पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने नवाज शरीफ को पाकिस्तान नेशनल असेंबली का सदस्य बनने के अयोग्य ठहरा दिया है और इस वजह से उन्हें प्रधानमंत्री पद से हटना पड़ा. अगर आप इस फैसले का जायजा लें तो इसे कोई बहुत अच्छा फैसला नहीं कहेंगे. पनामा पेपर्स की जांच अब भी जारी है. इसका अभी कोई निष्कर्ष नहीं निकला है. नवाज शरीफ के रिटर्न में 10 हजार दिरहम का उल्लेख नहीं किया गया है. यह कोई बहुत बड़ी रकम नहीं है. यह रक़म उनके खाते में जमा की गई, लेकिन उन्होंने उसकी निकासी नहीं की. इसी बुनियाद पर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें अयोग्य ठहरा दिया. निश्चित तौर पर पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट भारत के सुप्रीम कोर्ट की तरह ही ताकतवर और स्वतंत्र है, लेकिन तथ्य ये है कि पाकिस्तान की लोकतांत्रिक संरचना कभी भी स्थिर नहीं हो सकी. भारत और पाकिस्तान दोनों एक ही दिन आजाद हुए थे, लेकिन 1947 और 1958 के दौरान 11 वर्षों में पाकिस्तान में 7 प्रधानमंत्री आए और गए. इसके बाद अयूब खान ने मार्शल लॉ लागू कर सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया. हम जानते हैं कि जब एक बार मिलिट्री रूल आ जाती है, तब लोकतंत्र की पुनः बहाली बहुत मुश्किल होती है, भले ही वो नाम का ही लाकतंत्र क्यों न हो? पाकिस्तान की यही हालत रही है. पाकिस्तान के देशप्रेमी लोग भी ये मानेंगे कि सेना एक संस्था के रूप में पाकिस्तान की राजनीति की एक महत्वपूर्ण घटक है. वहां लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई एक सरकार है. वहां मुल्ला और धार्मिक लोग हैं और सेना है. पाकिस्तान की राजनीति और प्रशासन में इन तीनों के पास निभाने के लिए कोई न कोई भूमिका है. यह स्थिति भारत से बिल्कुल अलग है. भारत में विश्व हिन्दू परिषद और आरएसएस के होने के बावजूद शासन में इनकी भूमिका नहीं के बराबर है. सेना का यहां प्रशासन में कोई हस्तक्षेप नहीं है. भारतीय सेना पूरी तरह से सिविलियन शासन के अधीन है. यही सच्चे लोकतंत्र की निशानी है. ऐसा ही पश्चिमी लोकतंत्र, यूएस और यूके में भी है.
भारत के लिए इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि सेना का अधिक हस्तक्षेप होगा. नवाज शरीफ भारत के साथ सम्बन्ध सामान्य बनाना चाहते थे. 1999 में जब मुशर्रफ सत्ता में आए, तब वे भी भारत से सम्बन्ध सामान्य बनाना चाहते थे. वे आगरा आए और चाहते थे कि दोनों देशों के बीच की समस्याओं का समाधान हो जाए. आरएसएस ने वाजपेयी, यशवंत सिन्हा द्वारा तैयार समझौते को सफल नहीं होने दिया. यह अवसर भी हाथ से निकल गया. अब नवाज शरीफ भी चाह कर बहुत कुछ नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वहां सेना का दखल बढ़ गया है. अब जो भी प्रधानमंत्री आएगा, वो नवाज शरीफ से कमजोर होगा. अनिश्चितता का दौर जारी रहेगा.
इधर हम देख रहे हैं कि अमित शाह अचानक काफी सक्रिय हो गए हैं. वे राज्य दर राज्य घूम रहे हैं और ये भी कह रहे हैं कि भाजपा की मौजूदगी पूरे भारत में होगी. केवल मोदी भक्त और संघ के लोग ही इस थ्योरी में विश्वास करेंगे. तमिलनाडु में इनके लिए कोई अवसर नहीं है. ये हो सकता है कि वे डीएमके या अन्ना डीएमके के लोगों को पैसा दें. यदि संक्षेप में कहा जाए तो अमित शाह अभी खुले तौर पर वही काम कर रहे हैं, जो कांग्रेस करती आई है. जहां आपकी मौजूदगी नहीं होगी, जहां जनसमर्थन नहीं होगा, वहां आप मनी पॉलिटिक्स, मसल पॉलिटिक्स करेंगे. लेकिन ये लोग इस सीमा से आगे जाते हैं. जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री बहुत ही सभ्य नेता थे और वे कोई भी काम उचित तरीके से करते थे. कांग्रेस सत्ता की सीमा जानती थी, लेकिन यह सरकार सीबीआई, आईबी का इस्तेमाल कर के भी राजनीति कर सकती है.
दरअसल यह सरकार सेनाध्यक्ष की नियुक्ति खुद को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए कर रही है. यदि सेना समस्याओं का समाधान कर पाती, तो पाकिस्तान बहुत ही प्रगतिशील देश होता. अंग्रेजों ने सारी समस्याओं का समाधान कर दिया होता. हमें आज़ादी की लड़ाई लड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती. आजादी की लड़ाई का मकसद पूर्ण पारदर्शी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के साथ सामाजिक परिवर्तन का था. मौजूदा सरकार की ओर से पिछले तीन-चार महीनों में जो संकेत मिल रहे हैं, वे अच्छे नहीं हैं. सीबीआई ने लालू यादव के यहां छापा मारा. छापा मारने में कुछ भी गलत नहीं है. यह एक प्रक्रिया है. सीबीआई ने कर्नाटक के एक मंत्री के घर पर छापा मारा, जिसके गेस्ट हाउस में राज्य सभा चुनाव के मद्देनजर गुजरात के विधायक रुके थे. यह बहुत ही भौंडा है. आप इतने भौंडे कैसे हो सकते हैं? बहरहाल आप सत्ता में हैं, आपको यह करने का अधिकार है और आप सत्ता का इस्तेमाल कर रहे हैं. विपक्ष सत्ता नहीं छीन रहा है. यह खबर आ रही है कि शिवकुमार के यहां से 11 करोड़ रुपए बरामद हुए हैं, जबकि आयकर विभाग कह रहा है कि उनके यहां से कोई पैसा ज़ब्त नहीं किया गया है. ठीक है, लोकतंत्र में प्रोपेगेंडा का अपना स्थान होता है. सभी टीवी चैनलों और अख़बारों को भाजपा की तरफ से बहुत पैसा दिया गया है. यह लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है. हम इस पर आपत्ति नहीं जता सकते हैं. पहले की सरकारें भी इस तरह के हथकंडे अपनाती थीं, लेकिन भाजपा उनसे दस गुना अधिक और अधिक खुले ढंग से कर रही है. यह उनके काम करने का फासिस्ट नजरिया है और देश उससे गुज़र रहा है. तय है कि यह तरीका कामयाब नहीं होगा. इंदिरा गांधी का आपातकाल 19 महीने तक चला था. इसके बाद उन्होंने चुनाव करवाया था, जो नतीजा आया वो सबके सामने था. भाजपा ये सब जितना अधिक करेगी, उतना ही अधिक उसका नुकसान होगा. यह सही है कि उनका मज़बूत पक्ष यह है कि कांग्रेस इस समय सुनियोजित नहीं है. नरेन्द्र मोदी गवर्नेंस छोड़ कर 2019 की तैयारी में लग गए हैं. इसमें कोई आपत्ति की बात नहीं है. राजनीति में यह एक अवसर की तरह होता है, यदि विपक्ष कहीं न हो. 2019 चुनाव जीतने का उनके पास अवसर है.
बिहार में लालू प्रसाद यादव के यहां सीबीआई का छापा योजनाबद्ध तरीके से मारा गया था. मकसद था नीतीश को उलझाना, ताकि अपनी छवि बचाने के लिए वे लालू का साथ छोड़ दें. भाजपा ने नीतीश के साथ समझौता किया और सरकार बनाने में उनकी मदद की. अब यह कहा जा रहा है कि नीतीश भाजपा के साथ आ गए हैं, कैसे? नीतीश अब भी मुख्यमंत्री हैं. भाजपा ने उन्हें एक बार फिर समर्थन दिया है, क्यों? आपके पास 56 सीटें हैं और उत्तर प्रदेश में आप इतने लोकप्रिय हैं तो भाजपा ने बिहार चुनाव करवाने पर जोर क्यों नहीं दिया. ये ठीक है कि राजनैतिक दांवपेंच की अपनी सीमाएं होती हैं. अमित शाह की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए कोई यह नहीं कह सकता कि वे संसदीय आचरण से काम लेंगे. जैसे कि ख़बरें आ रही हैं कि पहले कमज़ोर विधायकों को फंसाओ, फिर उन्हें खरीद लो और यह प्रचार करो कि प्रधानमंत्री ने जो काम किया है, वो पहले कभी नहीं हुआ. बहरहाल इन चीज़ों की अपनी सीमाएं होती हैं. विपक्ष की कमजोरी यह है कि मीडिया ने उन्हें निराश किया है.
आपातकाल के दौरान भी मीडिया ने ऐसा किया था, लेकिन उस समय सेंसरशिप थी, लेकिन फिलहाल वे खुद ही ऐसा कर रहे हैं. ज़ाहिर है अपने फायदे के लिए वे ऐसा कर रहे हैं. कुल मिलाकर कहा जाए तो लोकतंत्र के लिए यह अच्छा समय नहीं है. भाजपा के लिए अच्छा समय है, कांग्रेस के लिए चुनौतीपूर्ण समय है. देखते हैं क्या होता है?