अब दिल्ली चुनाव की बात. जैसा मैंने कहा था कि चाहे परिणाम जो हो, यहां जो भी हुआ, अच्छा नहीं हुआ. भाजपा लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा को छोड़कर कहीं भी स्पष्ट बहुमत नहीं हासिल कर सकी. महाराष्ट्र एवं झारखंड में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. कश्मीर का तो सवाल ही अलग है. मेरे हिसाब से अगर वे लंबे समय के लिए कांग्रेस को मुख्य पार्टी के तौर पर हटाना चाहते हैं, तो उन्हें कांग्रेस से सहन शक्ति भी सीखनी चाहिए. जिस तरह की घटनाएं हुईं, वे हास्यास्पद हैं. भाजपा सत्ता में रहकर भी विपक्ष की तरह व्यवहार करती दिखी.
पिछले दिनों हर तरफ़ दिल्ली चुनाव की चर्चा थी. एक केंद्र शासित प्रदेश के विधानसभा चुनाव के लिए इतना हंगामा समझ से बाहर है. इसमें दो बातें हैं. पहली यह कि एक केंद्र शासित प्रदेश के चुनाव को ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत दी गई, चाहे वह प्रदेश दिल्ली ही क्यों न हो. दूसरी यह कि प्रचार के स्तर, भाषा के इस्तेमाल और जो आरोप लगाए गए, इन सबसे भारतीय लोकतंत्र को कोई लाभ नहीं होगा. सबसे बदतर बात यह कि न जाने किसकी सलाह पर स्वयं प्रधानमंत्री ने ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया, जैसी भाषा का इस्तेमाल उन जैसे कद्दावर नेता को कौन कहे, किसी आम पार्टी लीडर द्वारा नहीं की जानी चाहिए थी. नरेंद्र मोदी ने अपने बल पर लोकसभा चुनाव में 282 सीटें हासिल की थीं. उन्हें इस चुनाव से बाहर रहना चाहिए था. वह कह सकते थे कि भाजपा निश्चित रूप से यह चुनाव जीत जाएगी. पार्टी की स्थानीय इकाई यह चुनाव लड़ेगी. प्रधानमंत्री यह कह सकते थे कि मैंने कांग्रेस मुक्त भारत की बात की थी और दिल्ली की जनता ने पहले से ही कांग्रेस को नकार दिया है. इसलिए मेरा काम पूरा हो गया. अब अगर भाजपा जीतती है और केजरीवाल की पार्टी कड़ा मुक़ाबला करती है, तो लोकतंत्र में नए लोगों को सामने आना चाहिए. केजरीवाल का स्वागत है, लेकिन मुझे यकीन है कि मेरी पार्टी मेहनत करेगी और चुनाव जीत जाएगी. मोदी को यह लड़ाई यहीं छोड़ देनी चाहिए थी, क्योंकि इससे कोई फ़़र्क नहीं पड़ने वाला है. पुलिस और क़ानून व्यवस्था लेफ्टिनेंट गवर्नर के हाथ में है और ज़मीन का अधिकार डीडीए के पास है. दिल्ली सरकार के पास बहुत कम अधिकार हैं. लेकिन, कुल मिलाकर इससे एक सोचने-विचार करने वाले व्यक्ति के मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है.
जिस दिन किरण बेदी को चुनाव में उतारा गया, उसी दिन से मुंह का स्वाद बिगड़ गया, क्योंकि दिल्ली में भाजपा की जड़ें बहुत मज़बूत हैं. उसके पास दिल्ली में नेतृत्व की एक लंबी कतार है. फिर भी एक बाहरी शख्स को नेता बनाया गया, जो भाजपा को भला-बुरा कहता था. एक ऐसा बाहरी शख्स, जो भाजपा के लिए हमदर्दी नहीं रखता था. किरण बेदी को पार्टी में लाना और कहीं से चुनाव मैदान में उतारना तो ठीक है, लेकिन पार्टी का नेतृत्व उनके हाथ में दे देना मेरे ख्याल से आत्मघाती है. भाजपा से हमदर्दी रखने वाले बहुत सारे लोग, खास तौर पर संघ से जुड़े लोग इसे लेकर बहुत निराश हैं. वे भाजपा के रोजाना के मामले में हस्तक्षेप नहीं करते, लेकिन जब अकेले में मिलते हैं, तो अपनी निराशा भी नहीं छिपाते. और, मैं पिछले दस दिनों के दौरान ऐसे कई लोगों से मिल चुका हूं.
जिस दिन किरण बेदी को चुनाव में उतारा गया, उसी दिन से मुंह का स्वाद बिगड़ गया, क्योंकि दिल्ली में भाजपा की जड़ें बहुत मज़बूत हैं. उसके पास दिल्ली में नेतृत्व की एक लंबी कतार है. फिर भी एक बाहरी शख्स को नेता बनाया गया, जो भाजपा को भला-बुरा कहता था. एक ऐसा बाहरी शख्स, जो भाजपा के लिए हमदर्दी नहीं रखता था. किरण बेदी को पार्टी में लाना और कहीं से चुनाव मैदान में उतारना तो ठीक है, लेकिन पार्टी का नेतृत्व उनके हाथ में दे देना मेरे ख्याल से आत्मघाती है.
दूसरा, भारत से वापस जाने के बाद मुझे लगता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने अपने दौरे पर दोबारा ग़ौर करने के बाद यह पाया कि भारत में धार्मिक कलह एक गंभीर समस्या बन गई है. उन्होंने वाशिंगटन में कहा कि आज अगर महात्मा गांधी ज़िंदा होते, तो भारत की मौजूदा हालत देखकर आश्चर्यचकित हो जाते. यह भारतीय मीडिया में पेश की गई उस तस्वीर से बिल्कुल अलग है, जिसमें यह कहा गया था कि ओबामा इस दौरे से बहुत खुश थे और यह दौरा बहुत ही सफल रहा. धार्मिक कलह एक गंभीर समस्या है. एक केसरिया वस्त्र पहने सांसद या संघ परिवार के दूसरे नेताओं का इस तरह का बयान सामान्य देश के वातावरण के लिए, विशेष रूप से लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है.
घर वापसी एक ऐसी अवधारणा थी, जो किसी की समझ में नहीं आई. हिंदू धर्मग्रंथों में यह कहीं नहीं लिखा है. मैं एक अच्छा हिंदू होने का दावा कर सकता हूं, जिसने धार्मिक किताबें पढ़ रखी हैं. लेकिन ये लोग भारत को पाकिस्तान की तर्ज पर बनाना चाहते हैं यानी भारत पाकिस्तान का हिंदू वर्जन हो. लेकिन, इससे हिंदुत्व का महत्व घटेगा. इसलिए हिंदूवाद की तुलना अन्य से करके आप हिंदू दर्शन को कमतर बना देते हैं. इस बात पर आरएसएस को ध्यान देना चाहिए था, न कि भाजपा को. आरएसएस को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि अगर वे हिंदू धर्म की वाकई सेवा करना चाहते हैं, तो उन्हें अपनी रणनीति बदलनी होगी. मुसलमानों और ईसाइयों को कैसे मुख्य धारा में शामिल किया जाए, उन्हें इस पर विचार करना होगा. ऐसे लोगों के इस तरह के बयान, जो अपने नेताओं को खुश करना चाहते हैं, वाकई निदंनीय हैं, ग़लत हैं. भाषा ग़लत है, सोच ग़लत है. इससे कोई फ़ायदा नहीं होने वाला. अगर वे मोदी के पांच साल को लड़ाई-झगड़े में निपटा देना चाहते हैं, तो बात अलग है. लेकिन, मेरे विचार से उन्हें मोदी को सरकार चलाने में मदद करनी चाहिए, ताकि ऐसे बेकार के मुद्दों को अलग रखा जा सके.
अब दिल्ली चुनाव की बात. जैसा मैंने कहा था कि चाहे परिणाम जो हो, यहां जो भी हुआ, अच्छा नहीं हुआ. भाजपा लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा को छोड़कर कहीं भी स्पष्ट बहुमत नहीं हासिल कर सकी. महाराष्ट्र एवं झारखंड में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. कश्मीर का तो सवाल ही अलग है. मेरे हिसाब से अगर वे लंबे समय के लिए कांग्रेस को मुख्य पार्टी के तौर पर हटाना चाहते हैं, तो उन्हें कांग्रेस से सहन शक्ति भी सीखनी चाहिए. जिस तरह की घटनाएं हुईं, वे हास्यास्पद हैं. भाजपा सत्ता में रहकर भी विपक्ष की तरह व्यवहार करती दिखी. कांग्रेस सब कुछ खो चुकी है, लेकिन उसका अंदाज़ बताता है, मानो वह अभी भी सत्ता में है. मैं सोचता हूं कि उन्हें यह महसूस करना चाहिए कि राजनीति भी ज़िंदगी की तरह एक ऐसा मंच है, जहां अपने लिए चुनी गई भूमिका को निभाना है. भाजपा को सरकार की तरह व्यवहार करना चाहिए और कांग्रेस को नम्र बनकर पार्टी का पुनर्निर्माण करना चाहिए. चुनाव के बाद मैंने कांग्रेस की एक भी बैठक होते नहीं देखी. कांग्रेस अध्यक्ष और उपाध्यक्ष से उनके नेताओं का मिलना मुश्किल हो गया है. कांग्रेस को अपने वरिष्ठ नेताओं की एक कमेटी बनानी चाहिए, जो हर राज्य में जाए, पार्टी की बैठक करे और कांग्रेस में ऊर्जा भरने का काम करे. मैं नहीं जानता कि कांग्रेस की रणनीति क्या है? अभी इंतज़ार कीजिए.