मध्य प्रदेश के रायसेन ज़िले के गैरतगंज ब्लॉक का चांदोनी गढ़ी गांव कभी देश के उन तमाम दूसरे गांवों से भिन्न नहीं था, जो आज भी ग़रीबी और उपेक्षा के शिकार हैं. और, जहां पैदा होते ही किसी के हिस्से में आ जाता है अभाव एवं तिरस्कार भरा जीवन. एक समय था,जब चांदोनी गढ़ी के लोगों को अपना जीवन नीरस और अर्थहीन महसूस होता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है. स्थानीय लोगों के हौसले एवं कड़ी मेहनत ने गांव में दशकों से पसरे ग़रीबी और पिछड़ेपन के कुचक्र को तोड़ दिया है. आज गांव के लोग जब स़िर्फ भोजन जुटाने की सोच से ऊपर उठकर एग्रो इंटरप्राइजेज़ और बच्चों की अच्छी शिक्षा की बात करते हैं तो लगता है कि समृद्धि आने से यहां के बाशिंदों की जड़ता भी टूटने लगी है.
180 परिवारों के इस गांव में विभिन्न जातियों के लोग रहते हैं, जिनमें 50 फीसदी लोधी, 25 फीसदी कुशवाह और शेष 25 फीसदी में साहू, धोबी, ब्राह्मण, नाई, यादव, कायस्थ एवं अन्य जातियों के लोग शामिल हैं. क़रीब दो से तीन एकड़ औसत जोतों वाले चांदोनी गढ़ी गांव के लोगों की आजीविका का मुख्य साधन खेती है. गांव में महज़ 50 फीसदी भूमि सिंचित है. यहां के लोग वर्षों से खेती कर रहे थे, लेकिन ग़रीबी का दुष्चक्र कुछ इस तरह से बरक़रार था कि उन्हें हर बार बुआई के समय कार्यशील पूंजी की कमी का सामना करना पड़ता था. इसके चलते वे क़र्ज़ लेने के लिए मजबूर थे. साहूकार उनसे तीन से पांच प्रतिशत तक ब्याज वसूलते थे. नतीजतन, फसल होते ही किसानों को क़र्ज़ की भरपाई के लिए अनाज बेचना पड़ता था और अगली फसल आने तक उनके सामने खाने का संकट फिर से खड़ा हो जाता था. ऐसे मकड़जाल में फंसी किसान की ज़िंदगी किसी यातना से कम नहीं होती. लेकिन, चांदोनी गढ़ी के लोग अब इस तरह के जीवन से मुक्ति पा चुके हैं.
बदलाव की यह कहानी ग़रीबी उन्मूलन को लेकर डीपीआईपी नामक एक परियोजना से शुरू हुई, जिसमें विश्व बैंक की ओर से समहित समूहों को शत प्रतिशत अनुदान दिया गया. चांदोनी गढ़ी की स्थितियों को देखते हुए जब वहां परियोजना पर काम शुरू हुआ और स्थानीय लोगों को इसकी जानकारी दी गई तो ग्रामीणों को बात कुछ हज़म नहीं हुई. गांव के छतरसिंह को भी इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था कि ग़रीबों को ऐसा कोई अनुदान मिल सकता है. वह कहते हैं, हम सोचते थे कि कहीं ऐसा न हो कि हमारे पास जो थोड़ी- बहुत ज़मीन है, वह भी बिक जाए. लेकिन, पापी पेट क्या कुछ नहीं कराता. ग्रामीणों की तरसती आंखें सपने देखने लगीं. छतर सिंह ने भी सपना देखना शुरू कर दिया कि यदि उन्हें एक लाख रुपये का अनुदान मिल जाए तो उनके खेतों की बाड़बंदी और सिंचाई के लिए इंजन एवं पाइप की व्यवस्था हो जाएगी. अगर कुछ पैसे बच गए तो फसल को बाज़ार तक ले जाने के लिए बैलगाड़ी भी ली जा सकती है. दरअसल, पैदावार बढ़ाने के लिए छतर सिंह लंबे समय से यह सब कुछ सोच रहे थे, लेकिन पैसे की कमी उनका रास्ता रोक देती थी.

वे लोग करना बहुत कुछ चाहते थे, योजना भी बनाते थे, लेकिन संसाधनों की कमी हर बार उनके आड़े आ जाती थी. साहूकारों के सूद की दर यह थी कि एक बार क़र्ज़ लेने के बाद आदमी की कमर ही टूट जाए. लेकिन फिर भी उनका हौसला बुलंद था. बस, सहयोग का एक हाथ आगे बढ़ा और बात बन गई. अब वे दूसरों के लिए प्रेरणा के स्रोत साबित हो रहे हैं.

डीपीआईपी की शुरुआत के समय जब ग़ैर सरकारी संस्था लुपिन ह्यूमन वेलफेयर एंड रिसर्च फाउंडेशन के प्रतिनिधियों ने ग्रामीणों को योजना के बारे में विस्तार से बताया और भरोसा दिलाया कि इससे उन्हें किसी तरह का नुक़सान नहीं होगा तो लोग राजी हो गए. इस तरह लुपिन की पहल पर चांदोनी गढ़ी में समहित समूह (कॉमन इंट्रेस्ट ग्रुप) गठित करने का काम शुरू हो गया. समहित समूहों के गठन के बाद लुपिन संस्था ने स़िर्फ ज़रुरतमंद किसानों को अनुदान दिलाने में ही मदद नहीं की, बल्कि उन्हें चक्रीय खेती के नुस्ख़े भी बताए. फिर क्या था, किसानों ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
लुपिन से जुड़े मुकेश कुमार बताते हैं कि लोगों को इस परियोजना का समुचित लाभ मिल सके, इसके लिए समहित समूह बनाना प्राथमिक कार्यों में से एक था. समूह गठन के बाद लोगों से ख़ुद की रुचि के मुताबिक़ व्यवसाय चुनने के लिए कहा गया. जहां लगा कि ग्रामीणों का चुनाव सही नहीं है, वहां संस्था के प्रतिनिधियों ने उनका मार्गदर्शन भी किया. छतर सिंह, रामचरण, गंगाराम, बलदेव सिंह और सरस्वती बाई आदि को मिलाकर शुभम समहित स्वयं सहायता समूह बनाया गया. इन लोगों के पास कुल मिलाकर स़िर्फ साढ़े चार एकड़ ज़मीन है. बलदेव बताते हैं कि पहले तो हम सिंचाई की समस्या के चलते साल में स़िर्फ पिस्सी (गेहूं) की फसल ले पाते थे. चरसा चलाकर सिंचाई करनी पड़ती थी, जिसमें का़फी समय लगता था और अपेक्षित सफलता भी नहीं मिलती थी. साल के बाक़ी दिनों में हम सभी को मज़दूरी करनी पड़ती थी. लेकिन, अब जून में मूंगफली की बुआई होती है और अक्टूबर में उसकी फसल तैयार हो जाती है. उसी समय आलू की खेती शुरू हो जाती है और उसके बाद गेहूं बोया जाता है. इसके अलावा इन लोगों ने पपीते एवं अमरूद जैसे फलदार वृक्ष भी लगाए हैं. छतर सिंह कहते हैं कि कुछ समय समय बाद ये पेड़ फल देना शुरू कर देंगे तो मुना़फा बढ़ जाएगा.
वर्ष 2002 में परियोजना के तहत ज़रूरी संसाधनों की कमी को पूरा करने के लिए शुभम समहित स्वयं सहायता समूह को 85 हज़ार रुपये की आवश्यकता पड़ी थी. इसमें से 40 हज़ार रुपये तो कुंआ ख़ुदवाने में ख़र्च हो गए और बाक़ी पैसे बाड़बंदी एवं इंजन-पाइप वग़ैरह ख़रीदने में. बलदेव के मुताबिक़, बाड़बंदी हो जाने से मवेशियों से फसल का बचाव होने लगा, जिससे हमें दोगुना फायदा हुआ. इसके बाद सब्ज़ियों की खेती पूरे साल की जाने लगी. गंगाराम ने बताया कि वह टमाटर, बैंगन, मूली, मूंगफली, गाजर और गेहूं की खेती करते हैं. गत दो महीनों में वह क़रीब 35 हज़ार रुपये की फसल बेच चुके हैं. गंगाराम कहते हैं कि पहले हमें दूसरों के खेतों में मज़दूरी करनी पड़ती थी, लेकिन अब कभी-कभी हमें ख़ुद ही मज़दूर लगाने पड़ते हैं. इस बार 30 क्विंटल मूंगफली पैदा हुई. बलदेव बताते हैं कि मूंगफली बेचकर हम आलू के बीज ख़रीद लेते हैं. समूह के सदस्यों को उम्मीद है कि इस वर्ष 100 बोरे आलू का उत्पादन ज़रूर हो जाएगा.
पूंजी उपलब्ध हो जाए तो ग़रीबों के लिए रोज़गार के रास्ते खुल जाते हैं. इस बात को कलाबाई ने प्रमाणित किया है. डीपीआईपी की परियोजना के बाद अब ग्राम विकास समिति रोज़गार हेतु धन उपलब्ध करा देती है. कलाबाई ने भैंस ख़रीदने के लिए 10 हज़ार रुपया क़र्ज़ लिया था. दो हज़ार रुपये अपने पास से मिलाकर उन्होंने क़र्ज़ अदा कर दिया. भैंस से उन्हें प्रतिदिन क़रीब पांच लीटर दूध मिल जाता है, जिसका घी बेचकर वह महीने में एक हज़ार रुपये तक कमा लेती हैं. उनके पति अर्जुन सिंह कहते हैं कि अब तो भैंस की क़ीमत भी 20 हज़ार पार कर गई है. चांदोनी गढ़ी में इस तरह के 32 समहित समूह बने हैं, जो विभिन्न प्रकार की गतिविधियों में शामिल हैं. इनमें दोना-पत्तल निर्माण, पशुपालन, टेंट हाऊस, बैलगाड़ी और किराने की दुकान जैसे कार्यों के लिए भी अनुदान दिया गया है. इस तरह की मदद से गांव में उद्यमिता विकास को प्रोत्साहन मिला है.
मार्च-अप्रैल में गेहूं की फसल कट जाने के बाद तेज़ गर्मी से गांव में पानी का संकट बढ़ जाता है. भूजल स्तर का़फी नीचे चला जाता है और सिंचाई न हो पाने से खेती का काम एक तरह से ठप्प पड़ जाता है. लेकिन, चांदोनी गढ़ी के लोग गर्मी के इन दिनों में भी ख़ाली नहीं बैठते. शुभम स्वयं सहायता समूह के लोग खेत से मिट्टी लाकर घर पर ही ईंट बनाने का काम शुरू कर देते हैं. छतर सिंह बताते हैं कि पहले जहां हमें खाने के लिए भी कम पड़ जाता था, लेकिन अब सारे ख़र्च निकालने के बाद भी 25-30 हज़ार रुपये की बचत हो जाती है. लंबे समय तक संसाधनों का अभाव झेल चुके चांदोनी गढ़ी के किसानों को उद्यमिता और खेती-बाड़ी से मुना़फे की बात समझ में आ चुकी है.
छतर सिंह के पांच बच्चे हैं. सीमित ज़मीन को देखते हुए उन्होंने खेत के आसपास अमरूद और पपीता जैसे फलदार पेड़ भी लगा दिए हैं. उन्हें इंतज़ार है कि यदि इस साल फसल ठीकठाक रही तो उनके घर की मरम्मत भी हो जाएगी. अंत में यही कहा जा सकता है कि थोड़ा सा सहारा वंचितों को किस तरह अपने पैरों पर खड़ा कर सकता है, इस बात का उदाहरण बनकर उभरा है चांदोनी गढ़ी गांव.

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