चुनाव में जनता के लिए मतदान से बढ़कर कुछ भी नहीं होता, लेकिन जिन्हें मतदान से वंचित कर दिया जाए उनके लिए लोकतंत्र के महापर्व का क्या अर्थ रह जाता है? दरअसल, मिजोरम के बू्र जनजाति पिछले पंद्रह वर्षों से अपनी पहचान और अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं. ग़ौरतलब है कि वर्ष 1997 में एक मिजो वन अधिकारी की हत्या के बाद शुरू हई जातीय हिंसा के बाद ब्रू आदिवासी त्रिपुरा के कंचनपुर और पानिसागर के शरणार्थी शिविरों में अपना जीवन काट रहे हैं. इस घटना के डेढ़ दशक बीत जाने के बाद भी ब्रू जनजाति अपने ही देश में परायेपन के शिकार हैं. ग़ौरतलब है कि सोलहवीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव के मद्देनज़र चुनाव आयोग ने यह निर्णय लिया है कि ब्रू आदिवासी शरणार्थियों को पोस्टल मतपत्रों के ज़रिए मत देने का अधिकार दिया जाएगा. हालांकि चुनाव आयोग के इस निर्णय पर मिजोरम के कुछ एनजीओ और युवा संगठनों ने विरोध किया है. इस बाबत उन्होंने रैलियां भी निकाली. इन रैलियों का नेतृत्व यंग मिजो एसोसिएशन (वाइएमए) ने किया.
इस बारे में यंग मिजो एसोसिएशन का कहना है कि, हमने अपना विरोध संदेश निर्वाचन आयोग के समक्ष भेजा है, लेकिन उनकी ओर से अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है. इस बाबत मिजो जिरलाई पॉल (एमजेडपी) के अध्यक्ष, पांच ग़ैर सरकारी संगठनों और युवा निकायों के समन्वय समिति के सदस्यों ने भी इस मुद्दे पर विरोध करने का ऐलान कर दिया है. इन संगठनों की मांग है कि राहत शिविरों में रह रहे सभी शरणार्थियों को लोकसभा चुनाव से पहले मिजोरम वापस भेजा जाए और जो नहीं जाना चाहते हैं, उन लोगों का नाम मतदाता सूची से हटा दिया जाए. एमजेडपी के मुताबिक़, ब्रू जनजाति शरणार्थियों ने अपनी मर्जी से वर्ष 1997 और 2009 में मिजोरम छोड़ा था. मिजोरम सरकार द्वारा चलाए गए कई प्रत्यावर्तन कार्यक्रमों के बावजूद भी इन शरणार्थियों ने बिना कोई उचित कारण बताए वापस जाने से इंकार कर दिया. ब्रू जनजाति शरणार्थियों की मानें, तो उस समय वे त्रिपुरा के शिविरों से घर लौटने के लिए मना कर दिया था, जब तक कि उनकी सुरक्षा की गारंटी न दी जाए. हालांकि मिजोरम के मुख्यमंत्री ललथनहावला ने भी एक महीने पहले चुनाव आयोग से आग्रह किया था कि सात राहत शिविरों में रहने वाले ब्रू जनजाति शरणार्थियों को अपने मताधिकार का प्रयोग करने की अनुमति नहीं दी जाए. उन्होंने यह बात भी कही थी कि राज्य की एकमात्र लोकसभा सीट के भाग्य का ़फैसला पोस्टल वोटिंग के ज़रिए नहीं किया जाना चाहिए.
वहीं, दूसरी तरफ त्रिपुरा के मुख्य निर्वाचन अधिकारी आशुतोष जिंदल का कहना है कि पिछले चुनावों की तरह इस बार भी उत्तरी त्रिपुरा में राहत शिविरों में रह रहे शरणार्थियों को वोट डालने का अधिकार दिया जाएगा. उनके मुताबिक़, अप्रैल के पहले सप्ताह तक उत्तरी त्रिपुरा के सात शरणार्थी शिविरों में कम से कम एक सुविधा केंद्र स्थापित किया जाएगा, ताकि यहां के लोग लोकसभा चुनाव में पोस्टल वोटिंग के ज़रिए अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकें. वैसे इस संबंध में चुनाव आयोग ने राज्य सरकार से यह जानकारी मांगी थी कि क्या ब्रू विस्थापितों के संगठन राहत शिविरों में मतदान कराने के पक्ष में हैं. हालांकि एमबीडीपीएफ ने चुनाव आयोग से यह शिकायत की थी कि कई योग्य मतदाताओं को मतदाता सूची में शामिल नहीं किया गया है. दरअसल, 36000 से अधिक रियांग आदिवासी शरणार्थियों को स्थानीय भाषा में ब्रू कहते हैं. इनमें से 11,500 मतदाताओं का नाम मतदाता सूची में शामिल किया गया था, लेकिन विधानसभा की 40 सीटों में से महज़ 10 निर्वाचन क्षेत्रों में ही इनका नाम शामिल है.
बहरहाल, मिजोरम के मम्मित ज़िले से आए ब्रू जनजाति अल्पसंख्यक है. मिजो वन्य अधिकारी ललजाउमलियाना की हत्या के बाद ये लोग पलायन करने को मजबूर हुए थे. हालांकि इस घटना के पीछे भूमिगत ब्रू नेशनल लिबरेशन फ्रंट(बीएनएलएफ) का हाथ था. उस समय बीएनएलएफ पश्चिमी मिजोरम के ब्रू बहुल क्षेत्रों में एक स्वायत्त ज़िला परिषद के निर्माण के लिए और मिजोरम के अंदर एक विद्रोही आंदोलन की अगुवाई कर रहा था. उत्तर त्रिपुरा के सब-डिविजन कंचनपुर में छह कैंपों में 35000 शरणार्थी हैं. इतना ही नहीं, ब्रू आदिवासी दक्षिणी असम में भी शरण लिए हुए हैं. राहत शिविरों में रहने वाले इन जनजातियों की हालत काफ़ी दयनीय है, लेकिन उनकी समस्याओं के समाधान के लिए कोई ठोस पहल नहीं की गई है. इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी इन लोगों को न तो राजनीतिक अधिकार मिला है और न ही सामाजिक अधिकार. ऐसी सूरत में ब्रू जनजातियों के लिए लोकसभा चुनाव का कोई महत्व नहीं है. स्थानीय ब्रू जनजातियों के अनुसार, अपने ही देश में उन्हें पराया समझा जाता है.
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1999 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद त्रिपुरा के राहत शिविरों में रह रहे ब्रू शरणार्थियों ने पहली बार डाक मतपत्र के ज़रिए अपने मताधिकार का प्रयोग किया था. पिछले मिजोरम विधानसभा चुनाव में भी उन लोगों ने इसी तरी़के से मतदान किया था. तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम ने अपनी मिजोरम यात्रा के दौरान यह कहा था कि वर्ष 2010 तक ब्रू शरणार्थियों के घर वापसी का अभियान पूरा कर लिया जाएगा. हालांकि चिदंबरम साहब के उन वादों की कोई हकीकत नजर नहीं आ रही है और ब्रू जनजाति आज भी अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं. प
ब्रू शरणार्थियों के लिए बेमानी है लोकतंत्र का यह महापर्व
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