ब्रिटेन में चुनाव से पूर्व तमाम आकलनों को ग़लत साबित करते हुए प्रधानमंत्री डेविड कैमरन अपनी पार्टी को क़ामयाब बनाने में सफल रहे. हालांकि, कैमरन अपने दूसरे कार्यकाल के लिए चुने जा चुके हैं, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने यह घोषणा कर दी थी कि वह तीसरे कार्यकाल के लिए चुनाव नहीं लड़ेंगे. बहरहाल जहां चुनाव पूर्व सभी सर्वेक्षण लेबर पार्टी और कंजरवेटिव पार्टी के बीच कांटे की टक्कर होने की उम्मीद जता रहे थे, वहीं लिबरल डेमोक्रेट्स (लिबडेम) और स्कॉटिश नेशनलिस्ट पार्टी (एसएनपी) जैसी छोटी पार्टियों को किंगमेकर की भूमिका पर भी खूब बहस चली. एसएनपी के नेताओं तो, यहां तक कह दिया कि वे लेबर पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने की संभावनाओं पर विचार कर रहे हैं. अख़बारों और टेलीविज़न चैनलों पर भी चुनाव के बाद गठबंधन की अलग-अलग संभावनाओं की तलाश शुरू हो गई थी. जैसे-जैसे चुनाव के नतीजे आने शुरू हुए वैसे-वैसे यह सा़फ होता गया कि यह मुक़ाबला बराबरी का नहीं है. जब सभी नतीजे घोषित हो गए, तो कंजरवेटिव पार्टी न केवल सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई, बल्कि उसे स्पष्ट बहुमत भी मिल गया. उसे कुल 650 सीटों में से 331 सीटें मिलीं.
ऐसा नहीं है कि हाउस ऑ़फ कॉमन्स (पार्लियामेंट) में लगातार दूसरी जीत हासिल करने वाली कंजरवेटिव पार्टी पहली पार्टी है. साथ ही प्रधानमंत्री कैमरन दूसरा कार्यकाल हासिल करने वाले पहले प्रधानमंत्री हैं. इससे पहले भी यह कारनामा दोहराया जा चुका है. टोनी ब्लेयर और लेबर पार्टी इसकी मिसाल है, लेकिन फिर भी कई लिहाज़ से यह चुनाव न स़िर्फ ऐतिहासिक रहा, बल्कि आश्चर्यजनक रहा. दरअसल, चुनाव पूर्व सभी सर्वेक्षण और एग्जिट पोल ग़लत साबित हुए. हालांकि, कैमरन सरकार की आर्थिक नीतियों से मतदाता बहुत ज़्यादा खुश नहीं थे. उनके कार्यकाल में देश की जीडीपी में कोई वृद्धि नहीं हुई थी. बावजूद इसके जनता ने उनके नेतृत्व पर भरोसा किया.
दरअसल, इसके कई कारण हैं. पहला कारण पिछली कैमरन सरकार में भागीदार रही लिबरल डेमोक्रेट्स का इंग्लैंड और वेल्स से सफाया होना. लिबरल डेमोक्रेट्स के कई पूर्व मंत्री अपनी सीटें नहीं बचा पाए. इसका भरपूर फायदा कंजरवेटिव पार्टी को मिला. दूसरा कैमरन परंपरागत लेबर वोटर्स समझे जाने वाले अप्रवासी लोगों ख़ास तौर पर भारतीय मूल के लोगों तक पहुंचने की कोशिश की, जिसका लाभ उन्हें मिला. वैसे कंजरवेटिव पार्टी की इस जीत की एक बड़ी वजह दक्षिणपंथी विचारधारा की लोकप्रियता भी है. ब्रिटेन और पश्चिमी यूरोप में दक्षिणपंथी
विचारधारा की लोकप्रियता के विषय पर चौथी दुनिया पहले भी कई रिपोर्ट प्रकाशित की हैं
पिछले साल अख़बारों में यह ख़बरें आ रही थीं कि अति दक्षिणपंथी पार्टी यूकेआईपी वोट हासिल करने के मामले में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन जाएगी. यूकेआईपी देश के अप्रवास क़ानून में बदलाव लाने, ब्रिटेन के यूरोपीय यूनियन में शामिल होने और मुसलमानों का विरोध करती रही है. इसका ़फायदा उसे पिछले साल क्लैक्टन के उपचुनाव में मिला. हालांकि, इस आम चुनाव में यूकेआईपी को केवल एक सीट से ही संतोष करना पड़ा. यहां तक कि पार्टी के बड़े नेता निगेल फराज चुनाव हार गए, लेकिन पार्टी को ब्रिटेन में लगभग 12 प्रतिशत से अधिक वोट मिले हैं. पिछले आम चुनाव में उसे केवल 2 प्रतिशत मत मिले थे. इसके अलावा, 100 से अधिक सीटों पर यह पार्टी दूसरे स्थान पर रही. इससे साबित होता है कि देश में दक्षिणपंथी विचारधारा को ख़ासी लोकप्रियता मिली है. जून 2014 में बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, वर्ष 2010 के बाद 19 से 34 वर्ष के मतदाताओं में कंजरवेटिव पार्टी को वोट देने का रुझान बढ़ा है. इसमें वे मतदाता भी शामिल हैं, जिनके माता-पिता लेबर पार्टी के वोटर हुआ करते थे.
जहां तक लेबर पार्टी का सवाल है, तो चुनाव से पूर्व यह कहा जा रहा था कि एड मिलिबन्ड के नेतृत्व में यह पार्टी अगर सबसे बड़ी पार्टी नहीं तो, कम से कम इस स्थिति में ज़रूर रहेगी कि किसी दूसरी पार्टी के समर्थन से सरकार बनाने की स्थिति में आ जाए. हालांकि, स्कॉटलैंड के नतीजों ने उन सभी उम्मीदों पर पानी फेर दिया. एक लेबर नेता ने स्कॉटलैंड में पार्टी की हार को सियासी हिमस्खलन की संज्ञा दी. दूसरे अन्य राजनीतिक समीक्षकों ने भी इसे सुनामी क़रार दिया. वर्ष 2010 के चुनाव में लेबर पार्टी को यहां 41 सीटें मिली थीं. इस चुनाव में उसे केवल एक सीट से ही संतोष करना पड़ा. दरअसल, यही वजह थी कि वेल्स और इंग्लैंड में कुछ सीटों की बढ़त के बावजूद वर्ष 2010 के मुक़ाबले में पार्टी को 26 सीटों का नुक़सान उठाना पड़ा. ज़ाहिर है लेबर पार्टी ने स्कॉटलैंड में ऐसी हार की कल्पना नहीं की होगी. कुल मिलाकर देखा जाए तो लेबर पार्टी को 30 प्रतिशत वोट मिले, जो वर्ष 2010 से एक प्रतिशत अधिक था. बावजूद इसके पार्टी को 26 सीटों का नुक़सान उठाना पड़ा.
वर्ष 2014 में ब्रिटेन से आज़ादी के लिए स्कॉटलैंड में जनमत संग्रह कराया गया. जिसे 45 के मुक़ाबले 55 प्रतिशत लोगों ने नकार दिया. हैरानी की बात यह है कि महज़ एक साल बाद ही स्कॉटलैंड के लोगों ने देश की बड़ी पार्टियों को सिरे से ख़ारिज कर एक तरह से यह जता दिया कि स्कॉटिश राष्ट्रवाद का असर अभी ख़त्म नहीं हुआ है. एसएनपी ने वर्ष 2014 के जनमत संग्रह का समर्थन किया था. इस चुनाव में एसएनपी को ऐतिहासिक जीत हासिल हुई है. वर्ष 2010 के चुनाव में महज़ 6 सीटें हासिल करने वाली यह पार्टी स्कॉटलैंड की कुल 59 सीटों में से 56 सीटों पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया है. एक सोशल डेमोक्रेट पार्टी होने के नाते एसएनपी की जीत को यूरोप में बढ़ रही दक्षिणपंथी विचारधारा से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है, लेकिन स्कॉटिश राष्ट्रवाद से ज़रूर जोड़ा जा सकता है. हालांकि, पार्टी प्रमुख निकोला स्टर्जन ने सा़फ किया कि इस जीत का मतलब स्वतंत्रता नहीं है, लेकिन स्वतंत्रता के लिए फिर से जनमत संग्रह कराने की संभावना से उन्होंने इंकार भी नहीं किया. बहरहाल, अगर वरिष्ठ पत्रकार एमजे अकबर की बातों पर ग़ौर करें, तो कई चुनाव सियासी तब्दीली की वजह बनते हैं, लेकिन कुछ चुनाव ऐसे होते हैं, जो क्षेत्र की भू-राजनीति को भी बदलकर रख देते हैं. स्कॉटलैंड के चुनावी नतीजे कुछ ऐसे ही थे.