पिछले दिनों भाजपा के राज्य सभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने अहमदाबाद में चार्टर्ड अकाउंटेंटस के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए सरकार पर एक बड़ा आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन (सीएसओ) के आला अफसरों पर दबाव बनाकर सरकार ने जीडीपी के गलत आंकड़े पेश करवाए हैं, ताकि यह साबित किया जा सके कि नोटबंदी से अर्थव्यवस्था पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा. कार्यक्रम में स्वामी ने जीडीपी के तिमाही आंकड़ों को बोगस और ग़लत बताया. स्वामी ने कहा कि वो अर्थव्यवस्था को लेकर चिंतित हैं और जानते हैं कि इसका (नोटबंदी) प्रभाव पड़ा है. फिर उन्होंने सीएसओ के निदेशक से अपनी मुलाक़ात का हवाला दिया है और यह दावा किया है कि सीएसओ के निदेशक ने मोदी सरकार के दबाव के चलते ये आंकड़े देश के सामने रखे. उन्होंने मूडीज और फ्लीच जैसी रेटिंग संस्थानों की विश्वसनीयता पर भी भी सवाल उठाए. इन संस्थानों के बारे में उन्होंने कहा कि कोई भी पैसे देकर उनसे कैसी भी रिपोर्ट तैयार करवा सकता है.
आंकड़े ज़मीनी हकीकत से दूर
दरअसल सुब्रमण्यम स्वामी नोटबंदी के सन्दर्भ में जीडीपी के आंकड़ों पर सवाल उठाने और उसे ख़ारिज करने वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं. उन से पहले राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विशेषज्ञ इन आंकड़ों पर सवाल उठाते रहे हैं. सबसे पहला सवाल तो उसी वक़्त उठा था जब सरकार ने अक्टूबर से दिसम्बर 2016 की तिमाही में भारत का विकास दर 7 प्रतिशत बताया था. जिस समय देश नोटबंदी के बाद नकदी की कमी से जूझ रहा था, वैसे समय में यह दावा किसी के गले नहीं उतर रहा था. गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 8 नवम्बर को नोटबंदी की घोषणा की थी जिसमें 500 और 1000 रुपए के नोट वापस ले लिए गए थे. नतीजतन देश में प्रचलित 86 प्रतिशत नोट बेकार हो गए थे. उस दौरान सीएसओ के आंकड़े बता रहे थे कि निजी खपत की रफ़्तार 10.1 प्रतिशत दिखाई गई थी जो पिछली तेमाही से दोगुना थी. नोटबंदी के दौरान बाज़ार में आई मंदी को देखते हुए ये आंकड़े किसी भी तरह से दुरुस्त नहीं लगते थे. इसमें यह भी दावा किया गया था कि पिछले तीन तिमाही की लगातार कमी के बाद इस तिमाही में प्लांट और मशीनरी में 3.5 प्रतिशत इजाफा हुआ, लेकिन कमर्शियल वाहनों की बिक्री, सीमेंट प्रोडक्शन में कमी और रियल एस्टेट की स्थिति सा़फ बताती थी कि निवेश प्रभावित हुआ था.
वर्ष 2016-17 की तीसरी तिमाही में 7 प्रतिशत विकास दर पर प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक का कहना था कि सीएसओ ने विकास दर को बेहतर देखने के लिए वृद्धि दर की गणना के आधार को संशोधित किया. उन्होंने भी सीएसओ यह आरोप लगाया था कि आधार में बदलाव सरकार के इशारे पर किया गया था. इस बुनियाद पर सरकार दावा कर रही है कि अर्थव्यवस्था पर नोटबंदी का कोई कुप्रभाव नहीं पड़ा. वर्ष 2017-18 की पहली तिमाही में वृद्धि दर 5.7 प्रतिशत हो गई थी, जो दूसरी तिमाही में 6.3 प्रतिशत हो गई थी. यानी सरकार के नोटबंदी के फैसले पर सवाल उठाना ठीक नहीं है. ज़ाहिर है इस वृद्धि दर को मीडिया के जरिए खूब प्रचारित किया गया और उसे मोदी सरकर की उपलब्धि करार दी गई. जब दूसरी तिमाही के नतीजे आये तो उस समय गुजरात और हिमाचल में चुनाव हो रहे थे, जिसका फायदा भाजपा को हुआ.
क्रेडिट रेटिंग की विश्वसनीयता
सुब्रमण्यम स्वामी ने मूडीज और फ्लीच जैसी रेटिंग संस्थानों को भी कठघरे में खड़ा कर दिया. उन्होंने कहा कि इन संस्थानों को पैसे देकर मनमानी रेटिंग हासिल की जा सकती है. इस संदर्भ में अमेरिकी क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज इन्वेस्टर सर्विस द्वारा 13 साल बाद भारत की सॉवरन क्रेडिट रेटिंग बीएए3 से बढ़ाकर बीएए2 किया जाना दिलचस्पी से खाली नहीं है. क्योंकि रेटिंग में सुधार के ़फौरन बाद प्रधानमंत्री कार्यालय से टि्वट कर मूडीज के ताजा रिपोर्ट का स्वागत किया. वित्त मंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस कर अपनी सरकार की आर्थिक सुधर नीतियों खास तौर पर जीएसटी और नोटबंदी की तारीफ की. विपक्ष दल कांग्रेस ने भी रैंकिंग सुधार के लिए अपनी पीठ थपथपाई. पूर्व वित्त मंत्री पी चिदम्बरम ने मूडीज द्वारा भारत की रैंकिंग में इजाफे का अधिक श्रेय यूपीए सरकार द्वारा सात-आठ साल पहले किए गए कार्यों को दिया.
हालांकि चिदंबरम ने यह भी कहा कि सरकार ने पांच महीने पहले मूडीज की रैंकिंग की पद्धति पर सवाल उठाते हुए एक पत्र लिखा था और उनकी पद्धति को बेकार बताया था. एक साल पहले रायटर्स ने एक खुलासा किया था कि उस समय मोदी सरकार ने अपनी अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में सुधार के लिए मूडीज के साथ लॉबीइंग की थी. उस खुलासे में कहा गया था कि भारत ने मूडीज की रैंकिंग की प्रणाली की आलोचना की थी और अपनी ग्रेडिंग सुधारने की ज़ोरदार वकालत की थी, लेकिन मूडीज ने देश की ऋण स्तर और बैंकों की नाजुक स्थिति को देखते हुए ऐसा नहीं किया था. ये तथ्य स्वामी के आरोपों को पुख्ता करते हैं और इनसे ज़ाहिर होता है कि मूडीज की रैंकिंग में लॉबीइंग की गुंजाइश रहती है. रैंकिंग संस्थाओं की विश्वसनीयता से सम्बंधित कुछ और तथ्य हैं जो संदेह पैदा करते हैं.
पिछले वर्ष जनवरी में मूडीज ने सबप्राइम मौरगेज सिक्योरिटीज क्रेडिट मामले को कोर्ट से बाहर सुलझाने के लिए अमेरिकी अधिकारियों के साथ 864 मिलियन डॉलर का समझौता किया. अमेरिकी एजेंसीज की तरफ से यह आरोप था कि मूडीज ने 2008 के वित्तीय संकट के दौरान अपनी रेटिंग में पारदर्शिता नहीं रखी थी. उसी तरह एक दूसरी क्रेडिट संस्था स्टैंडर्ड्स एंड पूअर्स को 2015 में मौरगेज सिक्योरिटीज क्रेडिट के मामले में 77 मिलियन डॉलर का मुआवजा देना पड़ा और एक साल के लिए अपनी रेटिंग स्थगित करनी पड़ी. मूडीज द्वारा भारत की रैंकिंग बढ़ाने का फैसला तात्कालिक स्थिति को ध्यान में रख कर नहीं बल्कि भविष्य की आशा के साथ किया गया था.
सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा क्रेडिट एजेंसीज पर लगाए गए आरोप पर इस बात से और बल मिलता है कि जीडीपी के बारे में उसने वही बातें कहीं हैं, जो सरकार की तरफ से कही जा रही हैं. उसका कहना है कि सरकार द्वारा किए गए सुधारों के प्रभाव सामने आने में समय लगेगा और जीएसटी और नोटबंदी ने अल्पकालिक तौर पर विकास को नुकसान पहुंचाया है.
अब सवाल यह उठता है कि आखिर आंकड़ों की बाजीगरी से सरकार को क्या फायदा है. दरअसल इसका जवाब जीडीपी और अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसीज की रेटिंग के बाद सरकार, विपक्ष और मडिया की प्रतिक्रिया में छुपा हुआ है. जब मूडीज की रेटिंग सार्वजनिक हुई थी तो उसे मीडिया ने बड़े ज़ोर-शोर से उठाया था और उसे मोदी सरकार की उपलब्धि कहा था. यह तक कहा गया कि रैंकिंग में सुधार से देश में विदेशी निवेश के दरवाज़े खुल जायेंगे. लेकिन प्रधानमंत्री के ताबड़तोड़ विदेश दौरों और करोड़ों के निवेश के वादों के बावजूद ज़मीनी स्तर पर देश में कोई खास निवेश आता नहीं दिखाई दिया. दूसरे यह कि रेटिंग एजेंसीज पर रैंकिंग में पारदर्शिता नहीं बरतने के कारण पूर्व में जुर्माना भी देना पड़ा है.
हालांकि यह कहा जा सकता है कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए और वित्त मंत्री अरुण जेटली को घेरने के लिए सुब्रमण्यम स्वामी इस तरह का बयान दे रहे हों, लेकिन जो तथ्य सामने हैं वो उनके आरोपों की पुष्टि करते दिख रहे हैं. अंत में यह कहा जा सकता है कि आंकड़ों की बाजीगरी सरकार की इमेज सुधारने में सहायक तो हो सकती है, लेकिन अर्थव्यवस्था के लिए फायदेमंद नहीं हो सकती.