कश्मीर मसले पर बात करते वक्त दिल्ली में बैठे हुक्मरानों को समझना चाहिए कि पड़ोसी को नज़रअंदाज़ कर के आगे नहीं बढ़ सकते. अटल जी ने कहा था, दोस्त बदल सकते हैं, पड़ोसी तो नहीं बदल सकते. उसके साथ आपको हर वक्त डील करना है. वो भी जानते हैं कि वो आपका कश्मीर नहीं ले सकते और आप भी जानते हैं कि आप उनका कश्मीर नहीं ले सकते. तो फिर झगड़ा किस बात का? वे क्यों नहीं आगे आ कर स्टेकहोल्डर्स से बात करते हैं?

गिलानी अपनी लाइन से हटेंगे नहीं, लेकिन हम तो चाहते हैं कि आप उनकी लाइन को समझते रहिए, लेकिन दूसरों के साथ भी बात कीजिए. जहां तक जनमत संग्रह की बात है तो मेरा मानना है कि यह अभी संभव नहीं है. जनमत संग्रह किस बात पर हो? क्या पाकिस्तान पीओके और उत्तरी क्षेत्र से अपनी फौज निकालेगा? सवाल इस बात का है कि उनको भी तो दिमाग़ ठीक करना चाहिए.

बात करने से ही कोई रास्ता निकलेगा. अगर बात करने के बग़ैर रास्ता निकलना होता, तो वाजपेयी क्यों बात शुरू करते. आप पहले ही कह देंगे कि बात संभव ही नहीं है, तब तो यह मसला ऐसे ही रह जाएगा. बात शुरू तो हो. हो सकता है कि 10 मुद्दों पर एक राय नहीं बने लेकिन एक-दो मुद्दों पर तो बात हो सकती है. रास्ता तो ऐसे ही निकलेगा.

जितना दबाएंगे उतना ही ओपोजिट रिएक्शन होगा
आज तो कश्मीर में ऐसा लग रहा है कि यहां कोई हुकूमत ही नहीं है. 10-12 हज़ार से ज्यादा बच्चे और बूढ़े जेलों में बंद हैं. क्या 70 साल का बूढ़ा पत्थर मारेगा? लेकिन उन्हें भी जेल में बंद रखा गया है.

उनकी तो ये मंशा है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस को भी बंद करो. लेकिन मैं पूछना चाहता हूं, क्या नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कभी बंदूक़ और पत्थर उठाई है? सरकार भी आज उसी खून-़खराबे में शामिल हो गई जो 90 के दशक में शुरू हुआ था. इसलिए मैंने अपने पार्टी वर्कर्स से कहा कि हुर्रियत के साथ खड़े हो जाओ, जो होगा हम सबका होगा. ये तो परेशान हो गए कि ये क्या हो गया? असल में दिल्ली ने हमें हमेशा बांटा है.

दिल्ली ने कश्मीर में हमेशा बांटो और शासन करो की नीति अपनाई है. हमें यहां के लोगों से बात करके, उन्हें विश्वास में लेकर कदम बढ़ाना चाहिए. सबकी ओपिनियन अलग-अलग हो सकती है. सबकी अपनी परेशानियां भी हैं. उमर फारूक़ की अपनी मुश्किलें हैं. यासीन मलिक केवल आज़ादी के मसले पर आपसे बात कर सकते हैं. लेकिन वे रेबेल नहीं हैं. कश्मीर को लेकर हमें एक तरह से बात कर के मसले को आगे बढ़ाना होगा.

हिंदुस्तान को समझना चाहिए कि कश्मीर को वे जितना दबाएंगे उतना उसका ओपोजिट रिएक्शन होगा. लोगों को आप मार काट कर, उन्हें दबाकर अपनी बात नहीं मनवा सकते हैं. मैंने पहले ही आशंका जताई थी कि यहां अंदर ही अंदर उबाल है और ईद से पहले कुछ होने वाला है. बुरहान वानी तो स़िर्फ एक चिंगारी थी. असली कारण तो वही है, जो चला आ रहा है.

मैं तो यही कहूंगा कि जो हो गया, सो हो गया, अब आगे की बात सोची जाय. मुल्क को बचाना है या मुल्क को तबाह करना है, यह अब दिल्ली को सोचना है. एक बड़ी समस्या यह है कि कोई भी बात कर रहा है तो उसपर एंटीनेशनल और पाकिस्तानी का लेवल लगा देते हैं. अब ज़रूरत है कि इन ज़ख्मों पर मरहम लगाया जाए. लोगों को लगना चाहिए कि आप उनके दुश्मन नहीं हैं. जब तक ये नहीं होगा तब तक आप कुछ भी कर लीजिए कश्मीर शांत नहीं होगा.

वे लोग समझते हैं कि अब स्कूल भी खुल जाएंगे, अब ट्रैफिक भी चल रहा है. वे नहीं समझ रहे कि जाड़े के बाद ये सब फिर से शुरू हो जाएगा. फिर आप क्या करोगे? कहा जा रहा है कि डिमोनेटाइजेशन के बाद यहां पैसा आना बंद हो गया इसलिए मिलिटेंसी खत्म हो गई. बेवक़ू़फ हैं वे लोग जो ऐसा कह रहे हैं. अगर यहां इतनी ब्लैक मनी थी तो फिर लोग लाइन में क्यों नहीं नजर आ रहे हैं.

ब्लैक मनी को जमा कराने के लिए तो लोगों को लाइन में लगना चाहिए था न. आज यहां बैंकों को लूटा जा रहा है. जब काला पैसा ही होता तो बैंकों को क्यों लूटते? बताइए कहां है ब्लैक मनी? जहां ब्लैक मनी है, जहां ब्लैक मनी की एक समानांतर इकोनोमी चल रही है, उसे तो ये पकड़ नहीं पा रहे. वैसे भी हमारे लोग पहाड़ों पर रहते हैं, वहां कोई बैंक नहीं है, कोई एटीएम नहीं है. हमारे यहां ज्यादातर ट्रांजैक्शन कैश में होता है. आप कुछ भी नहीं कर सकते.

अगर एटीएम से पैसे निकालते भी हैं, तो स़िर्फ दो हज़ार रुपये ही मिलेंगे. आप कहते हैं कि अब मोबाइल इस्तेमाल करो. मेरे पास फोन है, मैं इस्तेमाल करता हूं. लेकिन उसके लिए हज़ारों रुपए का फोन कौन लेगा. यहां तो वैसे भी साधारण मोबाइल नहीं चलता. एयरटेल कनेक्टिविटी के लिए कई सारे नियम-क़ानून हैं. अब जियो आया है. जियो का तो टावर ही नहीं है. दूसरों से टावर उधार लिया है.

बॉर्डर को सॉफ्ट किया जाए
आज तो कश्मीर में महबूबा कुछ नहीं हैं. क्या ऐसा हो सकता है कि मुख्यमंत्री किसी को मुआवज़ा दे और सहयोगी पार्टी शोर मचाने लगे. महबूबा ने बुरहान के भाई को मुआवज़ा दे दिया, उसपर भी भाजपा ने हल्ला मचा दिया.

एक हैं राम माधव. इन्होंने तो कश्मीर का बेड़ा ग़र्क़ कर दिया, अब हिंदुस्तान को भी जलाकर ही छोड़ेंगे. इस तरह से आप कश्मीर को हल नहीं कर सकते बल्कि मसला और उलझता जाएगा. हमारी मुसीबत ये है कि ऐसे लोग बैठे हुए हैं जो हिंदुस्तान का बेड़ा ग़र्क़ करना चाहते हैं. वे हिंदुस्तान को समझ ही नहीं पा रहे हैं.

बच्चों को गिरफ्तार कर अंदर कर के आप कश्मीर समस्या का समाधान नहीं कर सकते. एक ही रास्ता है कि इस पार और उस पार दोनों तऱफ ऑटोनोमी मिले और बॉर्डर को सॉफ्ट किया जाए. जब यशवंत सिन्हा आए तो एक आशा जगी कि इन लोगों में कोई है जो कश्मीर की भलाई सोच रहा है.

वे देख रहे हैं कि यहां जो हो रहा है वह गलत हो रहा है. हमें भी लगा कि वे कश्मीर मसले का रास्ता ढूंढ़ना चाहते हैं. अबकी बार जब वे दूसरी द़फा तशरी़फ लाए तो ये हुआ कि इस बार वे बारामूला भी जा सके, अनंतनाग भी जा सके.

वे सभी स्टेक होल्डर्स और सभी लोगों से मिले. वे हममें भी एक आशा जगा गए. लेकिन अ़फसोस कि प्रधानमंत्री तो यशवंत सिन्हा को सुनना नहीं चाहते हैं. तीन पत्रकार आए, उन्होंने लोगों से बात की, उन्होंने सही तरह से कश्मीर की समस्या को रखा. जो पार्लियामेंट्री डेलिगेशन आया था, उन्हें गृह मंत्री के मा़र्फत आना चाहिए था, तब हो सकता है कि ये उनसे बात करते.

तब नौबत नहीं आती कि ये दरवाज़ा नहीं खोलते. भाजपा कह रही है कि अब इन्हें रिकॉग्नाइज नहीं करते. अभी तक तो आप इन्हें रिकॉग्नाइज करते थे और अब अचानक इन्हें साइड कर दिए. आज तक तो आप आईबी के जरिए पैसा देते रहे हैं इनको. मैं जानता हूं न. मेरे मुख्यमंत्री रहते हुए भी आईबी के जरिए पैसे पहुंचाए जाते थे.

बिना शर्त बातचीत हो

मैं हमेशा बातचीत के पक्ष में रहा हूं. हम बातचीत के माध्यम से किसी नतीजे पर पहुंच सकते हैं, लेकिन जब बात ही नहीं होगी तो फिर मसला तो वहीं का वहीं रह जाएगा. यहां के लोग क्या सोचते हैं, यह जानना बहुत ज़रूरी है. आप जब तक लोगों के हक में कोई काम नहीं करेंगे, उनकी आवाज़ नहीं सुनेंगे, आप उनका समर्थन नहीं ले सकते.

आप अपना राष्ट्रीय हित देखिए लेकिन वह यहां के लोगों की जान की क़ीमत पर तो नहीं हो सकती. मोदी जी जो समझते हैं कि आहिस्ता-आहिस्ता ये सब ठीक हो जाएगा, तो इस तरह से तो नहीं हो पाएगा, जैसे सरकार करना चाह रही है.

ये अपने टर्म-कंडीशंस पर बात करना चाहते हैं. ये इंदिरा गांधी के नक्शे कदम पर चल रहे हैं. ये सोच रहे हैं कि परिस्थितियां इनके अनुरूप बनेंगी. लेकिन ऐसा तो नहीं हो सकता न. एक ग़लत़फहमी इंदिरा गांधी ने पाल रखी थी. उन्होंने सोचा था कि शेख अब्दुल्ला बहुद जल्दी मर जाएगा और हम मनमाने ढंग से इसका रास्ता निकाल लेंगे.

लेकिन ऐसा हुआ नहीं. इंदिरा को तो पता भी था कि अगर एक बार आग लग जाएगी कश्मीर में, तो उसे बुझाना मुश्किल होगा. नरसिम्हा राव ने संसद में कहा था, जहां तक ऑटोनॉमी की बात है, स्काई इज द लिमिट लेकिन आजादी नहीं. हमने कहा, हम तो आज़ादी मांगे ही नहीं. मैंने कहा कि अगर हमारी मांग में कुछ भी संविधान के विरुद्ध है, तो बताइए.

मोदी जालंधर और अमृतसर में तक़रीर करते हैं और कहते हैं कि हम पाकिस्तान का सारा पानी रोकने वाले हैं और जिन नदियों का उन्होंने नाम लिया वे हैं, सतलज, रावी और व्यास. जो निस्संदेह भारत के हैं. साथ ही झेलम, सिंध और चिनाब ये भी हमारे ही हैं. मुझे तो शर्म महसूस हुई कि प्रधानमंत्री ने इंडस वाटर ट्रीटी को समझा ही नहीं है. हम तो चिनाब पर बांध भी नहीं बना सकते हैं, जब तक उनके इंजीनियर नहीं आते और नहीं देखते. पूरे कश्मीर को सर्वाइव करना पड़ेगा.

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