बहुत लोगों को यह पता नहीं है कि तिब्बत के निर्वासित धर्मगुरु दलाईलामा के अरुणाचल आगमन के ठीक एक महीने पहले चीन की सेना भारत में घुसने की तैयारियां कर रही थी. दलाईलामा की तवांग यात्रा पर पूरी दुनिया की निगाह थी, इसलिए चीन बाधा तो नहीं पहुंचा पाया, लेकिन अपनी हरकतों से बाज भी नहीं आया. भारतीय सैन्य खुफिया एजेंसी ने केंद्र को यह रिपोर्ट दी है कि चीन की सेना मार्च महीने में भारत के पड़ोसी देश बर्मा (म्यांमार) में काफी अंदर तक घुस आई थी.
चीन ने बाकायदा भारतीय सेना को दिखाते हुए एकतरफा युद्धाभ्यास किया और म्यांमार सरकार की घिघ्घी बंधी रही. भारत सरकार ने भी इस पर गोपनीयता बनाए रखी. भारत सरकार ने इस मसले पर कूटनीतिक चुप्पी साध कर दलाईलामा के तवांग दौरे में कोई खलल नहीं आने दी. इससे चीन और बौखला गया और उसने अरुणाचल प्रदेश के जिलों का चीनी नामकरण करने और युद्ध की धमकियां देने की बचकानी हरकतें शुरू कर दीं. चीन यह समझने लगा है कि तिब्बत को लेकर विश्व-जनमत उसके खिलाफ खड़ा हो गया है और यह तिब्बत का भविष्य तय करेगा.
चीन की बौखलाहट भारत की सैन्य शक्ति से नहीं, बल्कि उसकी लगातार बढ़ती कूटनीतिक ताकत से है. इस वजह से अब वह सीधी धमकियों पर उतर आया है. सैन्य विशेषज्ञ कहते हैं कि चीन की धमकियों को गंभीरता से लेने की जरूरत है, क्योंकि लापरवाही का खामियाजा हम 1962 के युद्ध में भुगत चुके हैं. भारतीय सेना की युद्धक-शक्ति बढ़ाने पर भारत सरकार कोई ध्यान नहीं दे रही है, यह भाजपा सरकार के राष्ट्रवाद की असलियत है. पर्वतीय क्षेत्र में कारगर तरीके से मार करने में विशेषज्ञ ‘माउंटेन स्ट्राइक कोर’ के गठन का प्रस्ताव केंद्र सरकार दबाए बैठी है.
जबकि यह देश की आपातकालीन सुरक्षा अनिवार्यता की श्रेणी में आता है. सेना के आयुध, उपकरण, तोपखाने और वाहन तक पुराने हो चुके हैं. इन्हें तत्काल बदलने के लिए सेना की तरफ से केंद्र को बार-बार तकनीकी रिपोर्ट भेजी जाती है, लेकिन प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री इस पर ध्यान नहीं देते और वित्त मंत्री हमेशा अड़ंगा डाल देते हैं.
मिलिट्री इंटेलिजेंस की रिपोर्ट के जरिए पहले हम चीन की हालिया हरकतों का जायजा लेते चलें, जो उसने बर्मा (म्यांमार) में की है. उसके बाद हम अपनी सैन्य शक्ति की असलियत खंगालेंगे. इस साल मार्च महीने में बर्मा सीमा क्षेत्र में काफी अंदर तक चीनी सैनिकों को युद्धाभ्यास करते हुए देखा गया. इसमें चीन का युद्धाभ्यास कम, उसकी युद्ध-तत्परता अधिक दिख रही थी.
मिलिट्री इंटेलिजेंस की रिपोर्ट ने रक्षा मंत्रालय से पीएमओ तक सनसनी फैला दी, पर इसे सार्वजनिक नहीं किया गया. मिलिट्री इंटेलिजेंस ने 28 मार्च को बर्मा में हुए चीनी सेना के युद्धाभ्यास की तस्वीरें भी दीं, जिनमें चीनी सैनिक पूरी तैयारियों के साथ बख्तरबंद होकर युद्धाभ्यास कर रहे हैं. खूबी यह है कि दूसरे देश की धरती पर किया गया चीन का यह युद्धाभ्यास साझा नहीं था.
इसमें केवल चीनी सैनिक शामिल थे और इसके लिए म्यांमार सरकार से कोई औपचारिक इजाजत नहीं ली गई. अंतरराष्ट्रीय सैन्य कानून के तहत यह चीन का अपराध है. किसी भी देश में साझा युद्धाभ्यास का कार्यक्रम दोनों देशों की सरकार की सहमति से ही किया जा सकता है. एक देश की सेना किसी दूसरे देश में अकेले युद्धाभ्यास नहीं कर सकती, इसके लिए कोई भी देश दूसरे देश को इजाजत नहीं देता. लेकिन चीन की इस दादागीरी के सामने बर्मा (म्यांमार) झुक गया. अंतरराष्ट्रीय फोरम पर बर्मा को यह मसला उठाना चाहिए था, लेकिन उसने चुप्पी साध ली.
यह भारत के लिए अत्यंत चिंताजनक स्थिति (अलार्मिंग सिचुएशन) है. रक्षा मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा कि बर्मा के जंगल में घुस कर भारतीय सेना ने जून 2015 में आतंकियों के खिलाफ जो ऑपरेशन चलाया था, चीन ने उसी का जवाब दिया है. बर्मा के जंगलों में घुस कर आतंकवादियों के खिलाफ चलाए गए ऑपरेशन में भारतीय सेना ने एनएससीएन के खापलांग गुट के बागियों की मदद ली थी. उसी तरह चीन बर्मा में घुसने के लिए चीनी मूल के कोकांग समुदाय का साथ ले रहा है. सैन्य खुफिया शाखा के एक आला अधिकारी कहते हैं कि चीन एक तरफ बर्मा सेना के साथ सहानुभूति जताता है, लेकिन दूसरी तरफ बर्मा सेना के साथ लंबे अर्से से युद्ध लड़ रहे कोकांग आर्मी का साथ दे रहा है और अपनी धरती पर पनाह भी दे रहा है.
कोकांग आर्मी के सदस्यों को शरणार्थी बता कर चीन उन्हें अपने यहां सुरक्षित ठिकाने मुहैया कराता है. कोकांग आर्मी का चेयरमैन फेंग क्या शिन चीन में ही रहता है. कोकांग समुदाय के लोगों को सुरक्षा देने की हिदायत देकर चीन म्यांमार सरकार को हड़काता भी रहता है. चीन सरकार बर्मा से स्वायत्तता चाह रहे कैरेन समुदाय और उनकी कैरेन नेशनल लिबरेशन आर्मी की भी पीठ सहलाती रहती है, ताकि बर्मा उसके सामने हमेशा कमजोर बना रहे. कोकांग आर्मी में चीन के लोगों की लगातार भर्ती हो रही है.
भारतीय सैन्य खुफिया एजेंसी को प्राप्त रिपोर्ट के मुताबिक चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी से रिटायर हुए सैनिकों को म्यांमार नेशनल डेमोक्रैटिक एलाएंस आर्मी में आकर्षक पैकेज का ‘ऑफर’ देकर भर्ती किया जा रहा है. रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत को टार्गेट करने के लिए चीन बर्मा, भूटान, बांग्लादेश और नेपाल को पंगु और भयभीत बना कर रखना चाहता है. 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने कहा था, चीन भारत पर अगला आक्रमण बर्मा के रास्ते से ही करेगा. बर्मा में चीन की मौजूदा हरकत सीआईए की 55 साल पुरानी रिपोर्ट को आज प्रासंगिक बनाती है.
बहरहाल, दलाईलामा के अपने जन्म स्थान तवांग का दौरा कर जाने के बाद चीन ने बौखलाहट में अरुणाचल प्रदेश के छह इलाकों का चीनी नामकरण कर दिया. दरअसल, भारत और चीन की सीमा पर 3,488 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा विवाद में है. चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिण तिब्बत बताता है. दूसरी तरफ भारत का कहना है कि विवादित क्षेत्र अक्सई चिन तक है, जिस पर 1962 के युद्ध के दौरान चीन ने कब्जा कर लिया था.
चीन ने अपना दावा मजबूत करने के इरादे से 14 अप्रैल को ‘दक्षिण तिब्बत’ के छह स्थानों का नाम चीनी, तिब्बती और रोमन लिपि में मानकीकृत कर दिए. चीन ने गुलिंग गोंपा को नया नाम वोग्येनलिंग दिया है. यह इलाका तवांग के बाहरी क्षेत्र में स्थित है. छठे दलाई लामा का जन्म यहीं हुआ था. ऊपरी सुबानसिरी जिले में स्थित देपोरीजो का नाम मीला री रखा गया है. यह सुबानसिरी नदी के पास स्थित है, जो अरुणाचल प्रदेश की प्रमुख नदियों में से एक है और ब्रह्मपुत्र की बड़ी सहायक नदी है. भारी सैन्य मौजूदगी वाले मेचूका का नाम बदलकर मेनकूका करके चीन ने इस क्षेत्र पर भारत के दावे को सीधी चुनौती दी है. भारतीय वायुसेना का यहां आधुनिक लैंडिंग ग्राउंड है.
यह पश्चिमी सियांग जिले में है. बुमला वह जगह है, जहां दलाई लामा अरुणाचल प्रदेश की चार अप्रैल 2017 से 13 अप्रैल 2017 तक की यात्रा के दौरान पहले ठहराव में रुके थे. चीन ने इसका नाम बदलकर बुमोला कर दिया है. इस क्षेत्र पर वर्ष 1962 में चीनी सैनिकों ने हमला किया था और भारतीय सेना ने उन्हें खदेड़ भगाया था. चीन ने नमाका चू क्षेत्र का नाम बदलकर नमकापब री कर दिया है. इस क्षेत्र में पन-बिजली की अपार संभावनाएं हैं. चीन ने छठे स्थान का नाम बदलकर कोइदेनगारबो री किया है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह नाम किस क्षेत्र का रखा गया है. चीनी नामांतरण मसले पर भारत ने कहा कि भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का चीन को कोई अधिकार नहीं है. भारत ने कटाक्ष भी किया कि बीजिंग का नाम बदल कर मुंबई कर दिया जाए, तो क्या वह भारत का हो जाएगा!
रक्षा मामलों के विशेषज्ञ कहते हैं कि मार्च महीने में म्यांमार में चीनी सेना की सीधी घुसपैठ और अप्रैल महीने में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के चीनी सेना से किए गए युद्ध-आह्वान को काफी सतर्कता से देखे जाने की जरूरत है. चीन के राष्ट्रपति ने पीएलए के नवगठित ‘84 लार्ज मिलिट्री यूनिट’ के जवानों से कहा है कि वे लड़ाई के लिए तैयार रहें और इलेक्ट्रॉनिक, सूचना और स्पेस युद्ध जैसे नए प्रकार की युद्ध-क्षमता विकसित करें. दलाईलामा के तवांग दौरे के बाद चीन भारत को सीधे तौर पर परिणाम भुगतने की धमकी दे चुका है.
अब हम अपनी युद्ध-शक्ति के प्रति सरकार की रुचि का भी विश्लेषण करते चलें. चीन से युद्ध में कारगर तरीके से मुकाबला करने के लिए माउंटेन स्ट्राइक कोर को शीघ्र अस्तित्व में लाने के लिए भारत सरकार कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रही है. सेना के आधुनिकीकरण और सेना की बढ़ोत्तरी की दिशा में भारत सरकार की बेरुखी आने वाले समय में भारतीय सेना के लिए खतरनाक साबित हो सकती है. 90 हजार विशेषज्ञ सैनिकों की क्षमता वाले माउंटेन स्ट्राइक कोर को सक्रिय करने का काम 2013 से ही चल रहा है, लेकिन सरकार की ढिलाई से यह थम गया है. जबकि चीन से खतरा तेजी से बढ़ रहा है.
केवल मौजूदा सरकार ही नहीं, पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने भी माउंटेन स्ट्राइक कोर के गठन के लिए 64 हजार करोड़ रुपए की मंजूरी नहीं दी थी. हालांकि माउंटेन स्ट्राइक कोर के गठन के प्रस्ताव को वर्ष 2013 में यूपीए सरकार से ही हरी झंडी मिली थी. इस कोर को खास तौर पर हिमालय क्षेत्र में और तिब्बत के पठारी क्षेत्र में कारगर युद्ध की विशेषज्ञता के लिए तैयार किया जा रहा था.
उम्मीद थी कि सरकार से बजट की मंजूरी मिल जाएगी, लेकिन वह नहीं मिली और मौजूदा राजग सरकार भी उस पर कुंडली मार कर बैठ गई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सेना के कमांडरों के सम्मेलन में इस मसले पर अपनी अनिच्छा जाहिर की थी और तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल दलबीर सिंह सुहाग को यह कहना पड़ा था कि माउंटेन स्ट्राइक कोर अब वर्ष 2021 के पहले सक्रिय नहीं हो पाएगा. हालात यह है कि देश के चार स्ट्राइक कोर में से एक 17वीं स्ट्राइक कोर झारखंड में निष्क्रिय पड़ी हुई है. तीन अन्य कोर पाकिस्तान की विभिन्न सीमाओं पर तैनात हैं.
स्ट्राइक कोर को पीस एरिया में डालना बेवकूफाना सामरिक-नीति का नतीजा माना जाता है. एक आला सेनाधिकारी ने 17वीं स्ट्राइक कोर को ‘नाकारा’ और ‘अधूरा’ बताया. उनका कहना था कि एक कोर में न्यूनतम दो डिवीजन होने चाहिए, जबकि 17वीं स्ट्राइक कोर के पास केवल एक ही डिवीजन है. उक्त अधिकारी सुरक्षा के मद्देनजर भारत के भविष्य को आशंका की नजर से देखते हैं. केंद्र सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति के बावजूद भारतीय सेना ने पश्चिम बंगाल के पानागढ़ में 59वीं माउंटेन डिवीजन तो गठित कर लिया, लेकिन पठानकोट में 72वीं माउंटेन डिवीजन के गठन का काम जहां का तहां रुका रह गया. 59वीं माउंटेन डिवीजन में मात्र 16 हजार विशेषज्ञ सैनिक हैं.
भारतीय सेना के लिए केंद्र सरकार ने जो अर्थशास्त्र रचा है, वह भी कम हास्यास्पद नहीं है. 2.47 लाख करोड़ के सैन्य बजट का 70 फीसदी हिस्सा सेना के वेतन और अनुरक्षण पर खर्च हो जाता है. महज 20 प्रतिशत हिस्सा सैन्य उपकरणों की खरीद के लिए बचता है. सेना को हर साल केवल उपकरणों की खरीद के लिए कम से कम 10 हजार करोड़ रुपए की जरूरत है, जबकि उसके पास बचते हैं मात्र 15 सौ करोड़ रुपए. भारतीय सेना के लिए राइफलें, वाहन, मिसाइलें, तोपें और हेलीकॉप्टर खरीदने की अनिवार्यता चार लाख करोड़ रुपए के लिए लंबित पड़ी हुई है. जबकि सेना की युद्ध क्षमता को विश्व मानक पर दुरुस्त रखने के लिए यह काम निहायत जरूरी है. अब तो पाकिस्तान के साथ-साथ चीन की ओर से भी खतरा तेजी से घिरता जा रहा है. ऐसे में यह काम पहली प्राथमिकता पर होना चाहिए.
यूपीए सरकार की ही तरह राजग सरकार के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी माउंटेन स्ट्राइक कोर को सक्रिय करने के लिए जरूरी 64 हजार करोड़ रुपए मंजूर नहीं किए हैं. इस वजह से न सेना मजबूत हो सकी और न चीन से लगी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर सुरक्षा बंदोबस्त पुख्ता हो सका. मोदी ने तो माउंटेन स्ट्राइक कोर के गठन के प्रस्ताव को ही दोबारा पुनरीक्षण (रिव्यू) में डाल दिया और सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल को इसकी जिम्मेदारी दे दी.
डोवाल ने भी 17वीं कोर को निष्क्रिय करने की सिफारिश कर दी. दिलचस्प यह रहा कि तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने पहले तो कहा था कि माउंटेन स्ट्राइक कोर पर आने वाले खर्च को आधा कर दिया जाएगा और उसमें से 35 हजार सैनिक भी कम कर दिए जाएंगे. फिर पर्रीकर अपनी बात से पलटे और कहा कि कोर के गठन का काम धीमी गति से, लेकिन चल रहा है. यह भारत सरकार की अंदरूनी अराजक स्थिति है. उधर, चीन अपनी सैन्य क्षमता लगातार बढ़ाता जा रहा है.
स्ट्राइक कोर की खासियत शत्रु पर सीधे प्रहार की होती है. 1962 के युद्ध में भारतीय सेना ने रक्षात्मक प्रणाली का खामियाजा भुगत लिया था. इसलिए दुश्मन पर सीधा प्रहार करने और दुश्मन के इलाके में घुस कर तबाही मचाने की रणनीति पर काम शुरू हुआ. स्ट्राइक कोर इसी परिवर्तित रणनीति का हिस्सा है, लेकिन सरकार की अदूरदर्शिता के कारण इस पर ग्रहण लगा हुआ है.
विडंबना यह है कि करगिल युद्ध में भी भारत को सैन्य आक्रामकता का लाभ मिला और अभी हाल ही में पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक करके भारतीय सेना ने प्रहार की रणनीति को कारगर तरीके से आजमाया. सर्जिकल स्ट्राइक पर भाजपानीत केंद्र सरकार राजनीति तो खूब चमकाती रही, लेकिन सेना को चमकाने की प्राथमिकता पर कोई ध्यान नहीं दिया. भारतीय सेना बदली हुई स्थितियों में तोपखाने (आर्टिलरी), ब्रह्मोस मिसाइलें, हल्के टैंक, विशेष बल और हेलीकॉप्टर की ताकत लेकर स्ट्राइक कोर को अधिक से अधिक धारदार और आक्रामक बनाना चाहती है, लेकिन मोदी सरकार की धार भोथरी साबित हो रही है.
आपको याद दिलाते चलें कि वर्ष 1986 में अरुणाचल प्रदेश के सुमडोरोंग चू घाटी में चीनी सेना के साथ हुई तनातनी में तत्कालीन थलसेना अध्यक्ष जनरल के सुंदरजी ने ‘ऑपरेशन फाल्कन’ के तहत पूरी एक इन्फैंट्री ब्रिगेड को वायुसेना के हवाई जहाजों के जरिए उतार दिया था. उसके बाद ही स्ट्राइक कोर की योजना पर सैन्य रणनीतिकार तेजी से काम करने लगे.
वर्ष 2003 में तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल एनसी विज के कार्यकाल में पाकिस्तान और चीन, दोनों सीमाओं पर नई सुरक्षा रणनीति अपनाने की योजना बनी. तभी यह योजना बन गई कि 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) में माउंटेन स्ट्राइक कोर को अस्तित्व में लाया जाएगा. इसके बाद भी भारत को चीन की तरफ से कई तीखे और अपमानजनक व्यवहार झेलने पड़े. चीनी सेना भारतीय क्षेत्र में 19 किलोमीटर अंदर तक घुस आई, पर हम कुछ नहीं कर पाए. अप्रैल-मई 2013 की घटना से खुद भारतीय सेना भी शर्मसार हुई.
सेनाध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह ने सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी के समक्ष खुद उपस्थित होकर सीमा की विषम स्थिति के बारे में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व अन्य वरिष्ठ मंत्रियों को अवगत कराया. तब जाकर जुलाई 2013 में यूपीए सरकार ने माउंटेन स्ट्राइक कोर के प्रस्ताव को औपचारिक मंजूरी दे दी. लेकिन कोर को सक्रिय करने के लिए जरूरी धन की मंजूरी नहीं दी. यूपीए के बाद केंद्र की सत्ता में आई राजग की सरकार ने भी इसकी मंजूरी नहीं दी और उल्टा कोर गठन के प्रस्ताव को ही पेंच में उलझा दिया. रक्षा मंत्रालय के कुछ अधिकारी अब माउंटेन स्ट्राइक कोर के 2021 में अस्तित्व में आने की उम्मीद जताते हैं, लेकिन इसे पक्का नहीं बताते. वे यह भी आशंका जताते हैं कि तबतक कहीं देर न हो जाए.
चीन से लगने वाली संवेदनशील सीमा में सेना के सुगमता से आने-जाने के लिए ढांचागत विकास की रफ्तार ही इतनी ढीली है कि चीन बड़ी आसानी से इधर आकर भारतीय रक्षा प्रणाली को तहस-नहस कर सकता है. आप आश्चर्य करेंगे कि विस्तृत चीन सीमा तक पहुंचने वाली अत्यंत संवेदनशील 75 सड़कों में से केवल 21 सड़कें ही अब तक तैयार हो पाई हैं. 54 सड़कों के निर्माण का काम अभी शुरू भी नहीं हुआ है. वर्ष 2010 में ही चीन सीमा क्षेत्र में 28 रेलवे लाइनें बिछाने का प्रस्ताव मंजूर किया गया था. लेकिन आज तक इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू नहीं हुआ. यह संसद में रखे गए आधिकारिक दस्तावेज से ली गई सूचना है.
अक्सई चिन तो छिन गया, अब लद्दाख की सुरक्षा जरूरी
देश की सुरक्षा के प्रति भारत सरकार की लापरवाही के कारण ही पूर्वी लद्दाख का अक्सई चिन का हिस्सा चीन ने अपने कब्जे में ले लिया. उस समय एक सेनाधिकारी ने अक्सई चिन हाईवे पर चीन के कब्जे की फोटो भी सेना मुख्यालय को पेश की थी, लेकिन पहले सेना मुख्यालय ने इसे सही नहीं माना था. बाद में वही कठोर सत्य साबित हुआ. यह भी साबित हुआ कि उस संवेदनशील क्षेत्र में भारतीय सुरक्षा बल की तरफ से कोई गश्त नहीं होती थी. उस घटना के बाद भी भारत सरकार होश में नहीं आई. तब सेना के तीन अतिरिक्त डिवीजन को सक्रिय करने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा गया था.
इनमें से चार ताकतवर ब्रिगेड के साथ एक डिवीजन को खास तौर पर लद्दाख में तैनात करने की जरूरत पर जोर दिया गया था. लेकिन केंद्र सरकार ने बेहद लचर रवैया अख्तियार करते हुए बहुत मीन-मेख के बाद पूर्वोत्तर (नेफा) के लिए एक डिवीजन और लद्दाख के लिए महज एक ब्रिगेड की मंजूरी दी थी. इसका खामियाजा भारतीय सेना ने 1962 के युद्ध में भुगत लिया. चीन की तैयारियों को भांपते हुए सेना ने 114वीं ब्रिगेड के लिए पांच अतिरिक्त बटालियन देने की मांग की थी, लेकिन सरकार ने केवल दो बटालियनों की मंजूरी दी थी. तत्कालीन सरकार में इतनी अराजकता थी कि मंजूरी के बावजूद एक बटालियन सीमा पर पहुंची ही नहीं.
1962 के युद्ध में चीन से मार खाने के बाद लेह में तीसरी इन्फैंट्री डिवीजन के मुख्यालय की स्थापना की गई. 114वीं ब्रिगेड मुख्यालय को चुशुल भेजा गया. 70वीं ब्रिगेड का मुख्यालय पश्चिमी कश्मीर से भेजा गया और वहां 163वीं ब्रिगेड को भी तैनात किया गया. ‘दूरदर्शी’ भारत सरकार ने 1971 युद्ध के पहले पाकिस्तान सीमा से 163वीं ब्रिगेड वापस बुला ली थी और इसका कोई वैकल्पिक इंतजाम भी नहीं किया था. 21वीं सदी के पहले दशक तक भारतीय सेना की केवल चार नियमित इन्फैंट्री बटालियनें चीन सीमा पर तैनात थीं.
चीन की सीमा पर सेना की पुख्ता तैनाती से भारत सरकार हमेशा हिचकती रही है. नेहरू के समय भी, कांग्रेस के शासनकाल के दौरान भी और मोदी के काल में भी. वर्ष 2008 से लेकर 2013 के बीच अप्रत्याशित रूप से तेजी से बढ़ी चीनी घुसपैठ को रोकने की दिशा में भी भारत सरकार ने कोई सख्त कदम उठाने से परहेज किया. जबकि भारतीय सेना के रणनीतिक विशेषज्ञ हमेशा अरुणाचल प्रदेश, लद्दाख और कश्मीर में माउंटेन स्ट्राइक कोर को अस्तित्व में लाने की हिमायत करते रहे. भारत-चीन सीमा पर ‘जिस दौलत बेग ओल्डी’ क्षेत्र में चीनी सैनिकों ने घुस कर काफी दिनों तक दादागीरी दिखाई थी, वहां ब्रिगेड की तैनाती के
आपातकालीन प्रस्ताव पर भी केंद्र सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया. सेना पूर्वी लद्दाख में भी एक टैंक ब्रिगेड तैनात करने की सिफारिश लगातार करती आ रही है.
बिखरा हुआ ‘कमांड एंड कंट्रोल सिस्टम’
भारत के सामने चुनौतियां बहुआयामी हैं. भारतीय सेना एक तरफ जम्मू कश्मीर में जूझ रही है, तो दूसरी तरफ पाकिस्तान के साथ उसकी भिड़ंत लगातार हो रही है. युद्ध विराम संधि बेमानी है. पाकिस्तान को युद्ध नैतिकता से कोई लेना-देना नहीं रह गया है. लिहाजा, पाकिस्तान सीमा के उत्तरी और पश्चिमी सेक्टर दोनों हिस्सों में पुख्ता सुरक्षा बंदोबस्त बेहद अनिवार्य है. तीसरा मुहाना चीन सीमा की तरफ से खुल रहा है. चीन की हरकतों और भारत सरकार की आपराधिक-लापरवाही के कारण देश पर उस दिशा से भी खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है. चीन की पूरी मौलिकता मक्कारी और नीति-हीनता है. वह भी भारत में कई तरफ से घुसने का रास्ता बना रहा है. भारतीय भूमि अक्सई चिन पर वह पहले से कब्जा जमाए बैठा है.
लद्दाख उसकी ज़द में है. अरुणाचल प्रदेश का विस्तृत क्षेत्र चीन की तरफ खुला हुआ है. सिक्किम की तरफ से भी चीनी घुसपैठ हो सकती है. इधर, उत्तराखंड के रास्ते से भी चीन की सेना भारतीय सीमा में घुस सकती है. दक्षिण के समुद्र मार्ग से भी चीन की हरकतें देखी जा सकती हैं. साउथ चाइना सी में चीन की दादागीरी पूरी दुनिया देख रही है. साउथ चाइना सी पर चीन के कब्जे को संयुक्त राष्ट्र पूरी तरह अवैध घोषित कर चुका है, लेकिन चीन अंतरराष्ट्रीय कानून को ठेंगे पर रख कर चल रहा है. भारत का सीमा-क्षेत्र चारों ओर से खुला हुआ है.
पाकिस्तान और चीन की शह पर बांग्लादेश भी एक समय भारत के खिलाफ खुराफात में लगा था, लेकिन शेख हसीना के सत्ता में आने के बाद वहां की स्थितियां बदलीं और भारत-विरोधी माहौल थमा. रक्षा संवेदनशीलता के नजरिए से देखें, तो चीन से लगी सीमा पर पुख्ता सुरक्षा किलेबंदी हमारी सबसे पहली प्राथमिकता पर होनी चाहिए. चीन ने अपनी तरफ से पुख्ता व्यवस्था कर रखी है. चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) को भारतीय सीमा तक पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं होगी, क्योंकि तिब्बत और सिक्किम से लगे ‘लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल’ (एलएसी) तक चीन ने सड़कें और रेल लाइन बिछा रखी हैं.
जबकि भारतीय सेना को वहां तक पहुंचने में काफी मशक्कत करनी पड़ेगी, क्योंकि भारत सरकार ने इस दिशा में कोई दिलचस्पी नहीं ली है. सैन्य रणनीति के विशेषज्ञ माने जाने वाले एक वरिष्ठ सेनाधिकारी ने ‘चौथी दुनिया’ से कहा कि ढांचागत दिक्कतों के साथ-साथ भारतीय सुरक्षा प्रणाली के अलग-अलग ‘कंट्रोल एंड कमांड’ भी सेना के लिए भारी मुश्किलें खड़ी करते हैं, जबकि चीन की सेना एक ही ‘कंट्रोल एंड कमांड’ से निर्देशित होती है. भारत में अलग-अलग बल सीमा पर चौकसी का काम देखते हैं.
पाकिस्तान सीमा पर सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), बांग्लादेश और नेपाल सीमा पर सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) और चीन सीमा पर भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) तैनात है. इसके अलावा असम राइफल्स जैसी क्षेत्रीय सेनाएं भी हैं. इन सबकी नियंत्रण-प्रणाली अलग-अलग है. सेना भी अलग-अलग ‘कंट्रोल एंड कमांड सिस्टम’ से बंधी है. थलसेना के लिए अलग तो वायुसेना और नौसेना के लिए अलग-अलग ‘कंट्रोल एंड कमांड सिस्टम’ है.
युद्ध के समय एक समेकित नियंत्रण प्रणाली की जरूरत होती है. भारत में सेना की तीनों शाखाओं को मिला कर एक ‘यूनिफायड कमांड’ बनाने की अर्से से मांग हो रही है, लेकिन भारत सरकार इस पर कान में तेल डाले बैठी है. यानि, चीनी सेना एक ही आदेश पर भारत पर हमला कर सकती है, जबकि भारतीय सेना को ऐसा करने में आदेश की कई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ेगा और इसमें देरी होने की पूरी गुंजाइश रहती है.
चीन के आगे हम ‘फट्टू’ क्यों?
‘फट्टू’ शब्द अब कोई असंवैधानिक शब्द नहीं है, क्योंकि बोल-चाल से लेकर कहानी-उपन्यासों और फिल्मों के संवाद लेखन में इस शब्द का खूब चलन होता है. अगर यह शब्द-संबोधन असंवैधानिक होता, तो सेंसर बोर्ड उन ढेर सारी फिल्मों को पास नहीं करता, जिनमें यह शब्द बार-बार कई बार आता है. बहरहाल, भारत-चीन के सम्बन्धों के परिप्रेक्ष्य में ‘फट्टू’ शब्द का संदर्भ बनता है.
यही शब्द भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों के संदर्भ में माकूल नहीं है. 1962 से लेकर आज तक हम चीन की हरकतों के जवाब में कोई माकूल मौखिक जवाब भी नहीं दे पाए हैं, कार्मिक जवाब की तो बात छोड़ ही दें. ‘चौथी दुनिया’ के प्रधान संपादक श्री संतोष भारतीय ने 2015 में ही अपने संपादकीय स्तंभ ‘जब तोप मुकाबिल हो’ में लिखा था कि हम पाकिस्तान के सामने तो दहाड़ते हैं लेकिन चीन के सामने हमारी हालत बिल्ली के सामने पड़े चूहे जैसी क्यों हो जाती है! उसकी अहम वजह यह है कि चीन के सामने भारत के बाजार को खोल कर रख देने में हम इस तरह उपकृत हुए हैं कि हमारे मुंह पर चीन का उपकार चिपक गया है.
बोलचाल की भाषा में कहें, तो चीन से घूस खाने वाले भारत के सत्ता अलमबरदारों की चीन के आगे चूं नहीं सरकती. कठोर सच यही है कि नेताओं-नौकरशाहों ने भारतीय बाज़ार को बर्बाद करने में चीनी हितों का साथ दिया है. भारत का संचार क्षेत्र इसका सबसे वीभत्स उदाहरण है, जिसे पूरी तरह चीन के हाथों गिरवी रख दिया गया है. चीन से उपकृत होने वाले हमारे सत्ता-सियासतदानों ने भारतीय सेना को भी पंगु बना कर रखा है, ताकि वे चीन के सामने खड़े न हो पाएं. भारतीय थलसेना के पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने तत्कालीन प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री को कम से कम आधा दर्जन चिटि्ठयां लिखी होंगी कि भारतीय सेना जर्जर हालत में है, उसे सुधारें.
लेकिन उस सेनाध्यक्ष के साथ प्रधानमंत्री से लेकर पूरी सत्ता तक नीच सियासत पर उतर आई थी. जनरल सिंह ने लिखा था कि युद्ध की स्थिति में भारतीय सेना के पास अधिकतम एक हफ्ते तक लड़ने के आयुध हैं, उससे अधिक नहीं, वह भी काफी पुराने, जिनमें से अधिकांश के फुस्स हो जाने की ही आशंका है. तत्कालीन केंद्र सरकार ने थलसेनाध्यक्ष की उस चिट्ठी को ही फुस्स कर दिया.
ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि जब चीन ने भारत का खुलेआम अपमान किया और हमने उसे उतनी ही बेशर्मी से जाने दिया. वायुसेना के मध्य स्तर के अधिकारी से लेकर थलसेना के शीर्ष अधिकारी तक को वीज़ा देने से चीन बड़ी बदतमीजी से मना कर चुका है, लेकिन हम उसका समान प्रतिकार भी नहीं कर पाते.
हमारे देश के अंदर घुस कर चीनी सैनिक चौकियां बना लेते हैं, बैनर-पोस्टर लगाते हैं, एक-एक पखवाड़े तक भारतीय सीमा में घुस कर पिकनिक मनाते हैं, भारतीय सैनिकों का मजाक उड़ाते हैं, उनके साथ धक्का-मुक्की खेलते हैं और हमें खुलेआम अपमानित करके चले जाते हैं. तब हम अपना मजबूत सीना क्यों नहीं नापते और ठोकते? इसी सवाल पर लाकर हम अपनी बात रोक देते हैं…