताधारी दल या मुख्य विपक्षी दल को बहुत अधिक फायदा होगा और क्षेत्रीय और छोटे दलों को इसका नुकसान होगा. मुख्य दलों द्वारा चुनाव में धन बल का असीमित इस्तेमाल जारी रहेगा. इसमें कोई शक नहीं कि 7.5 प्रतिशत की शर्त दानकर्ता कंपनी की चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने की क्षमता को कम करती थी. लेकिन इस शर्त को हटा दिए जाने के बाद अब उनपर चंदा देने के लिए सत्ताधारी दलों और दूसरे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों का दबाव झेलना पड़ सकता है. अब उनके पास कानून का बहाना भी नहीं रहेगा. ऐसे में वित्त मंत्री का यह कहना कि राजनैतिक चंदे के रूप में साफ़ सुथरा पैसा पार्टियों के पास आएगा, दूर की कौड़ी लगता है. चुनावी चंदे में पारदर्शिता लाने के लिए उठाए गए इस क़दम से भ्रष्टाचार और काले धन को सफ़ेद करने के और भी रास्ते खुल सकते हैं.

नोटबंदी के बाद चुनावी चंदे को भी कैशलेस करने का प्रयास किया गया. लेकिन यह कैसा प्रयास है कि जिसके बारे में खुद वित्त मंत्री कहते हैं कि जो अघोषित पैसा राजनितिक दलों के पास आता है, वो फर्जी नामों के साथ एडजस्ट कर लिया जाता है. अब यदि सरकार 20 हज़ार की सीलिंग को कम करके दो हज़ार कर देगी तो क्या राजनीतिक दलों को अघोषित पैसे आने बंद हो जाएंगे? ज़ाहिर है, ऐसा नहीं हो सकता. अब उन्हें कुछ अधिक फर्जी नाम वाले रसीद काटने पड़ेंगे. इस क़दम से न तो राजनीतिक फंडिंग कैशलेस होगी और न ही इससे पारदर्शिता आएगी. इस 2000 रुपये के जरिए कालाधन, जो मौजूदा सरकार का एक पसंदीदा मुद्दा है, भी बहुत आसानी से सफ़ेद होकर राजनीतिक दलों के खाते में चला जाएगा.

यदि सरकार ने चुनाव आयोग द्वारा चुनाव सुधार के लिए जारी प्रस्तावों को आंशिक रूप से ही मान लिया होता, तो ये  पारदर्शिता की दिशा में एक बड़ा क़दम होता. चुनाव आयोग ने कानून मंत्रालय को एक पत्र लिख कर आयकर अधिनियम की धारा 13ए और जनप्रतिनिधि अधिनियम की धारा 29बी में संशोधन करने की मांग की थी. चुनाव आयोग का प्रस्ताव था कि कैश में चंदे की अधिकतम सीमा 20 करोड़ या कुल चंदे के 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए. ज़ाहिर है, चुनाव आयोग का यह प्रस्ताव सरकार के कैशलेस अभियान का पूरक है, लेकिन जिस तरह कॉर्पोरेट चंदे से 7.5 प्रतिशत की शर्त हटा ली गई, उससे नहीं लगता कि सरकार चुनाव आयोग के इस प्रस्ताव का संज्ञान लेगी और इस दिशा में कोई ठोस कदम उठाएगी.

यहां सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि यदि वाकई सरकार राजनीतिक फंडिंग को पारदर्शी बनाना चाहती है, तो उसे लीपापोती की जगह वास्तविक पारदर्शिता लानी पड़ेगी. उसे ऐसा प्रावधान करना पड़ेगा कि किस कंपनी ने किस पार्टी को चंदा दिया, उसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए. पिछले दिनों सरकार ने विदेशी फंडिंग, कालाधन और एफसीआरए के उलंघन का आरोप लगा कर देश के हजारों एनजीओ पर कार्रवाई की थी.

लेकिन पॉलिटिकल फंडिंग के मामले में ऐसे कई कमज़ोर पहलू छोड़ दिए गए हैं, जिसके द्वारा विदेशी फंड आसानी से हासिल की जा सके. ऊपर ज़िक्र भी किया जा चुका है कि देश की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियों को देश की एक अदालत ने एफसीआरए के उल्लंघन का दोषी पाया था. यदि राजनैतिक चंदे में पारदर्शिता नहीं होगी, तो कोई भी दल आसानी से विदेशी कंपनियों से चंदा लेकर उसे 2000 रुपए के प्रावधान के साथ आसानी से छुपा सकता है. निजी कंपनियों के लिए सरकार बहुत फ़िक्रमंद नज़र आ रही है, लेकिन उसकी सबसे पहली ज़िम्मेदारी और जवाबदेही जनता की है.

यदि इस दलील में सच्चाई है कि एक पार्टी को चंदा देने से दूसरे दल नाराज़ हो जाएंगे और उस कंपनी को नुकसान हो सकता है, तो मौजूदा सूरत में चंदे को बिल्कुल ही समाप्त कर देना चाहिए. एक और महत्वपूर्ण तथ्य है, जिसे लेकर चुनाव आयोग पहले से ही सुधार की बात करता रहा है, वो है पार्टी फंड की स्वतंत्र ऑडिटिंग. चुनाव की स्टेट फंडिंग पर भी बहस होनी चाहिए और इसे सिरे से ख़ारिज नहीं किया जाना चाहिए. कुल मिला कर कहा जाए, तो प्रधानमंत्री के अपने चुनावी भाषणों में राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाने के तमाम दावों के बावजूद, ऐसा लगता है कि चुनावी चंदे में पारदर्शिता लाने के लिए सरकार में इच्छा शक्ति का आभाव है और साफ़ सुथरी राजनीतिक फंडिंग का वादा अन्य चुनावी वादों की तरह एक जुमला भर बन कर रहा गया है.

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