सोशल मीडिया की रोजाना की बकर झकर परेशान कर रही है । उपभोक्ता परेशान है कि क्या सुने क्या न सुने क्या देखे क्या न देखे । सबने दुकानें खोल ली हैं । सबका प्रेषक यू ट्यूब है । घुमाते जाइए घुमाते जाइए । हर माल मिलेगा । पुराने चैनल, नये चैनल । बस आप अपनी पसंद का एक चैनल देख लीजिए फिर आपकी पसंद के तमाम मिलते जुलते चैनलों की लाइन लग जाएगी । लगेगा जैसे लाटरी खुल गई है । जितनी जल्दी आप खुश होंगे उतनी जल्दी खुमार उतर जाएगा । फिर वही बोरियत क्या देखें क्या न देखें । अपना हो या विरोधी हो दोनों उबाऊ । क्योंकि दोनों तरफ ईमानदारी नहीं है । बुरे वक्त में हम फंस गये हैं । अचानक से याद आता है कि महान दार्शनिक ज्यां पाल सार्त्र ने क्यों कहा था कि नोबल पुरस्कार आलू के बोरे से ज्यादा कुछ नहीं । याकि हमारी स्थिति कुछ वैसी हो चली है जैसे जस्टिस काटजू ने कहा था कि देश की नब्बे फीसदी जनता मूर्ख है । दुकानदार जो माल दे रहे हैं वह बोरे के आलू जैसा हो न हो लज़ीज़ समोसे में भरा हुआ सड़ा आलू जरूर है । यू ट्यूब पर बहुत कुछ उपलब्ध है । यू ट्यूब से बाहर बहुत बुरा समय है । संत सिखा गये हैं कि बुरे समय को अपने मौन से काट लो। जुझारू कहता है कि बुरे समय से लड़ो और क्रांति कर डालो । सोशल मीडिया न मौन रहने देता है न क्रांति करना सिखाता है । आलू का बोरा बना रहा है हमें ।
इस सत्ता के खिलाफ आप हैं तो आपके लिए यू ट्यूब पर बहुत कुछ है देखने के लिए । पर समझने और जुझारू हो जाने के लिए कुछ नहीं । पिछली बार के लेख की अंतिम पंक्ति पर बनारस की एक प्रबुद्ध महिला जो प्राध्यापक हैं , ने पूछा आप यू ट्यूब पर चर्चाओं के खिलाफ क्यों हैं । चर्चाएं तो होती ही रहनी चाहिए । चर्चाओं से तो बहुत कुछ हम समझ और जान सकते हैं । उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा था । पर आप उस चर्चा को क्या कहेंगे जिसमें भाग लेने वाले एक ही सोच के बैठे हों । विषयों का एक राजनीतिक दायरा हो । उस दायरे से बाहर जैसे सारे विषयों की मौत हो चुकी हो । आला दर्जे की घटिया किस्म का लोगों का भूसा ज्ञान । वही वही चेहरे । जैसेकि दिग्गज पत्रकारों और राजनीतिक चिंतकों की एकाएक देश में कमी हो गयी हो । सोशल मीडिया के एंकरों से बात कीजिए तो जवाब मिलता है कि आना नहीं चाहते । क्या इमरजेंसी के दौर के प्रबुद्ध या पत्रकार बंधु इतने ठंडे पड़ गये हैं कि इस दौर की चुनौतियों का सामना ही नहीं करना चाहते । सच तो यह लगता है कि ये एंकर ही भूसा हो चुके हैं । यहां तक कि करन थापर के मेहमान भी क्या दे जाते हैं । बरखा दत्त भी मेहमानों की महज जरानवाजी ही करती हैं ।
गोदी मीडिया इसलिए गोदी मीडिया है कि उसका चरित्र बिगड़ चुका है, वह सत्ता के पूंजीपतियों के साथ बिक चुका है वरना वहां जिस तरह के लोग बुलाये जाते हैं उनसे निर्भीक और तटस्थ चर्चा हो तो कमाल हो जाए । इन दिनों सबसे भूसा किस्म का चैनल है ‘सत्य हिंदी’ और इस वेबसाइट पर आने वाले एक से लोग और उनकी एक सरीखी चर्चाएं । वार्तालाप कहिए । विषय तक कभी कभी एक ही रहते हैं । लक्ष्मी गणेश जो चार बजे से शुरु हुए तो चलते ही रहे । इसीलिए सार्त्र का आलू का बोरा याद आया या लगा कि देश की नब्बे फीसदी जनता मूर्ख हो गयी है । जस्टिस काटजू ने वोटरों के संदर्भ में कहा था , सत्य हिंदी वालों ने अपने सुनने वालों को समझ लिया । इसीलिए हमने पिछली बार श्रवण गर्ग और अपूर्वानंद का नाम लिया था । कृपया ये दोनों और शीबा असलम फहमी जैसे लोग देखें कि वहां जाकर आप सुनने वालों को क्या दे रहे हैं । ध्यान रखिए कि फेसबुक पर घटिया से घटिया पोस्ट की लाइक सबसे ज्यादा होती है ।
इस बार ‘लाउड इंडिया टीवी’ के अभय दुबे शो में अभय जी ने जिस विषय को लिया उस पर किस चैनल ने चर्चा की । यह हमारा सवाल है । विषय था – ‘हिंदी पर क्यों गरमा रही है राजनीति’ । सब जानते हैं यह विषय क्यों और कैसा है । पर इन दिनों कांग्रेस, गुजरात, मोदी, केजरीवाल से अलग कुछ है ही नहीं । यकीन मानिए विषयों का न सूखा है , न टोटा है । बस उनका सही चुनाव एक मुद्दा है । वरना राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा करके आप कौन सी चुनौती मोदी को दे रहे हैं। कुछ नहीं दे सकते तो कृपया ज्ञान तो दीजिए । न ज्ञान है न सही आलोचना । अभय दुबे ने तो आलोचनात्मक समीक्षा की बात की । कल का ‘अभय दुबे शो’ देखा जाना चाहिए । हिंदी और भारतीय भाषाओं के संदर्भ में उनकी विवेचना और प्रसंग गौर करने लायक थे । बाबा साहब अंबेडकर जब तक देश में थे तब तक उनमें यह अहसास था कि उनमें प्रतिभा नहीं है । लेकिन विदेश में जाते ही उन्हें लगा उनमें प्रतिभा है और अच्छी प्रतिभा है । इस उदाहरण से अभय दुबे ने हिंदी और भारतीय भाषाओं की महत्ता और गुणवत्ता को उजागर करना चाहा । उनका कहना था कि जितना अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद होगा उतना ही लाभ देश की जनता और अन्य भारतीय भाषाओं को होगा । गृह मंत्रालय के भारतीय भाषा विभाग में भी शायद इस कार्यक्रम की पहुंच हो । होगी तो जरूर क्योंकि जहां तक हमें याद है संतोष भारतीय पैगासस के पहले शिकार थे 2018 में । तो कैसे उनके कार्यक्रम नहीं देखे जाते होंगे उन गलियारों में ।
आजकल देखने में आ रहा है कि पत्रकार राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं की तरह बात करने लगे हैं । कांग्रेसी पत्रकार तो अचानक से बरसाती मेंढकों की तरह पैदा हो गये हैं । नाम लेना इसलिए ठीक नहीं क्योंकि शुरुआत वरिष्ठतम पत्रकारों से होगी जो ठेस लगाने वाली ज्यादा समझी जाएगी । कल को अरविंद केजरीवाल को गाली देने वाले पत्रकार आज गुण गा रहे हैं । इसीलिए हम कहते हैं कि पत्रकारों की धार, उनका अध्ययन, उनकी गहराई, उनका पैनापन और सटीक नजरिया सब गायब है । जिन्हें जिताते हैं वो हार जाता है जिन्हें हराते हैं वहीं जीत जाता है । धन्य हैं ये सोशल मीडिया पर बैठने वाले बकबकिया ।
रवीश कुमार से ही कुछ सीख लेते । ऋषि सुनक पर रवीश कुमार का शो धारदार था । जिस सुनक की सुनामी सोशल मीडिया धर कर चला रहा था उसे एक ही शो में रवीश ने धो दिया । कहिए सच्चाई पेश कर दी । अभय दुबे ने भी इसी लाइन पर बात करते हुए यहां तक बता दिया कि इंग्लैंड के प्रिंस चार्ल्स से कहीं ज्यादा संपत्ति ऋषि सुनक के पास है । और मीडिया सुनक के कलावे, पूजा-पाठ और गाय प्रेम पर ही बहका रहा । तो पत्रकार जब पत्रकारिता भूल जाएं , चैनल जब आलू का बोरा हो जाएं और जनता जब मूर्ख हो जाए तो मोदी जैसों की सत्ता पनपती है और लंबे समय तक जीवित रहती है क्योंकि तब देश का बुद्धिजीवी मर जाता है और क्रांति सिर्फ एक परचम की बात बन रह जाती है ।

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