मेरे जीवन के बेशक़ीमती 11 साल 3 महीने 26 दिन कौन लौटाएगा? यहां सब कुछ बदल चुका है. जेल से रिहा होने के बाद घर जाते हुए मुझे लग रहा था कि घर पर मेरे माता-पिता और भाई-बहन सब मेरा इंतेज़ार कर रहे होंगे. मैं अपनी मां से मिलने के लिए बेताब था. मैं अभी घर से कुछ दूरी पर था, उस समय मेरी नज़रें मेरी मां को तलाश रही थीं.
घर के क़रीब पहुंचने पर देखा कि दरवाज़े पर एक बेहद कमजोर, लाचार बूढ़ी औरत खड़ी है. मैंने सोचा कि यह मोहल्ले की कोई वृद्ध होगी. मैं जैसे ही अपने घर की ओर बढ़ा, दरवाज़े पर खड़ी वही बूढ़ी औरत बेटा-बेटा कहकर मेरे गले से लिपट गई और फूट-फूट कर रोने लगी. तब मुझे पता चला कि यह कोई और नहीं बल्कि मेरी मां हैं. उस समय मुझे अहसास हुआ कि इन 12 वर्षों ने मेरे जीवन से बहुत कुछ छीन लिया है.
जिस मां को मैं स्वस्थ और तंदरुस्त छोड़ कर गया था, वो अब एक ढांचे में बदल चुकी है. एक तो मेरे बिछड़ने का गम और फिर फालिज के हमले ने रही-सही कर पूरी कर दी. इसी प्रकार बाप को भी बेटे से बिछड़ने के ग़म ने दिल का मरीज़ बना दिया. गिरफ्तारी से केवल दो महीने पहले मेरे गॉलब्लाडर का ऑपरेशन हुआ था. मैं खुद भी शारीरिक रूप से बहुत कमज़ोर था. फिर भी किसी प्रकार अपने कश्मीरी पारंपरिक ऊनी शॉल के कारोबार को आगे बढ़ा रहा था, लेकिन अब सब कुछ बिखर चुका है. मेरे माता-पिता जिन समस्याओं और बीमारियों का शिकार हुए, क्या कोई वह घाव भर सकता है?’
‘चौथी दुनिया’ को यह दर्दनाक कहानी सुनाते-सुनाते 43 वर्षीय मोहम्मद हुसैन फाज़ली की आवाज़ भरमरा गई. फिर उन्होंने साहस जुटाते हुए अपनी कहानी के शेष हिस्से को बताया. ‘21 नवंबर 2005 के उस लम्हे को मैं कभी नहीं भुला सकता. रात के लगभग 8 बजे ईशा की नमाज़ के बाद मैं अपने घर में शॉल बुन रहा था कि अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई. पुलिस की एक टीम ने यह कहते हुए कि दिल्ली धमाकों के सिलसिले में पूछताछ करनी है, मुझे अपनी साथ ले गई. मुझे दो-तीन दिनों तक कार्गो इन्वेस्टिगेशन में रखा गया और फिर आगे की पूछताछ के लिए दिल्ली पुलिस मुझे अपने साथ ले गई.
पौने दो महीने तक पुलिस कस्टडी में रहते हुए मुझे तरह-तरह की पीड़ाओं का सामना करना पड़ा. फिर मुझे तिहाड़ जेल भेज दिया गया. यहां शुरू के दिनों में मुझे बेहद खूंखार कैदियों वाले सेल में रखा गया. यहां रोज़ाना डेढ़ किलोमीटर तक झा़डू देना पड़ता था और गंदगी सा़फ करनी पड़ती थी. इस अवधि में परिवार वालों से कभी मुलाक़ात नहीं हुई.’ दर्दनाक और रोंगटे खड़े कर देने वाली यह कहानी, केवल मोहम्मद हुसैन ़फाज़ली की नहीं है. टाडा, पोटा और फिर 9/11 के बाद आतंकवाद के नाम पर गिरफ्तार होकर सबूतों की अभाव में अदालत से बरी किए गए ऐसे 100 बदनसीब युवाओं की लंबी सूची है, जिन्हें अपने निर्दोष होने की सज़ा भुगतनी पड़ी.
जेल में शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न बर्दाश्त करना पड़ा. अपने जीवन के क़ीमती साल इन्हें जेल में गंवाने पड़े, कितनों के मां-बाप खोए, मुक़दमे लड़ने में घरबार बिक गए, रिहाई के बाद समाज में मान-सम्मान भी नहीं रहा. अब सवाल यह है कि ऐसे निर्दोष और मासूम लोगों के जेल में ़बर्बाद हुए कीमती दिन कौन लौटाएगा? क्या उस गुनाह के लिए जो इन्होंने किया ही नहीं, जेल में बरसों गुज़ारने के बदले इन्हें हर्जाना भी मिलेगा? क्या इनका पुनर्वास भी होगा? ये वो सवाल हैं, जो भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में ज़हन को परेशान करते हैं.
‘चौथी दुनिया’ को फाज़ली से बातचीत के दौरान यह भी मालूम हुआ कि कश्मीर का कोई निर्दोष युवा रिहाई पाने के बाद अपने घर जाता है, तो वहां का समाज उसके साथ सहानुभूति और अपनेपन का इज़हार करता है, क्योंकि वहां सभी अपने आपको मज़लूम मानते हैं. जबकि देश के अन्य राज्यों में ये स्थिति नहीं है. 2012 में रिहा होने वाले मोहम्मद आमिर ने चौथी दुनिया को बताया कि जो दाग़ लग जाता है, उसका धुलना बहुत मुश्किल होता है. समाज उसे संदिग्ध नज़रों से देखता है. बहरहाल, ़फाज़ली के सामने अब सबसे बड़ी समस्या अपने कारोबार को फिर से संगठित करने की है. ़फाज़ली ने कहा, ‘मैं आपके अख़बार के माध्यम से बस यह इच्छा व्यक्त करना चाहता हूं कि जो निर्दोष लोग जेल या पुलिस हिरासत में मारे गए हैं, वेे तो मज़लूम बनकर इस दुनिया से चले गए, लेकिन जो ज़िंदा हैं, उनकी ज़िन्दगी की बहाली और रिहाई के लिए गंभीर प्रयास होने चाहिए.’
गौरतलब है कि अभी हाल ही में मोहम्मद हुसैन ़फाज़ली के साथ मोहम्मद ऱफीक़ शाह को 16 फरवरी 2017 को दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने बरी किया. 29 अक्टूबर 2005 को हिन्दुओं के भव्य पर्व दीवाली के समय दिल्ली के सरोजनीनगर मार्केट, पहाड़गंज और दक्षिणी दिल्ली में होने वाले सिलसिलेवार बम धमाकों के आरोप से कोर्ट ने इन्हें बरी किया. कोर्ट ने तीसरे आरोपी तारिक डार को 10 वर्ष की सज़ा सुनाई है. हालांकि डार पहले ही 11 वर्ष की सज़ा काट चुका है. इसलिए अदालत ने उसकी सज़ा को पूरा मान लिया. इन तीनों युवाओं का संबंध कश्मीर से है. मोहम्मद हुसैन ़फाज़ली को 21 नवंबर 2005 में जब गिरफ्तार किया गया, तो उस समय उनकी उम्र 31 वर्ष थी, जबकि अब उनकी उम्र 43 वर्ष हो चुकी है.
उनके साथ जेल में बंद होने वाले मोहम्मद ऱफीक़ शाह का भी यही हाल है. वे उस समय केवल 22 वर्ष के थे, जब उन्हें शक की बुनियाद पर गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल पहुंचा दिया गया. अब उनकी उम्र 34 वर्ष हो चुकी है. इनकी कहानी भी ़फाज़ली से कम दर्दनाक नहीं है. लगभग 12 वर्षों बाद निर्दोष साबित होने वाले गंदार ज़िले के मोहम्मद शाह ने भी ‘चौथी दुनिया’ को बताया, ‘21-22 नवंबर 2005 की अर्द्धरात्रि के लगभग पौने ग्यारह बजे स्पेशल सेल के लोग मेरे घर आए. तब मैं कश्मीर यूनिवर्सिटी में एमए अंतिम वर्ष का विद्यार्थी था. जिस समय पुलिस आई, मैं पढ़ाई कर रहा था. पुलिस मुझे वहां से यह कहकर ले गई कि पूछताछ के लिए ले जाया जा रहा है. वहां से मुझे कार्गो इन्वेस्टिगेशन में ले जाया गया और लगभग डेढ़ महीने तक पुलिस ने मुझे अपनी कस्टडी में रखा. इस दौरान एक आरोपी को जिस शारीरिक पीड़ा का सामना करना पड़ता है, वो तो मुझे सहना ही पड़ा, लेकिन सबसे बड़ी और पीड़ादायक बात यह थी कि कश्मीरी और मुसलमान होने के कारण पुलिस के ज़हरीले शब्द मेरे दिल को छलनी कर देते थे. इसके बाद मुझे तिहाड़ जेल भेज दिया गया, जहां मेरी जिंदगी के क़ीमती साल बर्बाद हो गए. वहां तीन-चार महीने पर मेरे माता-पिता मुझसे मिलने आया करते थे.’
शाह का कहना है कि रिहाई के बाद सबसे बड़ी परेशानी यह है कि मैं अपने माता-पिता का इकलौता बेटा हूं और सभी ज़िम्मेदारियां मुझे अकेले ही पूरी करनी हैं. मेरे पिता फॉरेस्ट में कर्मचारी थे, उन्हें जो पेंशन मिलती है, अब उसी पर गुज़र बसर होता है. मैं अपनी शिक्षा को जारी रखना चाहता हूं, लेकिन यह कैसे संभव होगा, ये मेरी समझ में नहीं आ रहा. उन्होंऩे यह भी बताया कि रिहाई के बाद यहां समाज ने मुझे बहुत प्यार दिया. इसका कारण यह है कि कश्मीर के सभी लोग खुद को पीड़ित समझते हैं और वे दूसरे पीड़ितों के दर्द को महसूस करते हैं. यही वजह है कि रिहाई के बाद से लोग मुझसे निरंतर मिलने आ रहे हैं और मुझसे हमदर्दी का इज़हार कर रहे हैं.
9/11 के बाद 2001 में सिमी पर प्रतिबंध लगाया गया और इसके बाद से देश में मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी का नया दौर शुरू हुआ. पुलिस इन्हें गिरफ्तार करती है, इनपर मुकदमे चलते हैं और फिर इनमें से बहुत से अपर्याप्त सबूत की बुनियाद पर रिहा हो जाते हैं. प्रसिद्ध पत्रकार और एंकर रवीश कुमार ने एक बार जमीअत उलेमा हिन्द के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी से पूछा कि आख़िर कब तक आप इन्हें छुड़ाते रहेंगे और पुलिस इन्हें जेलों में बंद करती रहेगी? तो मौलाना ने जवाब दिया कि हम मज़लूमों का हौसला बनाये रखने के लिए इस काम को जारी रखेंगे. निश्चित ही मौलाना और उन सभी संगठनों का काम सराहनीय है, जो इन निर्दोषों के लिए लड़ रहे हैं. लेकिन सवाल यह है कि गिरफ्तार किए गए नौजवान, जो नाका़फी सबूतों की बुनियाद पर रिहा कर दिए जाते हैं और जिसके बाद उनकी बाक़ी जिंदगी सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक रूप से नकारा बनकर रह जाती है, इसका सरकार के पास क्या हल है?
संसद में पेश की गई एक हालिया सरकारी रिपोर्ट के अनुसार विभिन्न राज्यों में आतंकवाद के आरोप में फंसे हुए युवाओं की संख्याक 1,151 है. ज़ाहिर सी बात है कि इन गिरफ्तार होने वालों में जो प्रभावशाली हैं, वे खुद अपने मुकदमे लड़ रहे हैं और जो ग़रीब हैं, वकीलों की फीस और अन्य खर्चे बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं, उनके मुक़दमों की अनुशंसा और सहयोग कई संगठन कर रहे हैं, जिनमें जमीअत उलेमा-ए-हिन्द (अरशद), जमीअत उलेमा हिन्द (महमूद), रिहाई मंच, मजलिस इत्तेहादुल मुस्लेमीन, एपीसीआर और कुछ अन्य संगठनों के नाम शामिल हैं. इन संगठनों के प्रयासों से अब तक सैंकड़ों युवाओं की रिहाई हो चुकी हैं. जिनकी रिहाई नहीं हो सकी है, उनके लिए कोशिशें जारी हैं. अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि आख़िर न करने वाले गुनाहों की सज़ा का यह सिलसिला कब और कैसे बंद होगा?
क्या कहती हैं चर्चित हस्तियां?
‘चौथी दुनिया’ ने मानवाधिकार के लिए काम करने वाले लोगों से बातचीत की और उनसे अदालत के हालिया निर्णय के बारे में सवाल पूछे, जिनके अंश प्रस्तुत हैं-
दिल्ली सीरियल ब्लास्ट मुक़दमे में जो निर्णय आया है, वो कोई नया नहीं है. ऐसे निर्णयों से यह बात मज़बूत हो जाती है कि आतंकवाद के नाम पर ़फर्जी आरोपों पर मुस्लिम युवाओं को पकड़ लिया जाता है, जिसकी वजह से वे वर्षों जेलों में बंद रहते हैं और पर्याप्त सबूत न होने पर अदालत उन्हें बरी कर देती है. इस पर कोई सवाल नहीं उठाया जाता है कि आखिर उन्हें ़फर्जी आरोपों में क्यों गिरफ्तार किया जाता है और उन लोगों के खिला़फ कोई कार्रवाई क्यों नहीं होती है? दिल्ली सीरियल ब्लास्ट मुक़दमे के बरी किए गए तीनों लोगों को ही नहीं बल्कि पूर्व में भी बरी हुए ऐसे लोगों को हर्जाना मिलना चाहिए और इनका पुर्नवास होना चाहिए.
-हर्षमंदर, डायरेक्टर, सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज़ और अध्यक्ष, अमन बिरादरी
यह अफसोसनाक ही नहीं, एक सभ्य समाज और देश के लिए बेहद शर्मनाक भी है. न किए जाने वाले गुनाहों की सज़ा वर्षों तक कुछ लोगों को काटनी पड़ती है. सबसे बड़ा सवाल यह है कि ज़िंदगी के कीमती दिन इनसे छीन लिए गए, जिसे लौटाया नहीं जा सकता है, न ही इसके मुआवज़े की कोई बात होती है. कश्मीर के ये नौजवान कितने बदनसीब हैं कि इन्हें सब कुछ खोना पड़ा. मान-सम्मान, जिंदगी के कीमती दिन, सब कुछ चला गया. अब वे जाएं तो कहां जाएं? मुआवज़ा और पुर्नवास के लिए क्रिमिनल जस्टिस में संशोधन किया जाना चाहिए. ऐसी परंपरा अन्य देशों में पाई जाती है.
-डॉ. मनोज कुमार झा, प्रोफेसर सोशल वर्क, दिल्ली यूनिवर्सिटी
न्यायपालिका की भूमिका अच्छी है. निर्दोष और मासूम लोग बरी होकर बाहर आ जाते हैं. दिल्ली के सीरियल ब्लास्ट के ये आरोपी, न करने वाले गुनाहों की सज़ा काटकर बाहर आ गए, लेकिन सवाल यह है कि हमारे देश के क़ानून का यह रवैया अन्य मामलों की तरह इन्हें मुआवज़ा दिलवाने और पुनर्वास के मामले में अलग क्यों रहता है? इंसा़फ की यह लड़ाई सबको मिलकर लड़नी पड़ेगी, ताकि आगे से कोई मासूम फर्जी आरोपों की बुनियाद पर गिरफ्तार न हो सके और उसे वर्षों तक न करने वाले गुनाह की सज़ा न काटनी पड़े.
– अपूर्वानन्द, हिन्दी विभाग, दिल्ली यूनिवर्सिटी
अदालतें अपर्याप्त सबूतों की बुनियाद पर नौजवानों को रिहा करती हैं, निश्चित ही यह खुशी की बात है, लेकिन इससे इनका इंसाफ पूरा नहीं हो जाता, जब तक कि इंसा़फ के साथ अफसोस और भरपाई का पहलू शामिल न हो. यानि जिस समय इन्हें बरी किया जाता है, अफसोस भी ज़ाहिर होना चाहिए कि उनके साथ जो कुछ हुआ, वो सिस्टम की गलती की वजह से हुआ. दूसरा यह कि सिस्टम की इस गलती की भरपाई हो. यह भरपाई मुआवजा, रोज़गार, पुनर्वास व अन्य रूप से भी हो सकती है. जब तक ये तीनों चीज़ें समान हों, यानि अफसोस का इज़हार, भरपाई की अनिवार्यता और इंसा़फ, उस समय तक किसी भी इंसा़फ को मुकम्मल नहीं कहा जा सकता.
– मोहम्मद हकीमुद्दीन क़ासमी, सचिव, जमीअत उलेमा-ए-हिन्द
दिल्ली की विशेष अदालत से बाइज्ज़त बरी होने के बाद एक लंबे समय तक जेल में कैद रहने की पीड़ाओं से रिहाई हासिल करते हुए कश्मीर के नौजवान वापस अपनी खूबसूरत घाटी में पहुंच गए, जहां उनका शानदार स्वागत हुआ. यक़ीनन गुज़रे हुए 12 वर्ष उन्हें एक खौ़फनाक ख्वाब की तरह परेशान कर रहे होंगे. संभव है, वे ख्वाब कभी आंखों से ओझल हो जाएं, इसलिए वे सोई हुई कौम के लिए कुछ उलझे हुए सवाल यक़ीनन छोड़ गए हैं. कश्मीर की समस्या एक अलग मसला हो सकती है. लिहाज़ा, हमारे देश व हमारी सुरक्षा एजेंसियों के द्वारा होने वाले मानवाधिकार के उल्लंघन और सवैंधानिक स्वतंत्रता का अवैध इस्तेमाल हमारे समाज के लिए चिंता व गंभीर बहस का विषय क्यों नहीं बनते? इनके बेगुनाह साबित होने पर जिम्मेदार दोषी अधिकारियों के खिला़फ कानूनी कार्रवाई की आवाज़ क्यों नहीं उठती? इनके क़ीमती दिन, जो जेलों में गुज़र जाते हैं, उनके मुआवज़े के लिए कोई आवाज़ क्यों नहीं उठती?
-एडवोकेट अबुबकर, पूर्व नेशनल कोऑर्डिनेटर, एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शइन ऑफ सिविल राइट्स (एपीसीआर)