लेबर पार्टी को पिछली बार के मुकाबले में 26 सीटों का नुक़सान उठाना पड़ा. उसे केवल 232 सीटें मिल सकीं. एड मिलिबंड को पार्टी के नेता पद से इस्ती़फा देना पड़ा, क्योंकि ब्रिटेन में जब कोई नेता चुनाव हार जाता है, तो वह उसके बाद पार्टी के नेता पद से चिपका नहीं रहता. लिबरल डेमोक्रेट्स (लिबडेम) का तो जैसे सफाया ही हो गया है. लेबेरल डेमोक्रेट्स पिछली कैमरन सरकार में हिस्सेदार थे. उनके पास 57 सीटें थीं, जिनमें से 49 सीटों पर उनकी हार हुई है. पार्टी के मुखिया निक क्लेग तो जीत गए, लेकिन लिबडेम के ज़्यादातर कैबिनेट मेंबर चुनाव हार गए हैं.
डेविड कैमरन को बहुत आसानी से कम करके आंका गया. जब मैं दिल्ली में था, तो मुझसे कहा गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फ्रांस और जर्मनी का दौरा किया, लेकिन वह ब्रिटेन नहीं गए, क्योंकि मोदी से कहा गया था कि कैमरन कामयाब नहीं हो पाएंगे. बहरहाल, मोदी दुनिया के उन नेताओं में से थे, जिन्होंने कैमरन को सबसे पहले बधाई दी. मतदान सात मई को 10 बजे शाम खत्म हुआ था. कुछ मिनटों के बाद टीवी स्क्रीन पर एग्जिट पोल नज़र आने लगे. एग्जिट पोल के नतीजे चौंकाने वाले थे. वे 2009 के भारतीय आम चुनाव के नतीज़ों की झलक पेश कर रहे थे. उनमें एक त्रिशंकु संसद की भविष्यवाणी की जा रही थी. गठबंधन की सभी संभावनाओं पर बहस हो रही थी. स्कॉटिश नेशनलिस्ट पार्टी के नेता निकोला स्टरजेन, जो अपनी पार्टी के चुनाव प्रचार के हीरो थे और जिनकी पार्टी ने स्कॉटलैंड की 59 में से 56 सीटों पर कामयाबी हासिल की, कह रहे थे कि अगर लेबर पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर नहीं भी उभरती है या दूसरे नंबर की पार्टी रहती है, तो भी वह उसके साथ मिलकर सरकार बना लेंगे. लेकिन, सभी चुनाव सर्वेक्षण ग़लत साबित हुए. वे कह रहे थे कि दो प्रमुख पार्टियों, लेबर पार्टी और कंजरवेटिव पार्टी के मत प्रतिशत 34-35 के आसपास होंगे, उनकी सीटें 285-275 के आसपास होंगी, लेकिन कंजरवेटिव पार्टी को बढ़त हासिल होगी. हमें मालूम था कि स्कॉटिश नेशनलिस्ट पार्टी (एसएनपी) को 45 सीटें मिलेंगी. पिछली बार उसे छह सीटें मिली थीं. इसका अर्थ यह होगा कि लेबर पार्टी, जिसे पिछले चुनाव में कुल 258 सीटों में से 41 सीटें स्कॉटलैंड से मिली थीं, को स्कॉटलैंड में हार का सामना करना पड़ा और 41 सीटों की भरपाई उसे इंग्लैंड एवं वेल्स से करनी थी, जो अंतत: एक कठिन कार्य साबित हुआ.
लेबर पार्टी को पिछली बार के मुकाबले में 26 सीटों का नुक़सान उठाना पड़ा. उसे केवल 232 सीटें मिल सकीं. एड मिलिबंड को पार्टी के नेता पद से इस्ती़फा देना पड़ा, क्योंकि ब्रिटेन में जब कोई नेता चुनाव हार जाता है, तो वह उसके बाद पार्टी के नेता पद से चिपका नहीं रहता. लिबरल डेमोक्रेट्स (लिबडेम) का तो जैसे सफाया ही हो गया है. लेबेरल डेमोक्रेट्स पिछली कैमरन सरकार में हिस्सेदार थे. उनके पास 57 सीटें थीं, जिनमें से 49 सीटों पर उनकी हार हुई है. पार्टी के मुखिया निक क्लेग तो जीत गए, लेकिन लिबडेम के ज़्यादातर कैबिनेट मेंबर चुनाव हार गए हैं. निक क्लेग ने भी पार्टी प्रमुख के पद से त्यागपत्र दे दिया है. दरअसल, यह डेविड कैमरन थे, जिन्होंने सबको आश्चर्यचकित कर दिया. उनकी पार्टी ने न केवल सबसे अधिक सीटों पर जीत हासिल की, बल्कि सदन में बहुमत का आंकड़ा भी पार कर लिया. इसमें एक बार फिर भारत के 2014 के आम चुनाव की झलक देखी जा सकती है. 650 में से 331 सीटों पर कामयाबी हासिल करके कैमरन ने अपने आलोचकों का मुंह बंद कर दिया. उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के शुरुआती दौर में ही घोषणा कर दी थी कि वह तीसरे कार्यकाल के लिए चुनाव नहीं लड़ेंगे, जिस पर उनकी खूब खिल्ली उड़ाई गई. लेकिन, उन्होंने वह कारनामा कर दिखाया, जिसकी मिसाल ब्रिटेन में बहुत ही कम है. उन्होंने लगातार दो चुनाव जीते. उनसे पहले थैचर एवं ब्लेयर यह कारनामा कर चुके हैं. लेकिन, इन तीन को छोड़कर 20वीं सदी में किसी को यह कामयाबी नसीब नहीं हो सकी.
मोदी और कैमरन के बीच बहुत सारी समानताएं हैं. दोनों रणनीतिकार हैं और वे विशेषज्ञों से सलाह लेने में भी गुरेज़ नहीं करते. ऑस्ट्रेलिया के चुनाव विशेषज्ञ लिंटन क्रोसबी ने कैमरन के चुनाव प्रचार को दिशा दी. मिलिबंड के साथ प्रत्यक्ष बहस में हिस्सा लेने से कैमरन को रोकने के लिए क्रोसबी की बहुत आलोचना भी हुई. मिलीबंड ने भी हज़ारों पौंड खर्च करके अमेरिकन सलाहकार डेविड अक्सेल्र्रोड की सेवाएं हासिल की थीं, लेकिन क्रोसबी की बुद्धिमता ने कैमरन को पुन: सत्ता तक पहुंचा दिया. लेकिन, कंजरवेटिव्स कैसे जीत गए? 2010 में उन्होंने मतदाताओं से कहा था कि आने वाले दिन मुश्किलों से भरे हुए हैं. राजस्व घाटा ऊंचे स्तर पर था और क़र्ज़ बढ़ता जा रहा था. राजकोष के चांसलर जॉर्ज ओस्बोर्न ने घाटा कम करने के लिए कठोर क़दम उठाए थे. इसकी वजह से जो मुश्किलें पेश आईं, उसके लिए उनकी भरपूर आलोचना हुई. आ़िखरकार, वह राजकोषीय घाटे को 10 प्रतिशत से 5 प्रतिशत ही कर सके, लेकिन वह कभी रुके नहीं और न उन्होंने मतदाताओं को रिश्वत देने के लिए कोई अल्पकालिक समझौता किया. अर्थव्यवस्था ने चौथे साल में संभलना शुरू कर दिया और अब तो यह जी-7 के देशों में सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है. मतदाताओं ने कंजरवेटिव्स के फैसले की स्पष्टता को सराहते हुए उन्हें उसका इनाम दिया. इसमें अगर भारत के लिए कोई सबक है, तो वह यह है कि मतदाताओं को खुश करने के बजाय एक अनुशासनात्मक आर्थिक नीति को तरजीह देनी होगी. जो पार्टी अलोकप्रिय होने की चिंता छोड़कर बेलाग सच बोलने से परहेज़ नहीं करेगी, वही अंत में लोगों का समर्थन हासिल करेगी. किसी अर्थव्यवस्था से दीर्घकालिक संरचनात्मक कमजोरियां खत्म करने के लिए एक नेता को अल्पकालिक तौर पर कुछ अलोकप्रिय फैसले लेने पड़ते हैं.