ये कोई पहली बार नहीं है। 10 वीं, 12 वीं की बोर्ड परीक्षाओं में सरकारी स्कूलों का रिजल्ट खराब आने के बाद सरकार स्कूली शिक्षकों की दक्षता परीक्षा लेती है और बड़ी तादाद में शिक्षक इसमें फेल हो जाते हैं। उन्हें नकल के साथ पास होने का मौका दिया जाता है, फिर भी कुछ शिक्षक नाकाम रहते हैं।
अब सरकार ने ऐसे ‘अयोग्य’ शिक्षकों को रिटायर करना या दूसरी दंडात्मक कार्रवाई करना शुरू कर दिया है। इसके पीछे यह स्वाभाविक तर्क यह है कि जो शिक्षक खुद परीक्षा में पास नहीं हो सकते, वो छात्रों को क्या और कैसे पढ़ाते होंगे। स्कूल का रिजल्ट कैसे सुधार पाएंगे? यह स्थिति तब है, जब सरकारी स्कूलों के शिक्षक निजी स्कूलों के शिक्षकों की तुलना में बेहतर वेतन और अन्य सुविधाएं पाते हैं।
ऐसे में क्या उन्हें बेहतर नतीजे नहीं देना चाहिए? लेकिन इसी के साथ एक वाजिब सवाल यह भी जुड़ा है कि क्या शिक्षकों की दक्षता के मूल्यांकन का आधार भी वही होना चाहिए, जो छात्रों के मूल्यांकन का है? क्या अध्यापनरत शिक्षकों का एक छात्र के रूप में मू्ल्यांकन न्यायोचित है?
ये सवाल इसलिए फिर उठ रहा हैं, क्योंकि मध्यप्रदेश में हाल में आयोजित शिक्षक दक्षता परीक्षा के तीसरे अटेप्म्ट में भी 900 से ज्यादा शिक्षक फेल हो गए। 577 तो परीक्षा देने ही नहीं आए। दक्षता परीक्षा देने वाले ये वो शिक्षक हैं, जिनके स्कूलों में 10 वीं या 12 वीं का रिजल्ट 40 फीसदी से भी कम रहा। प्रदेश के स्कूली शिक्षा विभाग ने ऐसे ‘अयोग्य’ 7910 टीचरों की दक्षता परीक्षा ली थी।
इसमें मिडिल स्कूल के 6299 और हाई स्कूल व हायर सेकंडरी के 1611 शिक्षक शामिल थे। परीक्षा में शिक्षकों को यह ‘सुविधा’ दी गई थी कि वो अपने साथ एक किताब ला सकते हैं और उसे देखकर उत्तर लिख सकते हैं। बताया जा रहा है कि जो शिक्षक इस टेस्ट में भी फेल हो गए , उन्हें फिर से ट्रेनिंग देकर इस मार्च में पास होने का एक मौका और दिया जाएगा।
दक्षता परीक्षा में पास होने की योग्यता 48 फीसदी से अधिक अंक लाना है। पिछले साल भी जो शिक्षक दो बार दक्षता परीक्षा में नाकाम रहे थे, सरकार ने उन्हें 20/50 फार्मूले के तहत जबरिया रिटायर कर दिया था। कुछ को पदावनत किया गया तो ऐसे कुछ शिक्षकों के खिलाफ विभागीय जांच भी शुरू की गई, जिसका शिक्षक संगठनों ने काफी विरोध किया था।
उनका कहना है कि ऐसी कार्रवाई से शिक्षको में निराशाभाव फैलता है। इस बारे में प्रदेश के स्कूली शिक्षा मंत्री डाॅ. प्रभुराम चौधरी का कहना है कि सरकार के लिए बच्चों का भविष्य सर्वोपरि है। अयोग्य शिक्षकों को अनिवार्य सेवानिवृत्ति देना छात्र हित में आवश्यक था। ताकि भविष्य में सकारात्मक संदेश जाए।
पहली नजर में यह बात बिल्कुल वाजिब लगती है कि जो शिक्षक खुद ही परीक्षा में पास होने की योग्यता नहीं रखते तो वो अपने विद्यार्थियों को क्या खाकर इस लायक बनाएंगे? चूंकि ये शिक्षक सेवा में हैं, इसलिए उन्हें दरियादिली दिखाते हुए किताब पढ़कर ( जिसे आम भाषा में नकल कहते हैं और जो एक गंभीर अपराध है) जवाब लिखने की खास सुविधा दी जाती है। लेकिन कई शिक्षक नकल करके भी पास नहीं हो सके।
ऐसे कुछ शिक्षकों का कहना था कि दक्षता परीक्षा में दिए गए प्रश्नपत्र उस एनसीईआरटी कोर्स के आधार पर बनाए गए, जो राज्य के सरकारी स्कूलों में लागू ही नहीं है। लेकिन ये दलील इसलिए बोदी है कि कोर्स चाहे एनसीईआरटी का हो या एससीईआरटी का, बुनियादी बातें तो वहीं होती है।
अगर ये शिक्षक वो बेसिक बातें भी नहीं जानते तो शिक्षक बने ही क्यों हुए हैं? क्यों इन्हें सरकार ने नौकरी में क्यों रखा हुआ है? जब ये स्वयं पास नहीं हो पाते तो इन्हें किस योग्यता के आधार पर शिक्षक नियुक्त किया गया था?
लेकिन यहां कुछ पेचीदा सवाल अध्यापनरत शिक्षकों के दक्षता मूल्यांकन पद्धति पर को लेकर है।
पहला तो यह कि क्या शिक्षकों का मूल्यांकन भी विद्यार्थियों की तर्ज पर यानी परीक्षा में अर्जित अंकों के आधार पर करना न्यायोचित है? क्या शिक्षक फिर से विद्यार्थी बन सकता है? क्या आईएएस जैसी कठिन परीक्षा पास कर आला अफसर बना व्यक्ति यदि 10 साल बाद उसी परीक्षा में बैठे तो कितने लोग होंगे, जो उसे सफलता से उत्तीर्ण कर पाएंगे?
इसके पीछे हकीकत यह है कि किसी प्रतियोगिता परीक्षा का स्वरूप और उसके तकाजे व्यावहारिक जीवन की परीक्षा से नितांत अलग और भिन्न प्रकृति के होते हैं। एक अच्छा और सफल शिक्षक होना तथा एक अच्छा विद्यार्थी बनकर परीक्षा में अधिकाधिक अंक लाना दो अलग-अलग बातें और चुनौतियां है।
हो सकता है, जो शिक्षक अच्छा पढ़ाता है, उसके विद्यार्थी अच्छे अंक भी लाते हों, लेकिन वही शिक्षक स्वयं भी वैसे अंक लाकर दिखाए, यह जरूरी नहीं है। ठीक वैसे ही कि सचिन तेंडुलकर के गुरू स्वयं सचिन जैसा खिलाड़ी नहीं बन सकते, जबकि सचिन को गढ़ने में उनका ही सबसे बड़ा योगदान है।
दरअसल शिक्षक की दक्षता के मापदंड छात्र की दक्षता के मापदंड से अलग होने चाहिए। छात्र की दक्षता का आधार उसके द्वारा विभिन्न विषयों में अर्जित अंक और प्रेक्टिकल परीक्षा में खुद को प्रेजेंट करने की क्षमता से तय होगा, लेकिन अच्छा शिक्षक अपने विषय को कितनी कुशलता और सरलता से पढ़ा सकता है, यह उसकी दक्षता का मापदंड होगा।
शिक्षा क्षेत्र के जानकारों के अनुसार किसी भी शिक्षक की अध्यापन दक्षता के मापदंडों में कई बिंदु शामिल हो सकते है। मसलन क्लास को मैनेज करने की क्षमता, छात्रों में आत्मविश्वास जगाने की कूवत, शिक्षा को लक्ष्योन्मुखी बनाने की काबिलियत, कक्षा में बच्चो को पढ़ाने से पहले खुद पूरी तैयारी से क्लासरूम में आने की आदत, अपने विषय की गहरी समझ, विद्यार्थियों में उच्च आकांक्षा जगाने तथा विद्यार्थियों पर अपनी छाप छोड़ सकने की क्षमता ही किसी अच्छे शिक्षक का सही मापदंड होना चाहिए। न की दक्षता परीक्षा में अर्जित अंक।
आजकल अमेरिका में शिक्षकों की दक्षता के मूल्यांकन के लिए ‘वेल्यू एडेड माॅडलिंग’ ( वेम) सिस्टम काफी प्रचलित है। जिसमें शिक्षक की दक्षता को कई कोणों से परखा जाता है न कि अकेले छात्रों द्वारा अर्जित अंको या स्कूल के पास फेल की संख्या के आधार पर।
इन सब बातों का आशय यह कतई नहीं है की अयोग्य शिक्षकों को ढोया जाए। जो शिक्षक दक्षता परीक्षा में पास होने लायक अंक भी नहीं ला पा रहे हैं, उनकी नियुक्ति किसने और क्या देख कर की थी, इसकी भी जांच होनी चाहिए। अगर शिक्षा विभाग में भर्ती खाता चल रहा है तो कितनी ही दक्षता परीक्षाएं क्यों न आायोजित हों, कितने ट्रेनिंग प्रोग्राम क्यों न चलें, कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं है।
इसका अर्थ नहीं है कि सारे शिक्षक ही अयोग्य हैं। कई ऐसे शिक्षक भी हैं, जिन्होने अध्यापन को अपने जीवन का मिशन बना लिया है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि आज ज्यादातर सरकारी स्कूल राजनीति के अड्डों में ज्यादा तब्दील हो गए हैं। तबादले, नियुक्तियां और पदोन्नतियां भी इसी आधार पर ज्यादा होने लगी हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में आए दिन होने वाले बेतुके प्रयोग और शिक्षा का मूल उद्देश्य दरकिनार होने से भी सरकारी स्कूलों का रिजल्ट गिर रहा है। इसके लिए शिक्षक अकेले दोषी नहीं है, बाकी व्यवस्था भी जिम्मेदार है। अच्छी बात केवल यह है कि स्कूली शिक्षा विभाग आत्मावलोकन कर तो रहा है। वरना सरकारी तंत्र में ऊपर के लेवल पर खूब डंडे फटकारे जाते हैं, जमीन पर सुई भी मुश्किल से सरकती है।
वरिष्ठ संपादक
अजय बोकिल