जिस ‘अस्सी’ के राजनीतिक दौर को आप भूल गये हों उस दौर को याद दिलाती एक किताब आयी है – ‘वीपी सिंह, चंद्रशेखर, सोनिया गांधी और मैं’। हमने शीर्षक को जरा सा ट्वीस्ट दे दिया है। दरअसल मैंने किताब का जितना हिस्सा पढ़ा है उसमें ध्वनि कुछ ऐसी ही निकल कर आती है जबकि चंद्रशेखर वीपी सिंह से और वीपी सिंह राजीव गांधी से अपनी प्रतिदंद्विता रखते हैं। जब किताब मिली थी तब उत्सुकता वश मैंने अंतिम चैप्टर पर नजर मारी थी जो सोनिया गांधी पर था। शुरू के चंद्रशेखर वीपी सिंह और सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में जुटे चंद्रशेखर वीपी सिंह की भूमिका ही देखने लायक है। यही राजनीति है। इस किताब के नायक वीपी सिंह हैं या संतोष भारतीय यह तो पूरी किताब पढ़ कर आगे ही लिखा जाएगा लेकिन इतना तो है कि जो भी किस्सा गोई के शौकीन हैं उनके लिए एक दिलचस्प और अत्यंत रोचक किताब है। मैंने आधी पढ़ी है। मैं न तो आशुतोष हूं जो दो सिटिंग में पढ़ ले, न अजीत अंजुम जो तीन सिटिंग में पढ़ ले। और न ही आलोक जोशी जो बीच बीच में से जहां तहां पढ़ता जाए, फिर भी रोचकता में कमी न आये। उम्र और बीमारी मुझे रोकती है। पर इतना तय है कि एक बार पूरी पढ़ लेने के बाद लिखने में और आनंद आएगा।

लेकिन किताब पढ़ते समय दो प्रश्न जरूर उभरते हैं। पहला सीधा और साधारण है कि इतनी उठापटक , आपसी खींचतान और व्यक्तिगत अहंकारों के बीच हमारे राजनीतिज्ञों के पास जनता के लिए समय कब और कितना रहता होगा। दूसरा, कि नेहरू दौर से राजीव गांधी या वीपी सिंह के दौर के बाद आज के दौर में उन राजनीतिक गलियारों का अंतर क्या है। वर्तमान दौर को तो हम समझ ही सकते हैं जहां जितना अघोषित आपातकाल बाहर है उससे कहीं ज्यादा भीतर है। इतना ज्यादा कि द्वंद्व आरएसएस और मोदी के बीच आकर छलांगे मारता है। हां मोदी से पहले मनमोहन सिंह के शासन तक जरूर उसी राजनीतिक वातावरण का विस्तार हम देख सकते हैं। आज दोनों राष्ट्रीय पार्टी अपने अपने दायरे में तानाशाह लगती हैं। कांग्रेस में गांधी परिवार से अलग कुछ नहीं और मोदी के बारे में तो दुनिया जहान को पता है। संतोष भारतीय का आग्रह है कि इस पुस्तक को नयी पीढ़ी को जरूर पढ़ना चाहिए। जरूर पढ़ें नयी पीढ़ी। पर जमाना कैसा बदला है और मोदी के शासन के इन सात सालों ने राजनीति और जीवन के तमाम मूल्यों और आदर्शों पर जो कुठाराघात किया है उसे कैसे भूल पाएंगे हम। किसी भी पीढ़ी को संस्कार तो बचपन से मिलते हैं। और संस्कार देने वाले का जीवन राजसत्ता के आचरण से भी प्रभावित होता है, क्योंकि समूचे देश का वातावरण उसके प्रभाव में आता और बहता है, तो जो सत्ता गांधी को पीठ दिये बैठी हो वह तो जीवन को तबाह करने के लिए ज्यादा जिम्मेदार है। सच मोदी के यहां पानी पीता है। कल ही हमने देखा वाराणसी के दौरे पर मोदी ने योगी और उत्तर प्रदेश की प्रशंसा में झूठ की इंतहा कर दी। सारी दुनिया का सच एक तरफ और मोदी का झूठ एक तरफ। तो राजनीति ने हर दौर में करवट ली है। और अगर राजनीति वैसी ही होती जैसी वीपी सिंह और राजीव गांधी के समय थी तो किसी भी पीढ़ी के लिए यह किताब इसलिए जरूरी थी कि इसमें आपसी मनमुटाव की सारी मर्यादाओं की सीमा तमाम तनावों के बीच भी यथावत दिखती है। दुश्मनी के दायरे टूट नहीं गये। आज का दौर हमें घृणित वातावरण में ले गया है। जाने यह दौर कब तलक चलेगा।

लगता है आजकल मोदी की साढ़े साती चल रही है। मुझे नहीं पता यह साढ़े साती क्या होती है। पर सुना है कि जब किसी के बुरे दिन हों तो अक्सर इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं। जब से सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बोबड़े गये हैं और रमन्ना आये हैं तब से इस साढ़े साती के मायने प्रगाढ़ हो गये हैं। ऐसा लगता है जैसे रमन्ना लोकतंत्र के रक्षक बन कर आये हैं। उम्मीद इसलिए और भी बढ़ जाती है कि उनके बाद जस्टिस चंद्रचूड़ चीफ बनेंगे। इधर जब से फैजान मुस्तफा की लीगल सीरीज शुरू हुई है तब से लोगों में नयी जागरूकता पनपी है। वह इसलिए कि हर कोई जानने लगा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले की व्याख्या फैजान साहब तो करेंगे ही करेंगे। बरक्स इसके हम ‘सत्य हिंदी’ पोर्टल को देखें तो रोजाना की डिबेट भले अच्छे और तत्काल विषय पर हो लेकिन सारा उत्साह पैनल देख कर ठंडा हो जाता है। डिबेट करनी है तो करनी है। जैसे प्रशांत किशोर और कांग्रेस पर एक डिबेट हुई। मजे के लिए आप देखिए। मजा आएगा भी। लेकिन एकदम अंत में पत्रकार विनोद शर्मा का कमेंट भी जरूर सुनिए कि ‘तथ्य कोई है नहीं और डिबेट कर रहे हैं’। इससे तो बेहतर रवीश कुमार का प्राइम टाइम है।

कल के प्राइम टाइम में रवीश ने जिस तरह मोदी जी के झूठ की धुलाई की, सच्ची पत्रकारिता दरअसल यह है। आज का अधिकांश सोशल मीडिया मैं मानता हूं जगे हुए लोगों को ही जगा रहा है। दरअसल उसकी पहुंच ही उन्हीं तक है। यह वक्त गंवाने का नहीं है। सोशल मीडिया वक्त गंवा रहा है। होना तो यह चाहिए कि ताजे हालात पर प्रबुद्ध लोगों (एक या दो) से बात हो। जैसे अभी रतनलाल ने प्रो.अपूर्वानंद से बात की। उनसे प्रश्न पूछ कर उन्हें बोलने के लिए खुला छोड़ दिया। बढ़िया और रोचक लगा। अपूर्वानंद ने आरएसएस का एक पर्यावरण बताया। जिसमें तमाम हिंदू संगठन हैं। जो आरएसएस से अलग हैं पर उसी के पर्यावरण के हैं। लेकिन अपूर्वानंद की प्रताप भानु मेहता से बातचीत कुछ उलझी सी रही जो बहुत अच्छी हो सकती थी। यदि पात्र बदल दिये जाते। मेहता अंग्रेजी के विचारक हैं और जितना बेहतर वे अंग्रेजी में लिखते हैं उतना विश्लेषण नहीं कर सकते। और हिंदी में तो बिल्कुल नहीं।

भाषा सिंह के वीडियो हमें बराबर मिलते हैं और सामयिक विषयों पर तथ्यपूर्ण विश्लेषण के साथ। आरफा खानम शेरवानी का तो हर वीडियो सुनने वाला होता है। शानदार स्पष्टवादिता के साथ ‘क्विक’ एंकरिंग। देखना मजबूरी है। कभी कभी ‘सत्य हिंदी’ में नीलू व्यास भी चमत्कृत करती हैं। कुल मिलाकर कहा जाए तो मौजूदा वक्त को हर कोई जल्दी से जल्दी रवाना होते देखना चाहता है। इसलिए हर कोई अपनी अपनी भूमिका में लगा भी है, अपने अपने तरीके से। जैसे पुण्य प्रसून वाजपेयी का भी ढंग अपना अलग ही निराला है। कई जुड़ते हैं और कई नहीं जुड़ पाते उनकी शैली से। पर आज का राजा वही जो सामान्य जनता से जुड़े पाये। हमने बात संतोष जी की पुस्तक से शुरू की थी। अंत में यही कहेंगे कि साथी लोग पुस्तक लें और वाचन करें ताकि राजनीति के भीतर की या परदे के पीछे की राजनीति का भी इल्म हो।

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