उत्तर प्रदेश में जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव नज़दीक आता जा रहा है, वैसे-वैसे दलित एवं मुस्लिम वोटों को लेकर राजनीतिक पार्टियों में मारामारी और घमासान का दृश्य गहराता जा रहा है. दो अहम सवाल उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य पर मंडरा रहे हैं. पहला यह कि क्या मुलायम सिंह यादव मुस्लिम वोटों पर अपनी पकड़ बरकरार रख पाएंगे और दूसरा यह कि क्या मायावती 2007 की तरह दलित वोटों पर अपना एकाधिकार बनाए रख पाएंगी? इन दोनों सवालों के जवाब मौजूदा राजनीतिक कालखंड के पाखंड में उलझे हुए हैं.
इन सवालों के जवाब न मुलायम सिंह के पास हैं और न मायावती के. इन्हीं में से तीसरा सवाल भी सामने खड़ा होता है कि क्या भाजपा मुस्लिम वोटों को तितर-बितर करने और मायावती के हाथों से दलित वोट छीनने में कामयाब हो पाएगी? इसमें भी संदेह है. यानी उत्तर प्रदेश में इस बार विधानसभा चुनाव पूर्व की राजनीतिक स्थितियां अस्पष्ट और खंडित स्थितियों को साथ लेकर बढ़ रही हैं.
समाजवादी पार्टी ने पंचायत चुनावों में सत्ता का किस तरह अतिरंजित इस्तेमाल किया, इसका नतीजा उसे विधानसभा चुनाव में भुगतना पड़ेगा. बिहार में महा-गठबंधन से अलग होकर समाजवादी पार्टी मुस्लिम मतदाताओं को पहले ही नाराज़ कर चुकी है. सत्ता के गुरूर में गांव, कस्बों, पंचायतों एवं ब्लॉकों में खास तौर पर यादव दबंगों द्वारा आतंक का राज चलाने के कारण उत्तर प्रदेश का दलित समाजवादी पार्टी से पूरी तरह बिदक गया है.
उधर मायावती की जाति के दलित मतदाताओं को छोड़कर अन्य दलित मतदाता बसपा से परहेज कर रहे हैं, क्योंकि उनका मानना है कि सत्ता में रहने पर बसपा में केवल एक दलित जाति जाटव और एक सवर्ण जाति ब्राह्मण की चलती है, अन्य सब लोग हाशिये पर रहते हैं. यही हाल सपा के कार्यकाल में खुद को हाशिये पर महसूस करने वाले ग़ैर यादव पिछड़े वर्ग एवं अति पिछड़े वर्ग के मतदाताओं का है. कुर्मी, लोध, जाट, गूजर, सोनार, गोसाई, कलवार एवं अरक जैसी ग़ैर यादव पिछड़ी जातियों में भीषण ऊबन की हालत है. वे खुद को उपेक्षित महसूस कर रही हैं, लेकिन उन्हें कहीं अपना सियासी ठौर नहीं दिख रहा.
ऐसी ऊहापोही स्थिति में ग़ैर जाटव दलित, ग़ैर यादव पिछड़े एवं अति पिछड़े वर्ग के मतदाता राजनीति की नब्ज पढ़ने-समझने की कोशिश कर रहे हैं. इसे भांपते हुए भाजपा अपना प्रदेश अध्यक्ष और चुनावी चेहरा तय नहीं कर पा रही है. जातिगत संतुलन साधने की कोशिश में भाजपा खुद को कहीं भी स्पष्ट तौर पर खड़ा नहीं कर पा रही है.
बाबा साहेब अंबेडकर के पौत्र एवं रिपब्लिकन सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष आनंद राज अंबेडकर द्वारा उत्तर प्रदेश में कम से कम दो सौ सीटों पर चुनाव लड़ने के ऐलान से भी बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की पेशानी पर बल सा़फ-सा़फ दिख रहे हैं. आनंद राज दलितों को बार-बार समझा रहे हैं कि मायावती बाबा साहेब के नाम का इस्तेमाल अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कर रही हैं.
बहरहाल, भारतीय लोकतंत्र का मतलब संख्या बल ही होता है. लिहाजा, किस जाति की भीड़ कहां अधिक है और उसका क्या अनुपात है, यही बात देश की राजनीति की दिशा तय करती है और दशा खराब करती है. उत्तर प्रदेश में दलित मतदाताओं का अनुपात क़रीब 22 फीसद है. इनमें से जाटव को छोड़कर अन्य दलितों के बारे में यह कतई नहीं कहा जा सकता कि वे बसपा की तऱफ हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में दलितों का जबरदस्त समर्थन भाजपा को मिला था, यहां तक कि जाटव भी बड़ी संख्या में बसपा का साथ छोड़कर भाजपा की तऱफ चले गए थे.
बसपा के एकपक्षीय-जातिवाद से ऊब कर अन्य दलितों ने 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को समर्थन दिया था, लेकिन सपा ने अपने शासनकाल में दलितों को साथ जोड़े रखने का कोई जतन नहीं किया, उल्टे सपाइयों ने उन्हें आक्रांत किया. तरक्की में आरक्षण न देने की नीति से भी सूबे के दलित समाजवादी पार्टी से खासे नाराज़ हैं. इधर मायावती की भी दलितों पर पकड़ लगातार ढीली होती जा रही है. मायावती ने 2012 के विधानसभा चुनाव में 126 सीटें गंवाई थीं और 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हें एक भी सीट हासिल नहीं हो सकी.
दलितों का समर्थन बरकरार रखने के लिए भाजपा लगातार जद्दोजहद कर रही है. लोकसभा चुनाव जीतने और केंद्र में सरकार बनने के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार अंबेडकर को महिमामंडित करने में लगे हैं, लेकिन कभी उनकी पार्टी के कुछ नेता, तो कभी संघ के नेता, तो कभी अचानक बदले हुए हालात उनकी इस मुहिम को आघात पहुंचाते रहे हैं.
हैदराबाद में दलितवादी राजनीति के सतह पर आने के बाद जब रोहित वेमुला के दलित के बजाय पिछड़े वर्ग का होने की बात सामने आई, तब जाकर दलित-उन्माद थोड़ा थमा, लेकिन तब तक मोदी के खिला़फ लखनऊ में गो-बैक के नारे लग गए और भाजपा की अंबेडकरवादी योजनाओं की वाट लग गई. भाजपा में बड़े तामझाम से शामिल किए गए उदित राज, कौशल किशोर, पूर्व आईपीएस अधिकारी बृजलाल, बसपा के सांसद रहे जुगल किशोर एवं पार्टी के पुराने दलित नेता इस सियासी प्रहार का कारगर मुक़ाबला नहीं कर सके, बल्कि उल्टे कांग्रेस के स्टैंड के पक्ष में बयान देने लगे. लोग तो यहां तक कहते हैं कि लखनऊ में अंबेडकर विश्वविद्यालय परिसर में मोदी के खिला़फ नारेबाजी का प्लॉट भाजपा के ही कुछ दलित नेताओं ने रचा था.
लब्बोलुबाव यह है कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव दलित और मुस्लिम मतदाताओं के बीच सैंडविच बना हुआ है. मौजूदा भीड़ आधारित भारतीय लोकतंत्र में अपनी दुकान चलाने वाले राजनीतिक दल सवर्ण वोटों के बारे में अधिक परवाह नहीं करते. राजनीतिक दलों को केवल संख्या से मतलब रह गया है, नेता अब लोगों को केवल गिनती के रूप में देखते हैं. इसी गिनती के आधार पर कोई दल दूसरे को कोसता है, तो कोई दल अपनी पीठ ठोंकता है.
मुस्लिम वोटों की बोटी खींचने में सक्रिय राजनीतिक दल सपा पर यह कहकर प्रहार कर रहे हैं कि विधान परिषद की 36 सीटों पर होने वाले चुनाव में उसने केवल चार मुसलमानों को टिकट दिया. इसे मुसलमानों के साथ धोखा तक बताया जा रहा है. दूसरी तऱफ एआईएमआईएम के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी भी भाजपा पर कम, सपा पर अधिक प्रहार कर रहे हैं. ओवैसी ने फैजाबाद की बीकापुर विधानसभा सीट पर हो रहे उपचुनाव में अपना प्रत्याशी उतार कर यह संदेश दे दिया है कि आने वाले विधानसभा चुनाव में वह भी एक महत्वपूर्ण प्लेयर हैं.
बीकापुर उपचुनाव में ओवैसी ने दलित उम्मीदवार को मैदान में उतारा है. ओवैसी ने अपनी मंशा स्पष्ट रूप से बताई भी कि वह दलित एवं मुस्लिम मतदाताओं को साथ लेकर चलना चाहते हैं. ओवैसी ने कहा, देश में राजनीति अमीर लोग चला रहे हैं. एक ग़रीब एवं दलित व्यक्ति को चुनिए, लोग आपका सम्मान करेंगे. उन्होंने कहा कि अगर दलित और मुसलमान साथ मिलकर लड़ेंगे, तो फिर कोई ताकत उन्हें उनके अधिकारों से वंचित नहीं कर पाएगी.
पिछले दिनों फैजाबाद की एक चुनावी सभा में किसानों की बदहाली के प्रति प्रदेश की सपा सरकार और केंद्र की भाजपा सरकार की उपेक्षा पर ओवैसी ने तीखा हमला किया. मुसलमानों को आरक्षण देने का वादा करके भूल जाने वाली समाजवादी पार्टी को ओवैसी ने आड़े हाथों लिया. राजनीतिक समीक्षकों का मानना है कि अगर बसपा और ओवैसी की पार्टी के बीच तालमेल हुआ, तो मुसलमानों का अच्छा-खासा वोट उनकी झोली में जा सकता है.
पिछड़ों को धकेल रही अति पिछड़ों की गोलबंदी
अति पिछड़ी जातियां क्रमश: बढ़ती गोलबंदी के आधार पर पिछड़े वर्ग के लोगों को धीरे-धीरे धकेल रही हैं. भारतीय लोकतंत्र की समझदार शर्त के मुताबिक ही यह चल रहा है और राजनीतिक दल इस संख्या-स्वाद को लपकने की कोशिश में लगे हैं. इसी कोशिश का नतीजा है कि हर सरकार कुछ अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का प्रहसन करती है और वोट हासिल करती है. अनुसूचित जाति की सूची धागे से बंधी जलेबी है, जिसे लटका कर अति पिछड़ों को लगातार बेवकूफ बनाया जा रहा है. अभी कुछ ही दिनों पहले समाजवादी पार्टी की मौजूदा सरकार ने 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की पहल का फिर से नाटक शुरू किया. समाजवादी पार्टी ने इस समुदाय के लिए बाकायदा सम्मेलन भी आयोजित कराया. सपा ने इसके ज़रिये 17 अति पिछड़ी जातियों को धागे में बंधी जलेबी दिखाने की कोशिश फिर से शुरू की.
अन्य दलों की भी निगाह इस संख्या-समूह पर बिहार चुनाव के बाद टिकी, जहां नीतीश एवं लालू ने अति पिछड़े वर्ग को जलेबी दिखाकर खूब वोट बटोरे. उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ी जातियों की अच्छी-खासी संख्या है. चुनाव विश्लेषकों का कहना है कि 2002, 2007 एवं 2012 में हुए विधानसभा चुनावों के परिणाम बताते हैं कि दो से साढ़े तीन फीसद मतों के इधर-उधर होने से सपा और बसपा की सरकारें बनती रही हैं.
ऐसे में 17 अति पिछड़ी जातियां उत्तर प्रदेश की राजनीति में अति महत्वपूर्ण रोल अदा करती रही हैं. 2001 में तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने छेदालाल साथी आयोग की सिफारिशों पर आधारित सामाजिक न्याय समिति-2001 की रिपोर्ट पर अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) को तीन श्रेणियों में बांटकर क्रमश: पांच, आठ एवं 14 फीसद और दलितों को दो श्रेणियों में बांटकर क्रमश: 10 एवं 11 फीसद आरक्षण देने की कोशिश की थी. भाजपा के इस क़दम का सपा-बसपा, दोनों ने विरोध किया था और सपा के सभी 67 विधायकों ने सामूहिक रूप से इस्ती़फा दे दिया था.
पूर्ववर्ती शासनकाल में भी सपा के एकल जातिवाद से त्रस्त होकर अति पिछड़ी जातियां बिदकने लगी थीं. इसे भांपते हुए मुलायम सिंह यादव ने अति पिछड़ों की लामबंदी तोड़ने के इरादे से 2004 में भी 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने का मुद्दा उछाला था, लेकिन उनका अति पिछड़ा प्रेम इतना गहरा था कि मछुआरा वर्ग की पुश्तैनी पेशेवर जातियों को बालू एवं मौरंग खनन के जो पट्टे दिए गए थे, उन्हें भी ़खत्म कर दिया गया. मुलायम सरकार ने 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति का आरक्षण-लाभ देने के लिए अधिसूचना तो जारी कर दी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट में उसे बेहद कमज़ोर तरीके से पेश किया. इस वजह से यह प्रसंग आज तक सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
नतीजतन, प्रदेश की 17 अति पिछड़ी जातियां न पिछड़े वर्ग में रह पाईं और न दलित श्रेणी में आ सकीं. 2007 में सत्ता में आईं मायावती ने अपनी पहली कैबिनेट बैठक में 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति बनाने का प्रस्ताव खारिज करने का ़फैसला कर लिया. इन जातियों के हाथों से खनन पट्टा छिन गया और श्रेणी-3 के तालाबों का पट्टा भी निरस्त कर दिया गया. इससे नाराज़ उक्त समुदाय ने 2012 में फिर सपा को समर्थन दिया. सपा शासन के चार वर्षों बाद फिर वही स्थिति आ गई है कि आ़खिर वे जाएं, तो कहां जाएं.
मल्लाह, कुम्हार, गड़रिया, काछी, कोयरी, सैनी, राजभर, चौहान, नाई, भुर्जी एवं तेली जैसी अत्यंत पिछड़ी जातियां इस बार सियासी समीकरण बदल डालने पर आमादा दिख रही हैं. सारे राजनीतिक दल भी इस संख्या बल को अपनी तऱफ करने की कोशिश में लगे हैं. भाजपा भी इन जातियों को 7.5 फीसद का विशेष आरक्षण कोटा देने और सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट लागू करने का वादा कर रही है. प्रदेश भाजपा की कमान अति पिछड़े को देने की सुगबुगाहट इन्हीं कोशिशों का हिस्सा है.
…तो सवर्णों को कौन पूछे!
दलितों, अति पिछड़ों, पिछड़ों या मुसलमानों की तरह बारगेनिंग या ब्लैकमेलिंग की पोजिशन सवर्णों की नहीं है. सवर्णों को जिस दल से थोड़ी-बहुत तरजीह मिलने लगती है, वे उसका साथ देने लगते हैं. इसी मनोदशा को समझते हुए बहुजन समाज पार्टी ब्राह्मणों को अपनी ओर खींच लेती है, तो समाजवादी पार्टी ठाकुरों को अपनी ओर. राजपूत समुदाय के नेताओं को भाजपा अपनी ओर लाने के लिए रिझा रही थी, तो सपा ने विधान परिषद के लिए आठ ठाकुर प्रत्याशी उतार कर उन्हें रोक लिया. वैश्य समुदाय को भाजपा अपना पारंपरिक वोट बैंक मानती है, तो कायस्थ मतदाताओं को अपना बौद्धिक समर्थक. मायावती ने आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को आरक्षण देने की बात कहकर सवर्णों का ध्यान अपनी ओर ज़रूर खींचा है.
अगर वह इसे पुरज़ोर तरीके से चुनावी मुद्दा बनाने में सफल रहीं, तो उसका असर चुनाव परिणाम पर देखने को मिलेगा. इस मसले पर लोगों का कहना है कि आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्णों को अगर आरक्षण मिलता है, तो बहुत अच्छा होगा और इसका श्रेय बसपा को मिलेगा. हालांकि, सपा इस पर भी अपना समानांतर दावा पेश करती है और कहती है कि उसने अपने घोषणा-पत्र में सवर्ण आयोग गठित करने की बात कही थी. सवाल यह है कि पिछले चार वर्षों से प्रदेश की सत्ता पर काबिज समाजवादी पार्टी को सवर्ण आयोग गठित करने से किसने रोक दिया!
ब्राह्मणों को लुभाने का मायावी टोटका
ब्राह्मण विरोधी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाकर पूर्व सांसद कपिल मुनि करवरिया एवं पूर्व एमएलसी सूरजभान करवरिया को बसपा से निकाले जाने के पीछे का मायावी टोटका सा़फ-सा़फ समझा जा सकता है. यह ब्राह्मणों को एक बार फिर अपनी तऱफ करने का कारगर उपाय साबित हो रहा है. दोनों नेताओं को पार्टी से निकाले जाने की कार्रवाई के बारे में बाकायदा प्रेस विज्ञप्ति जारी कर उसकी मीडिया-मार्केटिंग की गई. विज्ञप्ति में ब्राह्मण विरोधी गतिविधियों के कारण निकाले जाने को हाईलाइट किया गया है. विज्ञप्ति पर जोनल कोआर्डिनेटर इंद्रजीत सरोज, आरके चौधरी एवं अखिलेश अंबेडकर के हस्ताक्षर हैं, लेकिन लोग जानते हैं कि मायावती के आदेश के बिना पार्टी में पत्ता भी नहीं हिलता.
विज्ञप्ति में करवरिया बंधुओं के निष्कासन का कारण ब्राह्मण समाज विरोधी गतिविधियों में उनका लिप्त होना बताया गया है. कपिल मुनि करवरिया एवं सूरजभान करवरिया पूर्व विधायक जवाहर यादव की हत्या के आरोप में नैनी सेंट्रल जेल में बंद हैं. बसपा एक तऱफ ब्राह्मणों को लुभाने का जतन कर रही है, तो दूसरी तऱफ ठाकुरों पर बौखलाई हुई है. पार्टी ने पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के पौत्र एवं पूर्व एमएलसी रविशंकर सिंह पप्पू को पार्टी से निष्कासित कर दिया. उधर ठाकुरों को अपने पक्ष में करने की मुहिम के तहत समाजवादी पार्टी ने रविशंकर सिंह को विधान परिषद का प्रत्याशी बना दिया है.