दो दिसम्बर 2017 को अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर खबर थी कि भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश केे शहरी स्थानीय निकाय के चुनावों में अभूतपूर्व सफलता मिली. साथ में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की एक उप मुख्यमंत्री और भाजपा प्रदेश अध्यक्ष को मिठाई खिलाते और सभी द्वारा विजय का प्रतीक उंगलियों से अंग्रेजी का ‘वी’ अक्षर बनाते हुए तस्वीर भी प्रकाशित हुई. अभूतपूर्व जीत की यह खबर अभूतपूर्व असत्य है. सत्य यह है कि भाजपा को स्थानीय निकाय चुनावों में कुल मिला कर 18.1 प्रतिशत स्थानों पर सफलता मिली है. इस चुनाव में खासकर निर्दलीय उम्मीदवारों का बोलबाला रहा है. यदि निर्दलीय कोई एक दल होते तो उन्होंने अभूतपूर्व सफलता पाई होती.
सिर्फ एक पद के लिए भाजपा को सफलता मिली है, वह है महापौर का पद. 16 बड़े शहरों में से 14 में भाजपा के महापौर चुने गए हैं. किंतु यहीं भाजपा की सफलता की कहानी का अंत भी हो जाता है. इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि शहरों में कई वर्षों से भाजपा का ही दबदबा रहा है. बल्कि इन स्थानों पर भाजपा नहीं जीतती तो अचरज की बात होती. और सत्य यह भी है कि महापौर व नगर पालिकाओं के चुनाव में जहां ईवीएम मशीन का इस्तेमाल हुआ, वहीं पर भाजपा को कुछ सफलता प्राप्त हुई है. बड़े पैमाने पर मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से गायब होने की भी शिकायत मिली. किंतु महापौर के स्थान को छोड़ शेष जिन पदों के लिए चुनाव हुए उसमें भाजपा की करारी हार हुई है. आंकड़े इस बात की पोल खोल कर रख देते हैं.
नगर पालिकाओं में जहां भाजपा के 14 महापौर जीते हैं, भाजपा सिर्फ 596 सभासदों के पद पर विजयी रही जबकि विपक्ष के 703 उम्मीदवार चुनाव जीते हैं. इसमें समाजवादी पार्टी के 202 और बहुजन समाज पार्टी के 147 सभासद चुने गए. नगर पालिका परिषद के अध्यक्ष पद के लिए भाजपा के 70 उम्मीदवार जीते जबकि विपक्ष के 128. सपा के 45 व बसपा के 29 अध्यक्ष हैं. यानी सपा-बसपा के संयुक्त रूप से भाजपा से ज्यादा अध्यक्ष हैं. अब यदि बात नगर पालिका परिषद के सदस्यों की हो तो भाजपा के 922 सदस्यों की संख्या निर्दलीयों की 3,380 के कहीं आस-पास भी नहीं. संयुक्त विपक्ष के कुल 4,338 सदस्य हैं. सपा के 477 व बसपा के 262 सदस्य हैं. आम आदमी पार्टी ने 17 स्थानों पर सफलता पाई.
नगर पंचायत के अध्यक्ष पद पर निर्दलियों की संख्या किसी भी दल से ज्यादा है. नगर पंचायतों में 182 निर्दलीय अध्यक्ष होंगे. भाजपा के सिर्फ 100 हैं और सपा के 83, कोई बहुत पीछे नहीं हैं. बसपा ने भी भाजपा के आधे यानी 45 अध्यक्ष पदों पर विजय पाई है. दो अध्यक्ष आम आदमी पार्टी के भी होंगे. यदि हम देखें कि नगर पंचायतों में 3,875 निर्दलीय सदस्य विजयी रहे हैं तो जनता के मन का पता चलता है. भाजपा के सिर्फ 664 सदस्य हैं और सपा 453 पद लेकर भाजपा से थोड़ा पीछे ही है. इन चुनावों में कुल 12,644 पदों पर विपक्ष के 10,278 प्रतिनिधियों ने सफलता अर्जित की है. यदि कोई गुणगान करने लायक है तो वे निर्दलीय हैं, जिन्होंने 61 प्रतिशत स्थानों पर जीत दर्ज की है.
ऐसे में यह सवाल उठता है कि संचार माध्यम भाजपा की काल्पनिक विजय का उत्सव क्यों मना रहे हैं? उनकी क्या मजबूरी है? क्या उसे नियंत्रित किया गया है ताकि उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनाव परिणाम का कोई असर इसी माह गुजरात विधानसभा के लिए होने वाले चुनाव पर न पड़े? महापौर के पद को छोड़ दिया जाए तो निर्णायक ढंग से जनता ने भाजपा को अस्वीकार किया है जबकि उसने अन्य दलों की तुलना में कहीं अधिक धन खर्च किया और मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को चुनावी सभाओं को सम्बोधित करने मैदान में उतरना पड़ा. जबकि अखिलेश यादव व मायावती ने खुद कोई प्रचार नहीं किया और स्थानीय नेताओं व कार्यकर्ताओं के भरोसे ही रहे.
स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ के करिश्मे फीके पड़ रहे हैं. आम इंसान नोटबंदी, जो असल में नोटबदली थी और जीएसटी से प्रभावित हुआ है. लोगों के व्यवसायों को धक्का लगा है. बेरोजगारी बढ़ी है व आय घटी है. चाहे स्वच्छ भारत अभियान हो, जिसके लिए सरकार अलग से कर (टैक्स) ले रही है अथवा उज्ज्वला योजना जिसमें गैस का कनेक्शन तो मुफ्त मिल जाता है लेकिन गैस सिलिंडर पर कोई सब्सिडी नहीं, इससे लोगों के खर्च बढ़ गए हैं. चूंकि लोगों को किसी भी सरकारी योजना का सीधा लाभ नहीं मिल रहा इसलिए अब वे खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं अथवा ऐसा लग रहा है कि सरकार उन्हें बेईमान समझ कर उनके पैसे के लेन-देन के ऊपर कड़ी निगरानी रख रही है. अर्थव्यवस्था बुरी तरह मंदी के दौर से गुजर रही है और लोगों में निराशा का माहौल है. ऐसे में आश्चर्य होता है कि भाजपा को भारी बहुमत से जिताने जैसा चित्र प्रस्तुत किया जा रहा है.
भाजपा खुद एक खर्चीले संचार अभियान से सत्ता तक पहुंची और लोगों की आंखों में धूल झोंक रही है. संचार माध्यमों को उसने अपने बस में कर लिया है. यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं. जब संचार माध्यम सरकार को जवाबदेह बनाने की अपनी भूमिका छोड़ कर सरकार, या उससे भी बुरे शासक दल के इशारे पर चलने लगे तो जनता को कुछ करना ही पड़ेगा. संचार माध्यम लोकप्रियता खो चुके हैं और एक जनविरोधी सरकार को सत्ता में बनाए रखने की साजिश में शामिल हो गए हैं. यह लोगों के साथ धोखा है. सभी लोगों को हमेशा-हमेशा बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता. संचार माध्यमों द्वारा सरकार के लिए पैदा की गई चमक धुंधली पड़नी शुरू हो गई है.
सरकार के लिए देश के अंदर व बाहर अपनी विश्वसनीयता बनाए रखना संकट का विषय बन गया है. संचार माध्यमों से अलग होकर विश्लेषण करने पर पता चलता है कि नरेंद्र मोदी की तमाम विदेश यात्राओं के बावजूद भारत की हैसियत विश्व पैमाने पर गिरी है. बड़े देशों जैसे अमरीका, चीन व पाकिस्तान से हमारे सम्बन्ध खराब हो गए हैं और नेपाल और मालद्वीप जैसे छोटे देश हम पर भरोसा नहीं करते.
गोरखपुर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में मरने वाले बच्चों के लिए कुछ करने के बजाए योगी आदित्यनाथ धार्मिक मुद्दों को केंद्र में लाना चाहते हैं. अयोध्या फिर चर्चा में है, हालांकि अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण से देश के आम इंसानों की समस्याएं कैसे सुलझेंगी यह वह नहीं बताते. प्रतीकात्मक राजनीति पर जोर है और चूंकि सरकार के पास लोगों को देने के लिए कुछ नहीं, इसलिए वह संचार माध्यमों के भरोसे ही चलना चाहती है. कमल खिलाने में जनपद स्तर पर पार्टी के टिकट वितरण में जिताऊ प्रत्याशी की अनदेखी की गई और जिला स्तर पर आम जनता की जेब पर पड़ रहा डाका भाजपा के लिए आने वाले भारी नुकसान का अभी से संकेत दे रहा है.
इसी वजह से प्रदेश की आधी से भी कम नगर पालिका व नगर पंचायतों मे भाजपा कामयाब नहीं हो पाई. नगर पंचायत व नगर पालिका का चुनाव जिसमें अधिकांश आम जनता की भागीदारी होती है, वहां सत्ता पक्ष की पार्टी का आधी सीटों पर भी अपना परचम न लहरा पाना भाजपा नेताओं, विधायकों, मंत्रियों और ईमानदार मुख्यमंत्री का बेअसर होना बता रहा है. यही कारण है कि नगर पंचायत के 437 निर्ववाचित परिणामों सत्ताधारी भाजपा को आधे से भी कम मात्र सौ सीटों पर संतोष करना पड़ा और 337 नगर पंचायत की सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा. यही हाल नगर पालिका की निर्वाचित 195 सीटों पर भी हुआ. नगर पालिका चुनाव में भी सत्ताधारी पार्टी को आधे से भी कम मात्र 68 सीटों पर जीत मिली और 127 सीटों पर हार का सामना करना पड़ा.
इसने यह साबित किया कि थाना, तहसील, ब्लॉक स्तर तक आम जनता भ्रष्टाचार और उपेक्षा से त्रस्त है और भाजपा का नेता मस्त है. ईमानदार प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के नाम के सहारे मात्र 14 मेयर बनाकर अपनी कामयाबी का ढिंढोरा पीटना अपना उपहास ही उड़ाना है. इस बार के नगर निकाय के चुनाव में बसपा ने भी भाजपा का पीछा नहीं छोड़ा और अलीगढ़, मेरठ जैसे महत्वपूर्ण महानगरों में कमल खिलने से रोक दिया. 14 नगर निगमों में भाजपा को कामयाबी जरूर मिली लेकिन दो नगर निगमों में बसपा अपना मेयर बनाने में कामयाब रही. भाजपा को जश्न की नौटंकी से परहेज कर इस दिशा में मंथन करना चाहिए कि वह नगर पंचायत और नगर पालिका अध्यक्ष पद की आधी सीटों तक भी क्यों नहीं पहुंच पाई.
निकाय चुनाव के दौरान टिकट वितरण में मनमानी और गुटबाजी के कारण भी भाजपा को यह परिणाम देखना पड़ा. इस निकाय चुनाव में समाजवादी पार्टी ने अपने सिम्बल के साथ प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा लेकिन उन्हें जो सफलता की उम्मीद थी वह परिणाम के बाद निराशाजनक दिखी. समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन कांग्रेस पार्टी की अपेक्षा कुछ बेहतर जरूर रहा लेकिन इन दोनों पार्टियों पर मायावती भारी दिखीं. इस नगर निकाय चुनाव में मेयर पद पर सपा और कांग्रेस का खाता न खुलना इस बात की ओर इशारा करता है कि ये दोनों पार्टियां वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव को लेकर जमीनी स्तर पर रणनीति नहीं बना पाई हैं.
2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद निराश बसपा सुप्रीमो मायावती ने क्षोभ में राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा भी दे दिया लेकिन वे इस प्रयास में लगातार जुटी रहीं कि बसपा का जनाधार न खिसके. मायावती को नगर निकाय चुनाव से हमेशा परहेज रहा है और वर्ष 2006 और 2012 में उन्होंने अपने प्रत्याशी भी नहीं उतारे थे, लेकिन इस बार नगर निकाय चुनाव में उन्होंने अपना राजनीतिक अस्तित्व बनाये रखने की कोशिशों के तहत सभी पदों पर अपने प्रत्याशी उतारे. बसपा से जुड़े कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों में भी एकजुटता और सक्रियता दिखी.
जबकि मायावती ने नगर निकाय चुनाव में प्रचार का सारा जिम्मा पार्टी कैडर को सौंपकर खुद को चुनावी सभाओं से दूर रखा. कैडरों की जी-तोड़ मेहनत का परिणाम यह रहा कि मेरठ और अलीगढ़ में बसपा के मेयर प्रत्याशी चुनाव जीतने में सफल रहे. चुनाव परिणाम देखें तो नगर निगमों के चुनाव में बसपा का यह अब तक का सबसे शानदार प्रदर्शन रहा. मेरठ में महापौर के पद पर वर्ष 2000 में बसपा का ही कब्जा था. इस बार के चुनाव में मेरठ और अलीगढ़ में बसपा को जहां सवा लाख वोट मिले वहीं समाजवादी पार्टी चौथे स्थान पर रही. इससे सिद्ध होता है कि इस बार मुस्लिम मतों का झुकाव सपा की अपेक्षा बसपा की ओर ज्यादा रहा. इस चुनाव परिणाम ने इतना तो साफ कर दिया कि आने वाले समय में भाजपा के सामने सपा व कांग्रेस की अपेक्षा बहुजन समाज पार्टी एक मजबूत विपक्ष के रूप में नजर आएगी.
जहां तक समाजवादी पार्टी का मसला है तो नगर निकाय के चुनाव में छितराया हुआ चुनाव प्रबन्धन, टिकट वितरण से पैदा असंतोष, स्थानीय समीकरणों की अनदेखी और पारिवारिक कलह ने सपा को तगड़ा झटका दिया. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि सपा उन क्षेत्रों में भी लड़ाई में दिखी जहां पार्टी का अच्छा-खासा प्रभाव माना जाता है. नगर निकाय के इस चुनाव परिणाम ने साबित कर दिया कि सपा के एमवाई (मुस्लिम/यादव) समीकरण में दरार पड़ने लगी है. महत्वपूर्ण बात यह है कि राजनीतिक दलों में सबसे पहले प्रत्याशित घोषित करने वाली समाजवादी पार्टी का 16 महापौर पदों के चुनाव में खाता तक नहीं खुल सका. यहां तक कि सपा के समर्थन से पिछले चुनाव में हासिल हुई बरेली की मेयर की सीट भी हाथ से निकल गई. कुछ महानगरों में तो सपा तीसरे स्थान पर पहुंच गई. नगर निकाय चुनाव को लोकसभा चुनाव 2019 की तैयारियों का पड़ाव मान रही समाजवादी पार्टी का सबसे
निराशाजनक पक्ष अपने प्रभाव वाले क्षेत्र में भी हार जाना रहा. सपा के वर्तमान संरक्षक मुलायम सिंह यादव के संसदीय क्षेत्र आजमगढ़ में निर्दलियों ने सपा उम्मीदवार को पीछे छोड़ दिया. यहां तक कि इटावा, कन्नौज और फिरोजाबाद से भी सपा को कोई विशेष संतोषजनक परिणाम नहीं मिले. मीरजापुर में नगर पालिका की सीट पूर्व राज्यमंत्री कैलाश चौरसिया के लिए प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ था यहां वह पार्टी नेतृत्व को भरोसा देते हुए जिला पार्टी संगठन से इतर उम्मीदवार को टिकट दिलाने में यह कहते हुए सफल हुए थे कि उसे वह जिताकर लाएंगे, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. तमाम प्रयासों के बाद भी वह अपना उम्मीदवार जीताने में सफल नहीं हो पाए. पार्टी में अंदर ही अंदर चल रही गुटबाजी और विरोध का परिणाम यह रहा कि सपा को हार का मुंह देखना पड़ा है.
मीरजापुर में समाजवादी पार्टी की हार को पूर्व राज्यमंत्री कैलाश चौरसिया के राजनीतिक भविष्य से जोड़ कर देखा जा रहा है. जौनपुर में भी समाजवादी पार्टी के दिग्गज नेता मल्हनी विधायक तथा पूर्व मंत्री पारसनाथ यादव का जलवा काम नहीं कर पाया. राजनीतिक पंडितों की मानें तो सपा किसी भी जिले में एक इकाई के रूप में लड़ती नजर नहीं आई. सपा के अंदरूनी मतभेद का भी असर चुनाव में देखने को मिला. सपा की अखिलेश टीम को इटावा के जसवंतनगर में भी हार का सामना करना पड़ा. इस सीट पर अखिलेश द्वारा उतारे गए प्रत्याशी के सामने शिवपाल यादव ने निर्दलीय रूप से सुनील जॉली को मैदान में उतारा और उसे जिताया. नगर निकाय के इस पूरे चुनाव में निर्दलियों के साथ बागी उम्मीदवारों की बड़ी संख्या में जीत इस बात का इशारा है कि वर्षों-वर्षों तक पार्टी के झंडाबरदार रहे कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों की अनदेखी भारी पड़ सकती है.
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस की लुटिया डुबोने में अपनों का ही हाथ रहा. दूसरे शब्दों में कहें तो नगरीय निकाय चुनाव में कांग्रेस की लुटिया अपनों ने ही डूबा दी. कांग्रेस पार्टी से जुड़े दिग्गजों ने चुनाव प्रचार में दिलचस्पी नहीं दिखाई और न ही चुनाव प्रबन्धन में ही संगठन को उतारा. परिणामस्वरूप अमेठी व रायबरेली जैसे गढ़ में भी कांग्रेस अपनी साख नहीं बचा सकी. कांग्रेस से जुड़े कुछ नेताओं का मानना है कि जिस लापरवाही के साथ यह चुनाव लड़ा गया शायद इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था. बदइन्तजामी का आलम यह रहा कि नगर निकाय चुनाव प्रचार के लिए स्टार प्रचारकों की एक लम्बी-चौड़ी सूची तो जारी की गई लेकिन उनमें से अधिकांश सामने आए ही नहीं. प्रचार के लिए प्रदेश अध्यक्ष राजबब्बर, संजय सिंह और प्रमोद तिवारी ही दौड़ते दिखे. बहुत सी ऐसी बातें है जिनके चलते कांग्रेस को इस चुनाव में एक भी सफलता नहीं मिली.
कुछ जिले ऐसे रहे जहां कांग्रेस का प्रदर्शन उतना निराशाजनक नहीं रहा. गाजियाबाद में कांग्रेस की डॉली शर्मा को भाजपा की विजेता प्रत्याशी आशा शर्मा से कम वोट मिले लेकिन उनका वोट सपा और बसपा प्रत्याशी को मिले वोट से ज्यादा था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में भाजपा की मेयर पद की विजयी प्रत्याशी मृदुला जायसवाल को जहां 1,92,188 मत प्राप्त हुए वहीं दूसरे नम्बर पर रही कांग्रेस की शालिनी यादव को 1,13,345 वोट मिलना कांग्रेस के लिए उत्साहवर्द्धक रहा. वाराणसी में सपा प्रत्याशी तीसरे और बसपा प्रत्याशी चौथे स्थान पर रहे. वाराणसी मेयर पद के चुनाव में एक विचित्र बात यह देखने को मिली कि प्रदेश की सरकार में भाजपा के सहयोगी दल के रूप में शामिल भासपा पार्टी की ओर से आरती पटेल भी चुनाव मैदान में उतरीं जिन्हें मात्र 8,082 वोट प्राप्त हुए.
गिरी साखः भाजपा के मानिन्दों पर उठी उगंली
उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव परिणाम पर नजर डालें तो यह बात सामने आती है कि जिन वार्डों में पार्टी सिम्बल पर चुनाव लड़ रहे सभासद/सदस्य प्रत्याशी के जीतने की उम्मीद थी, वहां उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा और जहां जीत की उम्मीद नहीं थी वहां जीत गए. नगर निकाय चुनाव में कुछ सत्तासीन माननीयों की भी जमकर किरकिरी हुई. मीरजापुर की सांसद और केन्द्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल के करीबी जाने वाले राम कुमार विश्वकर्मा के छोटे भाई नितिन विश्वकर्मा मीरजापुर नपा के संग मोहाल वार्ड से बुरी तरह से चुनाव हार गए. जबकि इन्हें टिकट दिलाने के लिए सांसद ने काफी हाथ पैर मारे थे.
इसी प्रकार मीरजापुर के भाजपा नगर विधायक रत्नाकर मिश्र जो विन्ध्याचल के तीर्थ पुरोहित भी हैं, उनके क्षेत्र में भाजपा की बुरी गत हुई. चुनाव पूर्व अपने एक चहेते को टिकट दिलाने के लिए उन्होंने पार्टी हाईकमान तक दौड़ लगा दी थी लेकिन कामयाबी मिलने की बात तो दूर रही उल्टे इनकी अच्छी खासी भद्द हुई. चुनाव परिणाम आने के बाद इनकी पेशानियों पर बल पड़े हैं. इनके गृह क्षेत्र के तीनों वार्डों में भाजपा सभासद पद का चुनाव हार गई. मजे की बात है कि खुद विधायक ने अपने चालक राधे की पत्नी श्यामा देवी को शिवपुर वार्ड से टिकट दिलाने के लिए एड़ी-चोटी एक कर दिया था, इसमें वह सफल भी हुए लेकिन जब चुनाव परिणाम आया तो हार का रिजल्ट सामने आया. विन्ध्याचल शिवपुर वार्ड से टिकट न मिलने से भाजपा का बागी प्रत्याशी जीतने में सफल रहा.
इसी प्रकार मीरजापुर जिले के मंझवा विधानसभा के कछवां नगर पंचायत, चुनार विधानसभा के चुनार नगर पालिका तथा मड़िहान विधानसभा के अहरौरा नगरपालिका में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा. जबकि यहां तीनों क्षेत्रों में भाजपा के अपने विधायक हैं. बावजूद इसके पार्टी के मिनी सदन में भाजपा को कामयाबी न मिलना चर्चा का विषय बना हुआ है. मीरजापुर जिले की पांचों विधानसभा सीट पर भारतीय जनता पार्टी का कब्जा है. मीरजापुर जिले के मीरजापुर शहर नगर पालिका, चुनार नगर पालिका, अहरौरा नगर पालिका, कछवां नगर पंचायत कुल चार अध्यक्ष के पद हैं.
परन्तु चुनाव परिणाम चौंकाने वाला रहा, केवल मीरजापुर शहर नगरपालिका अध्यक्ष पद पर भाजपा के मनोज जायसवाल पार्टी के अंदरखाने में चल रहे तमाम जोड़तोड़ की नीति के बाद भी चुनाव जीतने में कामयाब हो पाए. चुनार नगर पालिका से कांग्रेस के मंसूर अहमद, अहरौरा नगर पालिका से 20 सालों में पहली बार बसपा के गुलाब मौर्य तथा कछवां नगर पंचायत के चेयरमैन पद पर निर्दलीय डॉ. पीके यादव विजयी रहे. सभासद पद के लिए टिकट वितरण में मनमानी नहीं हुई होती तो मीरजापुर नगर पालिका में भाजपा की ऐतिहासिक जीत होती. अध्यक्ष पद की कुर्सी पर भले ही भाजपा का कब्जा बरकरार है, लेकिन मिनी सदन में उसे सदस्यों की कम संख्या से जूझना पड़ेगा. इसे लेकर भाजपा जिलाध्यक्ष पद पर भी उंगलियां उठने लगी हैं. आरोप लग रहे हैं कि पैसा लेकर मनमाने ढंग से सभासद पद के लिए टिकट वितरण किया गया और पार्टी से जुड़े तथा जिताऊ लोगों का अनादर किया गया.
इसी प्रकार जौनपुर शहर से भाजपा विधायक तथा राज्यमंत्री गिरीश यादव के तमाम प्रयासों के बाद नगर पालिका जौनपुर में कमल खिलाने में कामयाब नहीं हो पाए. यहां बसपा के दिनेश टण्डन का जलवा कायम रहा, उनकी पत्नी माया टण्डन चुनाव जीतने में सफल रहीं. दिनेश टण्डन व्यापारी वर्ग से आते हैं तथा इन्हें जौनपुर नगर में विकास पुरूष के नाम से जाना जाता है. ऐसा इसलिए कहा जाता है कि शायद ही ऐसा कोई गली मुहल्ला न हो जहां इनके नाम के शिलापट्ट न लगे हों. यही कारण है कि यहां बसपा चौथी बार भी इस सीट को बचाने में कामयाब हुई है.
निकाय चुनाव में आए परिणाम से यह संभावना भी जगी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा, कांग्रेस और बसपा गठबंधन कर सकते हैं. सपा-बसपा मिल कर चुनाव लड़ें तो 2019 में भाजपा के लिए यूपी में मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं. पिछले विधान सभा चुनाव में ऐसी चर्चा भी चली थी. अखिलेश यादव ने तो सार्वजनिक रूप से ऐसी सम्भावना जताई थी. मायावती ने भी ‘इन्कार’ नहीं किया था. लेकिन तब बात आगे नहीं बढ़ पाई थी. मायावती विपक्षी दलों के महागठबंधन के लिए भी सशर्त तैयार थीं. उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनाव नतीजों से यह स्पष्ट हुआ कि भारतीय जनता पार्टी की विजय वास्तव में उतनी बड़ी नहीं थी, जितनी मीडिया में बताई गई. यह भी साफ हुआ कि मुस्लिम-बहुल शहरी इलाकों में भाजपा को हराने के लिए मुसलमानों ने एकजुट होकर बहुजन समाज पार्टी को वोट दिया. पिछले विधानसभा चुनाव में मायावती ने जिस समीकरण को लेकर बड़ी कोशिश की थी, वह निकाय चुनाव में कारगर होती दिखी. यह समीकरण समाजवादी पार्टी के लिए चिंता में डालने जैसा है.
प्रदेश के 16 नगर निगमों के मेयरों के चुनाव में 14 पर भाजपा और दो पर बसपा को विजय मिली, इससे मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी को घोर निराशा हाथ लगी. बसपा ने भाजपा से दो मेयर पद छीन लिए. इसके अलावा तीन नगर निगमों में बसपा दूसरे नम्बर पर रही, जबकि सपा को कुछ जगह चौथे स्थान पर रहना पड़ा. सपा पुरोधा मुलायम सिंह यादव ने हाल ही अपने जन्मदिवस पर कहा था कि मुसलमान समाजवादी पार्टी का साथ देते रहे हैं लेकिन इधर पार्टी के नेता उनका समर्थन बनाए रखने का प्रयास नहीं कर रहे है. यह बात निकाय चुनाव परिणामों के मद्देनजर काफी महत्वपूर्ण है.
निकाय चुनाव के परिप्रेक्ष्य में मुसलमानों का बसपा की ओर झुकाव पूरे प्रदेश में तो नहीं दिखाई पड़ा लेकिन सपा से मुसलमानों की दूरी साफ-साफ दिखी. सपा के गढ़ फिरोजाबाद में मुस्लिम मतदाताओं ने असददुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रत्याशी को तरजीह दी, जो दूसरे नम्बर पर रही. जबकि इसी जगह से रामगोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव सांसद हैं. मुरादाबाद और सहारनपुर नगर निगमों में भी सपा के मुस्लिम उम्मीदवार बुरी तरह पिछड़े. मुरादाबाद में मुस्लिम मतों के विभाजन के कारण भाजपा जीती लेकिन दूसरे नम्बर पर कांग्रेस रही, सपा नहीं. ओवैसी की पार्टी का इन निकाय चुनावों में 29 सीटें जीतना भी सपा के लिए खतरे की घंटी है.
प्रदेश के नगर निकाय चुनावों के परिणामों पर नजर डालें तो भाजपा की जीत उतनी चमकदार नहीं दिखती जितनी कि प्रचारित की जा रही है. नगर निगमों के मेयर चुनाव में जरूर उसे भारी सफलता मिली लेकिन यह कोई नई बात नहीं है. 2012 के निकाय चुनावों में, जब यूपी की सत्ता में समाजवादी पार्टी थी और भाजपा का खेमा मोदी अथवा योगी के जादू से प्रफुल्लित नहीं था, तब भी नगर निगमों के 12 में से 10 मेयर पद भाजपा ने जीते थे. शहरी क्षेत्रों में पहले से उसका दबदबा रहा है. 2017 के नगर निकाय चुनाव मोदी और योगी के दौर में इसी वर्ष मार्च में भाजपा की प्रचंड विजय के बाद लड़े गए जिनमें मुख्यमंत्री योगी और उनके पूरे मंत्रिपरिषद ने खूब चुनाव प्रचार किया. नगर निगमों के नतीजे छोड़ दें तो बाकी निकायों में भाजपा का प्रदर्शन फीका ही कहा जाएगा. भाजपा से कहीं ज्यादा सीटें निर्दलियों ने जीतीं. समाजवादी पार्टी का कुल प्रदर्शन भी बहुत खराब नहीं रहा, हालांकि अपने परम्परागत गढ़ों में भी उसे पराजय देखनी पड़ी. बसपा ने भी ठीक-ठाक उपस्थिति दर्ज की.
नगर पालिका परिषद अध्यक्ष के 198 पदों में भाजपा सिर्फ 70 (35 प्रतिशत) पर जीती. सपा ने 45, बसपा ने 29 और निर्दलीयों ने 43 पर विजय पाई. नगर पंचायत अध्यक्ष के 438 पदों में मात्र 100 (करीब 23 प्रतिशत) भाजपा के हिस्से आए. सपा ने 83, बसपा ने 45 और निर्दलीयों ने 182 पद जीते. नगर पालिका परिषद सदस्यों के 64.25 प्रतिशत पद और नगर पंचायत सदस्यों के 71 प्रतिशत पद निर्दलीयों ने जीते. यह स्थिति तब है जब मुख्यमंत्री योगी समेत पूरी प्रदेश सरकार प्रचार में जुटी थी. अखिलेश यादव और मायावती ने अपने को चुनाव प्रचार से दूर रखा. ये चुनाव पहली बार पार्टी और चुनाव चिन्ह के आधार पर लड़े गए. इससे पहले पार्टी-मुक्त चुनाव होते थे. सत्तारूढ़ दल अधिसंख्य निर्वाचित अध्यक्षों एवं सदस्यों को अपना बता देता था. इस बार इसकी कोई सम्भावना नहीं थी. नतीजे साफ बता रहे हैं कि भाजपा को वैसी विजय कतई नहीं मिली जैसी कि बताई गई. भाजपा का वोट प्रतिशत भी विधानसभा चुनाव की तुलना में गिरा है.
अपना गढ़ भी सुरक्षित नहीं रख पाए योगी
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने गढ़ गोरखपुर में भी भाजपा को जीत नहीं दिला पाए. जहां मुख्यमंत्री का गढ़ था वहां से भाजपा का सभासद प्रत्याशी हार गया. गोरखनाथ मंदिर क्षेत्र के अन्तर्गत तीन वार्ड और हैं और इन तीनों पर भाजपा पीछे रही है. कुल मिलाकर प्रदेश का यह निकाय चुनाव परिणाम प्रमुख रूप से सत्तारूढ़ भाजपा को जहां सजग और सचेत रहने के लिए आगाह करने वाला रहा, वहीं बसपा, सपा और कांग्रेस के लिए यह संदेश दे गया कि लोकसभा चुनाव वर्ष 2019 में विपक्षी पार्टियां मजबूती से लड़ें तो सार्थक परिणाम आ सकते हैं.