बेशक, संघीय सरकार के हाथ में जो भी होगा, जैसा उन्होंने सेंसर बोर्ड के साथ किया, वैसा करेंगे. सेंसर बोर्ड के साथ जो भी हुआ, बहुत ग़लत है. पुराने लोगों को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर कर दिया गया और इसके बाद अपने लोगों को भर दिया गया. ख़तरनाक बात यह है कि धर्मगुरुओं के पाखंड का मज़ाक उड़ाती फिल्म पीके की तो संघ परिवार ने आलोचना की, लेकिन एमएसजी जैसी फिल्म, जो अंधविश्वास को प्रोत्साहित करती है, उसे सर्टिफिकेट देने की बात कही जा रही है. अगर ऐसा ही चलता रहा, तो लगता है कि मुझे महेश भट्ट जैसे लोगों के साथ खड़ा होना होगा, जो कहते हैं कि फिल्मों में कोई सेंसरशिप नहीं होनी चाहिए.
दिल्ली में भाजपा ने अकल्पनीय काम किया है. वह दिल्ली में एक ऐसे चेहरा सामने लाई है, जिसका किसी भी राजनीतिक दल में कोई अनुभव नहीं रहा है. वह आज भाजपा का चेहरा है. यह सच है कि किरण बेदी के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार का कोई रिकॉर्ड नहीं है, लेकिन उनका एक उत्कृष्ट पुलिस अधिकारी वाला रिकॉर्ड भी नहीं रहा है. पर आरएसएस के कुछ लोगों से मेरी बात के बाद मैं उनकी रणनीति में शामिल अंतर्दृष्टि बता सकता हूं. उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल में उनके पास कोई जाना-पहचाना चेहरा तक नहीं है. ऐसे में, जब तक उनके पास कोई जाना-पहचाना चेहरा न हो, तब तक वे कोई ताकत नहीं बन सकते. वे बंगाल में एक अच्छे रिकॉर्ड वाले नेता की तलाश में हैं, जो उनकी पार्टी का नेतृत्व कर सके. वे अपने संगठन एवं कार्यकर्ताओं को लेकर आश्वस्त हैं कि वे सब मदद करेंगे, लेकिन फिर भी उन्हें एक चेहरे की आवश्यकता है.
इसलिए मैंने उनसे दिल्ली के बारे में पूछा. मैंने कहा कि दिल्ली में वे एक मजबूत पार्टी होने के साथ-साथ सत्ता में भी रहे हैं, कार्यकर्ता भी हैं, तो फिर उन्हें ऐसे निर्णय की ज़रूरत क्यों पड़ी? उनका नम्र जवाब था कि उनके स्थापित नेता बहुत पुराने हो गए हैं और नए लोगों में ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जिससे उम्मीद की जा सके कि वह चुनाव जिता देगा. इसलिए उन्होंने चुनाव में जीत के लिए किरण बेदी को चुना. यह स्पष्टीकरण संघ परिवार की सोच में निहित अंतर्दृष्टि सामने लाता है. वे अब जल्दी में हैं. वे महसूस कर रहे हैं कि मोदी के शीर्ष पर होने के साथ ही उन्हें एक अखिल भारतीय पार्टी बनने और राष्ट्र की चेतना से कांग्रेस को हटाने का मौक़ा मिल गया है. उनके साथ मेरी इस छोटी चर्चा से यही उद्देश्य सामने निकल कर आया. कांग्रेस को हटाने को लेकर वे सीधे-सीधे कुछ नहीं बोल रहे थे, लेकिन उसका मतलब यही था. इसी तरह जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती के साथ मिलकर सरकार बनाना सबसे बुरा काम हो सकता है, जिसे भाजपा कर सकती है.
कम से कम नेशनल कांफ्रेंस, जब बात अलगाववादियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की आती है, तो वह पीडीपी से बेहतर है. पीडीपी पर नरम अलगाववाद का आरोप है, लेकिन भाजपा उसके साथ सरकार बनाने के लिए तैयार है. क्योंकि, वह देश के हर कोने में अपनी मौजूदगी चाहती है, जैसे कांग्रेस सालों तक देश के हर कोने में मौजूद रही थी. यह भाजपा की नई रणनीति है. यह अच्छा भी है और बुरा भी. बुरा इसलिए, क्योंकि भाजपा हमेशा कहती रही है कि वह औरों से अलग है, लेकिन अब जो कुछ हो रहा है, उसे देखते हुए यही कह सकते हैं कि वह भी अन्य पार्टियों की तरह है. वह कांग्रेस की तरह ही बाहरी लोगों को लेगी, धीरे-धीरे उसका कठोर अनुशासन कमज़ोर होगा और फिर वह भी अन्य पार्टियों की तरह हो जाएगी. यह उनके लिए अच्छा नहीं है, जो संघ परिवार का हिस्सा नहीं हैं. ऐसे राजनीतिक पर्यवेक्षकों एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं, जो सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक देश के बारे में चिंतित हैं, के लिए अच्छी बात यह है कि अगर भाजपा भी अन्य पार्टियों की तरह ही अपना काम करती रही, तो ये सारे ख़तरे अपने आप दूर हो जाएंगे. और, वे एक मजबूत आरएसएस आधारित पार्टी बनाने में कभी सक्षम नहीं होंगे. यह उदार पृष्ठभूमि वाले लोगों के साथ एक व्यापक पार्टी होगी, जो मजबूती से संघ की विचारधारा नहीं अपनाएंगे. वे जबरदस्ती किसी पर हिंदू धर्म नहीं थोप पाएंगे.
हम लोग एक बहुत ही दिलचस्प दौर में जी रहे हैं. भाजपा परिवर्तन के दौर से गुज़र रही है. अब हम किरण बेदी जैसी शख्सियत को देखें. उन्हें पार्टी में लेना ठीक है, टिकट देना भी ठीक है, लेकिन मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें प्रोजेक्ट करना तो हद है. इससे पता चलता है कि जिन उच्च मानदंडों पर भाजपा खुद को बता रही थी, उनका पतन हुआ है. लेकिन, जैसा कि मेरे उन दोस्त ने मुझसे कहा कि सत्ता में आने के लिए यही एक रास्ता बचा था.
बेशक, संघीय सरकार के हाथ में जो भी होगा, जैसा उन्होंने सेंसर बोर्ड के साथ किया, वैसा करेंगे. सेंसर बोर्ड के साथ जो भी हुआ, बहुत ग़लत है. पुराने लोगों को इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर कर दिया गया और इसके बाद अपने लोगों को भर दिया गया. ख़तरनाक बात यह है कि धर्मगुरुओं के पाखंड का मज़ाक उड़ाती फिल्म पीके की तो संघ परिवार ने आलोचना की, लेकिन एमएसजी जैसी फिल्म, जो अंधविश्वास को प्रोत्साहित करती है, उसे सर्टिफिकेट देने की बात कही जा रही है. अगर ऐसा ही चलता रहा, तो लगता है कि मुझे महेश भट्ट जैसे लोगों के साथ खड़ा होना होगा, जो कहते हैं कि फिल्मों में कोई सेंसरशिप नहीं होनी चाहिए. मैं हमेशा इसका पक्षधर रहा हूं कि भारत जैसे देश में कुछ न कुछ सेंसरशिप ज़रूर होनी चाहिए.
हम स्केंडनिवियाई देशों की तरह यह नहीं कह सकते कि लोग बेहतर निर्णय लेने में सक्षम हैं. लेकिन, अगर इसी तरह सब कुछ चलता रहा, तो सेंसर बोर्ड तार्किक, निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ठ पर कैंची चलाएगा और अंधविश्वास, जादू एवं पौराणिक कथाओं को तर्कसंगत ठहराएगा. मुझे नहीं लगता है कि ऐसे में सेंसर बोर्ड की कोई ज़रूरत है.
हम लोग एक बहुत ही दिलचस्प दौर में जी रहे हैं. भाजपा परिवर्तन के दौर से गुज़र रही है. अब हम किरण बेदी जैसी शख्सियत को देखें. उन्हें पार्टी में लेना ठीक है, टिकट देना भी ठीक है, लेकिन मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें प्रोजेक्ट करना तो हद है. इससे पता चलता है कि जिन उच्च मानदंडों पर भाजपा खुद को बता रही थी, उनका पतन हुआ है. लेकिन, जैसा कि मेरे उन दोस्त ने मुझसे कहा कि सत्ता में आने के लिए यही एक रास्ता बचा था.
यदि वे अपनी विचारधारा से बहकते रहे और ऐसे चेहरे प्रोजेक्ट करते रहे, जो जनता को स्वीकार्य न हों, तो फिर उनके लिए उन राज्यों में आना मुश्किल हो जाएगा, जहां वे अभी नहीं हैं. अगले कुछ हफ्तों में पता लग जाएगा कि क्या होने जा रहा है. एक और बात उन्होंने कही कि केजरीवाल अभी भी मजबूत हैं और भाजपा को दिल्ली में सरकार बनाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ेगा. ये वे लोग हैं (जिनसे बात हुई है), जो सक्रिय राजनीति में नहीं हैं और न भाजपा का हिस्सा हैं. ये संघ से जुड़े लोग हैं और इसलिए एक निष्पक्ष विचार दे सकते हैं.