आठ नवंबर को नोटबंदी की अचानक की गयी घोषणा के बाद जैसे हालात उत्पन्न हुए वे इतने अप्रत्याशित थे कि न तो केंद्र सरकार और न ही भारतीय जनता पार्टी ने इसकी कल्पना की थी. केंद्र के इस फैसले के आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक प्रभाव आने वाले दिनों में स्पष्ट होते जायेंगे, लेकिन फिलहाल इतना तो तय है कि मोदी सरकार के लिए यह अब तक की सबसे गंभीर चुनौती बन कर सामने आई है.
आम लोगों को नोटबंदी से होने वाली भारी दुश्वारियों के बाद विपक्ष के ताबड़तोड़ हमले के बीच बिहार में अचानक भारतीय जनता पार्टी के सामने दूसरी मुसीबत आ कर खड़ी हो गयी. मीडिया के एक हिस्से में यह खबर आयी कि नोटबंदी से एक हफ्ते पहले तक भारतीय जनता पार्टी ने राज्य के 23 जिलों में क्षेत्रीय कार्यालय खोलने के लिए करोड़ों रुपये की जमीन खरीदी है.
खबर इतनी प्रमाणिक थी कि इसके उजागर होने के बाद बिहार भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की न सिर्फ बोलती बंद हो गयी बल्कि इस मुद्दे पर उनकी तमाम बहानेबाजियां और तमाम तर्क भी ध्वस्त होते चले गये. विरोधी दलों ने चुभते सवालों के तीर दागने शुरू कर दिये.
पूछा जाने लगा कि कालेधन के खिलाफ भाषणबाजी करने वाले भाजपा के नेता बतायें कि क्या उन्होंने नोटबंदी की घोषणा के पहले करोड़ों की जमीन अपने कालेधन को सफेद बनाने के लिए खरीदी? सवाल यह भी किये जाने लगे कि नोटबंदी के एक हफ्ता पहले तक जमीन के प्लॉट खरीदने का यह मतलब तो नहीं कि भाजपा को सरकार ने पहले ही बता दिया था कि वह आठ नवम्बर से पहले हजार और पांच सौ के तमाम नोटों का इस्तेमाल कर ले?
ऐसे तमाम आक्रामक सवालों के जवाब के लिए भाजपा न तो पहले से तैयार थी और न ही उसे आभास था कि जमीनों के प्लॉट की खरीद की भनक सार्वजनिक हो पायेगी. लेकिन 25 नवम्बर को यह खबर प्रदेश भाजपा के नेताओं के लिए परेशानी का सबब बन गयी. इसकी अपेक्षा नहीं होने के कारण यह स्वाभाविक था कि भाजपा नेताओं ने जवाब देने में गलतियां की और उन्हें फजीहत तक झेलनी पड़ी.
सबसे पहले, विधानसभा सत्र की शुरुआत के दिन पत्रकारों ने विधान मंडल के विरोधी दल के नेता सुशील मोदी को घेरा. उनसे जमीन खरीदने से संबंधित सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा कि भाजपा पिछले दो वर्षों से हर जिले में कार्यालय बनाने के लिए जमीन खरीद रही है. नोटबंदी के फैसले से इसका कोई लेना-देना नहीं है. लगे हाथ उन्होंने इन तमाम खरीददारियों में निर्धारित प्रक्रिया अपनाने की बात कही.
लेकिन सुशील मोदी का इतना कह देना काफी नहीं था. क्योंकि प्लॉट खरीद के तमाम दस्तावेज सार्वजनिक हो चुके थे, जिनके अवलोकन से यह साफ हो रहा था कि भारतीय जनता पार्टी के लिए इससे जुड़े सवालों का जवाब दे पाना कठिन है. ऐसा इसलिए कि जमीनों की खरीद के लिए पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह द्वारा अधिकृत किये गए व्यक्तियों या नेताओं से जुड़ा दस्तावेज भी सार्वजनिक हो चुका था.
अमित शाह ने अपने लेटर पैड पर भाजपा विधायक संजीव चौरसिया व लालबाबू प्रसाद को लिखित रूप से अधिकृत किया था. उस लेटर पैड पर साफ लिखा था कि ‘पार्टी के लिए अचल संपत्ति खरीदने के लिए उन्हें अधिकृत किया जाता है’.
ऐसे में अधिकृत किये गये नेता, संजीव चौरसिया और लालबाबू प्रसाद तो पहले मीडिया के सवालों से बचते नजर आये लेकिन बार-बार दोहराये गये सवाल के जवाब में, लालबाबू प्रसाद ने स्वीकार किया कि उन लोगों ने जमीनें नगद पैसे से खरीदी हैं, इसके लिए पार्टी कार्यकर्ताओं ने चंदा दिया है.
लालबाबू प्रसाद की इस स्वीकारोक्ति के बाद जमीन खरीद के कुछ ऐसे डिड्स भी सार्वजनिक हो गये जिनमें जमीन बेचने वाले व्यक्ति ने रजिस्ट्रार के समक्ष लिखित में स्वीकार किया था कि उसे जमीन के बदले कैश प्राप्त हुए. इस खुलासे के बाद तो भाजपा नेताओं की बोलती ही बंद हो गयी.
यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि इससे पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता सुशील मोदी ने न्यूज चैनलों से कह दिया था कि पेमेंट आरटीजीएस के माध्यम से किये गये. लेकिन दस्तावेजों के सार्वजनिक होने और लालबाबू प्रसाद की कैश पेमेंट की स्वीकारोक्ति के बाद जैसे बिहार की राजनीति में भूचाल सा आ गया.
जदयू के वरिष्ठ प्रवक्ता नीरज कुमार ने तो यहां तक कह डाला कि भूमि घोटाला ने भाजपा को नंगा कर दिया और इससे उसका दोहरा चेहरा उजागर हो गया है. जबकि जदयू के एक अन्य प्रवक्ता नवल शर्मा ने कहा कि केंद्र सरकार ने हजार और पांच सौ के नोटों पर रोक लगाने की घोषणा से पहले भाजपा राज्य इकाई को इसकी सूचना दे दी थी.
ताकि वे आठ नवंबर, यानी नोटबंदी लागू होने के पहले ही अपने पुराने नोटों का इस्तेमाल कर के उस कालेधन को सफेद कर लें. नवल शर्मा ने मोदी सरकार पर आक्रामक होते हुए कहा कि अपनी पार्टी को नोटबंदी की पूर्व सूचना देना भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा प्रशासकीय विश्वासघात है.
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भाजपा इस पूरे मामले में एक दिन की रणनीतिक चुप्पी के बाद नये तेवर में आ गयी. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय ने एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित की और जदयू प्रवक्ताओं के ताबड़तोड़ हमले का प्रमाणिक जवाब देने के बजाय उनके हमले का जवाब हमले में देना उचित समझा. उन्होंने तमाम जदयू प्रवक्ताओं को मूर्ख, गंवार और अनपढ़ों की टोली कहा, जिसे पैन कार्ड, आयकर तक की जानकारी नहीं है.
पांडेय ने कहा कि जमीन खरीद के लिए भुगतान, आरटीजीएस या इंटरनेट ट्रांसफर के माध्यम से हुई है. जदयू प्रवक्ताओं पर प्रहार में वे यहां तक कह गए कि वह उन्हें इन तकनीकी मामलों पर मुफ्त में प्रशिक्षण देने को तैयार हैं.
भले ही भाजपा नेता मंगल पांडेय या सुशील मोदी बार-बार यह दावा कर रहे हों कि जमीन खरीद का पेमेंट आरटीजीएस के माध्यम से हुआ है, लेकिन बिहार के एक स्थानीय न्यूज चैनल ने जमीन खरीददारी का एक दस्तावेज सार्वजनिक कर दिया जिसमें जमीन के मालिक ने स्वीकार किया कि उसे पैसे कैश में प्राप्त हुए हैं.
उधर राजद ने इस मामले में लम्बी चुप्पी के बाद अपना मुंह खोला. राजद विधायक दल की नेता राबड़ी देवी ने कहा कि देश भर में 600 स्थानों पर भाजपा द्वारा की गयी खरीद की जांच सीबीआई से कराई जाये. उधर नोटबंदी के फैसले और काले धन पर आरोप-प्रत्यारोप के बीच राजद और कांग्रेस का अधिकृत स्टैंड, जदयू से अलग रहा. जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार ने बार-बार नोटबंदी का समर्थन किया.
इसलिए जदयू के प्रवक्ताओं ने नोटबंदी के बहाने काले धन को टार्गेट करके भाजपा द्वारा जमीन खरीद के मामले में उस पर हमला बोला. नीतीश कुमार के द्वारा अपने धुर विरोधी भाजपा के नोटबंदी के फैसले का समर्थन करना, भाजपा के लिए यह राहत की बात रही.
इसके कारण यह कयासबाजी भी तेज हो गयी कि नीतीश भाजपा के करीब आ रहे हैं. लेकिन नीतीश ने बाद में खुल कर कहा कि नोटबंदी का फैसला सही है, इसलिए वह इसका समर्थन कर रहे हैं. लेकिन दूसरी तरफ उनकी पार्टी ने भाजपा की जमीन खरीद मामले पर अपने हमले में कोई नरमी नहीं बरती. इसलिए भाजपा का पशोपेश में रहना स्वाभाविक है.
अब जरा इस बात पर गौर करें कि जब आठ नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम संदेश में नोटबंदी की घोषणा की, तो वह इस बात पर सबसे ज्यादा जोर दे रहे थे कि इस कदम का मकसद देश में कालेधन पर पूरी तरह रोक लगाना है. लेकिन दूसरी तरफ अगर उनकी ही पार्टी नोटबंदी के हफ्ता दिन पहले तक कैश पेमेंट दे कर जमीन खरीद रही हो तो विपक्षी दलों का उस करोड़ों रुपये के कैश के लेन-देन और उसके स्रोत के बारे में पूछना कोई गैर मौजू सवाल तो नहीं है.
विरोधी दलों के इसी सवाल का जवाब जब मीडिया ने सुशील मोदी से पूछा, तो उन्होंने दो टूक कह दिया कि इसका हिसाब उनकी पार्टी किसी अन्य पार्टी को क्यों दे? उन्होंने यह भी जोड़ा कि अगर इनकम टैक्स महकमा यह सवाल करेगा तो उनकी पार्टी उसे जवाब देगी. लेकिन सुशील मोदी के जवाब के बाद भी एक महत्वपूर्ण सवाल है, जो भाजपा को मुश्किल में डालने के लिए काफी है.
यह सवाल बिहार सरकार के राजस्व की चोरी से जुड़ा है. राज्य के 23 जिलों में दर्जनों एकड़ जमीन की खरीददारी की गयी. लेकिन इन सौदों में चौंकाने वाली बात यह है कि कई ऐसे प्लॉट जो कमर्शियल प्लॉट घोषित हैं, उनकी आवासीय प्लॉट के नाम पर रजिस्ट्री करायी गयी. यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि आवासीय प्लॉट की सरकारी कीमत (सहरसा के बनगांव में) एक लाख 60 हजार रुपये प्रति डिसिमल है जबकि कमर्शियल प्लॉट की कीमत चार लाख 90 हजार रुपये प्रति डिसिमल है.
यह प्लॉट सहरसा के बनगांव में 12 अगस्त को खरीदा गया. इसी तरह 19 सितंबर को किशनगंज के फरिंगोला मोहल्ले में 26 डिसिमल जमीन खरीदी गयी. इसे भी कमर्सियल के बजाये आवासीय प्लॉट बताया गया. ध्यान रहे कि आवासीय प्लॉट के नाम पर खरीदी गयी जमीन और कमर्सियल जमीन की कीमत में बहुत फर्क होता है.
इन सौदों के कारण सरकार को मिलने वाले राजस्व का बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ. हालांकि इस मामले में भाजपा के जमीन खरीदने के लिए अधिकृत लोग
जितने दोषी हैं, उतने ही दोषी रजिस्ट्री ऑफिस के पदाधिकारी भी हैं.
भाजपा के लैंड डील का मामला सामने आने के बाद पार्टी का दावा है कि वह राज्य के तमाम 38 जिलों समेत देश के अन्य राज्यों में भी अपना जिला कार्यालय खोलने के लिए जमीन खरीदने में लगी है.
अभी तक जो जानकारियां प्राप्त हुई हैं, उनके अनुसार, उसने 3 जिलों में जमीन खरीद ली है. इसमें खास बात यह है कि जमीन के कुछ प्लॉट नवंबर के पहले हफ्ते खरीदे गये. जबकि पीएम नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा 8 नवम्बर को की.