नरेंद्र मोदी की लहर के सहारे झारखंड में भी भाजपा की सरकार जरूर बन गई, लेकिन सवा वर्ष में ही इसकी इतनी फजीहत होगी, कोई नहीं जानता था. सरकार को फेल होने का प्रमाण पत्र लोहरदगा में हुए उपचुनाव में जनता ने दे ही दिया था, अब सांगठनिक चुनाव में लाठी-डंडे चल रहे हैं.
खोजे नहीं मिल रहे सक्रिय कार्यकर्ता
भारतीय जनता पार्टी ने मोबाइल पर मिस्ड कॉल के माध्यम से लाखों कार्यकर्ता झारखंड में बनाने का दावा जरूर किया, लेकिन इनको सक्रिय कार्यकर्ता में तब्दील नहीं किया जा सका. लक्ष्य रखा गया कि हर मंडल में कम से कम सौ सक्रिय कार्यकर्ता हों. जब संगठन के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई तो पता चला कि बमुश्किल 10 मंडल में ही इतने सक्रिय कार्यकर्ता होंगे.
संथाल परगना के जिलों में तो इसी कारण चुनाव की प्रक्रिया ही रुक गई है. रांची के पास सिकिदरी मंडल की बात करें तो यहां पांच सक्रिय कार्यकर्ता हैं. नरकोपी में 11 हैं. चुनावी प्रक्रिया को पूरा करने के लिए अधितकर मंडलों में कोरम ही पूरा नहीं हो पा रहा है. पहले प्रदेश भर में 344 मंडल थे. इसे बढ़ाकर 514 कर दिया गया. जिन मंडलों में चुनाव हो भी गया है, वहां कार्यसमिति का विस्तार रुका पड़ा है. क्योंकि सक्रिय सदस्य ही नहीं रहेंगे तो कार्यसमिति में कैसे शामिल किए जाएंगे.
जिलाध्यक्ष के चुनाव में चल रहे लाठी-डंडे
झारखंड में भारतीय जनता पार्टी के 26 सांगठनिक जिले थे. इन्हें बढ़ाकर अब 29 कर दिया गया है. जिलाध्यक्ष के चुनाव में तू-तू-मैं-मैं इतनी है कि अभी तक 20 जिलों में भी अध्यक्ष का चुनाव नहीं कराया जा सका है. जहां हुआ है, वहां विवाद हावी रहा. जमशेदपुर में लाठी-डंडे चले. धनबाद में भी यही स्थिति रही. राजधानी रांची में महानगर व ग्रामीण दोनों जिलाध्यक्षों के चुनाव में भारी विरोध हुआ. प्रदेश मुख्यालय पर धरना-प्रदर्शन तक हुआ. झामुमो का गढ़ तोड़ने के लिए संथाल परगना पर भाजपा का ज्यादा फोकस है. इसके मुख्यालय दुमका में कैबिनेट की बैठक भी हो चुकी है, लेकिन इस प्रमंडल के किसी जिले में संगठन का चुनाव नहीं हो सका है.
प्रदेश अध्यक्ष का भी कार्यकाल पूरा
अब तक प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव हो जाना चाहिए था. फरवरी में ही मौजूदा अध्यक्ष डॉ. रवींद्र राय का तीन साल पूरा हो गया था, लेकिन जिलों का चुनाव हुए बिना यह कैसे हो सकता है. चर्चा है कि शायद मनोनयन की तैयारी है. चुनाव में ज्यादा संभावना है कि केंद्रीय नेतृत्व के मन का अध्यक्ष न बन सके.
हालांकि यह भी संकेत मिला कि भाजपा आलाकमान ने झारखंड भाजपा के प्रदेश प्रशिक्षण प्रमुख गणेश मिश्र पार्टी के नए प्रदेश अध्यक्ष होने पर अपनी सहमति दे दी है. 29 फरवरी को इसकी आधिकारिक घोषणा किए जाने की संभावित तारीख भी चर्चा में थी. लेकिन घोषणा नहीं हुई्. पहले कहा जा रहा था कि चूंकी गैर आदिवासी रघुवर दास झारखंड सरकार के मुख्यमंत्री हैं तो संगठन की जिम्मेवारी किसी आदिवासी को सौंपी जाए.
इस पर केंद्रीय नेतृत्व में काफी गहन मंथन भी हुआ, लेकिन इस मंथन का कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आया. इस कवायद में आदिवासी और गैर आदिवासी दोनों समुदायों के वरिष्ठ नेताओं से बातचीत भी की गई्. लेकिन आखिरकार प्रदेश संगठन की कमान गणेश मिश्र को सौंपने का ही मन बना लिया गया. अमित शाह के दूसरी बार राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद यह तय हुआ था कि उनकी सहमति से प्रदेश अध्यक्ष का मनोनयन किया जाएगा. इस पद के लिए गणेश मिश्र व सांसद लक्ष्मण गिलुआ का नाम सबसे ऊपर था. वहीं मनोज कुमार मिश्र को रांची महानगर अध्यक्ष चुना गया है.
सरकार व संगठन में मनभेद
अभी तक निगम व खाली पड़े आयोगों के पदों पर मनोनयन नहीं हो सका है. सरकार में एक जाति विशेष के वर्चस्व से भी समर्पित व पुराने कार्यकर्ता बिदक रहे हैं्. पूर्व लोकसभा अध्यक्ष व खूंटी के सांसद कड़िया मुंडा तो कई बार सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि झारखंड सरकार का कामकाज ठीक नहीं है.
सवा साल में स्थानीय नीति तक नहीं बन सकीरघुवर सरकार बनी थी, तो सीएम ने कहा था कि राज्य की स्थानीय नीति तीन माह में बन जाएगी, लेकिन सवा साल होने वाले हैं, यह नहीं हो सका. इसके चलते पार्टी में ही आदिवासी विधायकों व मंत्रियों का मूक विरोध सरकार को झेलना पड़ रहा है.
अन्य मुद्दों पर भी भाजपा की यह सरकार पुरानी सरकारों से अलग नहीं दिखाई दे रही है. राजधानी में ही प्रतिदिन हत्या, लूट, अपहरण, चोरी की घटनाएं हो रही हैं. महिला हिंसा पर भी कोई रोक नहीं लग सकी है. सिंचित जमीन का रकबा एक इंच भी नहीं बढ़ सका है. सड़कें जस की तस हैं. सिर्फ एनएच 33 को छोड़कर आज भी कोई एनएच 24 घंटे नहीं चलता.
अन्य पार्टियों के मृतप्राय होने का फायदा भाजपा को
कांग्रेस भले ही लोहरदगा उपचुनाव में जीत गई, लेकिन विधानसभा का आम चुनाव हुए सवा साल हो गया, अभी तक यह पार्टी जनमुद्दों को लेकर इस तरह से आगे नहीं आई है, जिससे जनता को इसमें विकल्प नजर आए्. आजसू सरकार में ही शामिल है. बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा (प्र) के छह विधायकों को चुनाव के तुरंत बाद तोड़कर अपने पाले में शामिल कराने में भाजपा को सफलता मिल गई थी. एकमात्र प्रदीप यादव की आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज ही साबित होती है. बाबूलाल खुद विधानसभा चुनाव हार गए थे, सो उनकी बातों में वह आत्मविश्र्वास नहीं झलकता. वामपंथी पार्टियों में इतना दम नहीं है कि वह भाजपा को चुनौती दे सकें. लिहाजा भाजपा ही अजगर बनी हुई है.