अब तक 20 प्रतिशत की ही राजनीति करती रही है भारतीय जनता पार्टी
अब 40 फीसदी पिछड़े, 20 फीसदी दलित और 20 फीसदी मुसलमानों को भी साथ लेकर चलेंगे
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव का माहौल धीरे-धीरे सरगर्म होता जा रहा है. दिल्ली और बिहार विधानसभा के चुनाव में मिली हार के बाद भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में उतरने के पहले फूंक-फूंक कर कदम रख रही है. ऐसा दिख रहा है कि भाजपा वैचारिक बदलाव की प्रक्रिया में है. कई ज्वलंत मसले हैं जिन पर भाजपा के विचार पहले कुछ और थे अब कुछ और. ऐसे कई मुद्दों पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के खास दूत और उत्तर प्रदेश भाजपा के महामंत्री (संगठन) सुनील बंसल से प्रभात रंजन दीन की पिछले दिनों विस्तार से बातचीत हुई. उस बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं…
सवालः भाजपा अपने ही मुद्दों से अलग हटती दिखाई दे रही है. राम मंदिर का मसला हो या समान आचार संहिता का या धारा-370 का. धर्म के विचार-बिन्दु से अलग हटकर व्यापक जातीय समीकरणों को दुरुस्त करने पर भाजपा का अधिक ध्यान है. पार्टी पर जिन लोगों या समुदायों का पारंपरिक वर्चस्व रहा है, वह तेजी से टूट रहा है. चुनाव के संवेदनशील समय में इसका नकारात्मक असर भी पड़ेगा. इससे कैसे निपटेंगे? क्या भाजपा सम्पूर्ण वैचारिक बदलाव की प्रक्रिया में है?
बंसलः देखिए मेरा ऐसा मानना है कि बहुत वर्षों से भारतीय जनता पार्टी, मेरा जो विश्लेषण है कि हम 20 प्रतिशत की राजनीति करते रहे हैं. उत्तर प्रदेश में भी यही हुआ है. जो हमारा अपना है, जो भाजपा के साथ जुड़ा रहा है, चाहे वह ब्राह्मण हो, ठाकुर हो या वैश्य हो. यह बड़ा समुदाय भाजपा की पारंपरिक ताकत के रूप में रहा. राम मंदिर आंदोलन के कारण ब्राह्मण वर्ग भी बड़ी तादाद में भाजपा के साथ जुड़ा. लेकिन हम उसी 20 प्रतिशत के बीच की ही राजनीति करते रहे. हमने 40 प्रतिशत पिछड़ों और 20 प्रतिशत दलितों की तरफ ध्यान नहीं दिया, यह 60 फीसदी वर्ग हमसे छूटता चला गया. पिछले कई साल से भाजपा पर एक टैग लगा कि भाजपा शहरी लोगों की पार्टी है, भाजपा अगड़े लोगों की पार्टी है, भाजपा अमीर लोगों की पार्टी है. ऐसे टैग लगाते थे लोग. इसमें कुछ सत्य भी था. चुनावों में हम शहरों में ज्यादा जीतते थे और ग्रामीण इलाकों में कम जीतते थे. लोग कहते थे कि यह तो शहरियों की पार्टी है. जीतने वालों में पिछड़े और दलित कम होते थे और अगड़ी जाति के अधिक होते थे. उत्तर प्रदेश में भाजपा को आगे बढ़ाने के लिए सौ प्रतिशत की राजनीति करनी होगी. 20 प्रतिशत के आधार पर आप संगठन तो चला सकते हैं लेकिन सरकार नहीं बना सकते. व्यापक राजनीति के लिए हमें सौ प्रतिशत की राजनीति करनी होगी. अगर भाजपा को प्रदेश में सरकार बनानी है तो सभी को साथ लेकर चलना पड़ेगा, जो हमारा अपना भी है उसे भी और जो हमसे दूर चला गया है, उसे भी. जैसे कल्याण सिंह जी के समय बहुत सारे लोग साथ थे, बाद में दूर चले गए, उन्हें फिर से साथ लाया जा रहा है. सबको साथ लाना ही होगा. अगर भाजपा को उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने की दिशा में बढ़ना है तो हमें सबको साथ लेकर चलना होगा, सबको मतलब मैं 20 प्रतिशत मुस्लिमों को भी साथ लेकर चलने की बात कर रहा हूं. हमें 20 फीसदी मुस्लिमों के बारे में भी सोचना होगा. हम यह नहीं कर सकते कि मुस्लिम समाज की उपेक्षा करके राजनीति करें. उन्हें अलग करके नहीं देखा जा सकता. हम वोटों को बांटकर राजनीति नहीं कर सकते कि यह वोट मुसलमानों का है या यह वोट मायावती है, यह वोट इनका है या उनका है. यानी, सबको दूर करके और अपनी ही गुफा में सीमित रहकर हम व्यापक राजनीति नहीं कर सकते. हमने जब यह प्रयोग शुरू किया तो उसका बेहतरीन उदाहरण सामने आया. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने प्रदेश का प्रभारी होने के नाते लोकसभा चुनाव के पहले एक साल तक गहराई से अध्ययन किया और इसे देखते हुए ही लोकसभा चुनाव में सामाजिक, सर्वस्पर्शी, सब लोगों को साथ लेकर चलने का प्रयास किया, जिसका नतीजा लोकसभा चुनाव में हम 73 सीटें जीतकर आए. दलित और पिछड़े समाज के सभी वर्गों के बीच इतना अच्छा टिकट वितरण हुआ कि छोटे-छोटे समाज के लोग जो भाजपा से अलग थे या अपना नहीं मानते थे, वे सब भी जीते और भाजपा से जुड़े. यादव समुदाय का भी वोट हमें मिला. जाटव समाज का भी वोट मिला. हमने जाटव समाज के लोगों को भी लड़ाया और जिताया. इसका अर्थ क्या है कि समाज तैयार है, लोग तैयार हैं, हम उन्हें अपना तो कहें और अपना तो मानें. इस आधार पर योजना बनाई गई तो परिणाम अच्छा आ गया. मेरा मानना भी यही है कि उत्तर प्रदेश में जो हमारे हैं वे तो हैं ही, उन्हें साथ लेकर चलना है, उनकी चिंता करनी है, उनको महत्व मिलना चाहिए क्योंकि पार्टी तो उन्होंने खड़ी की, जिंदगी तो उन्होंने लगाई, इसलिए उन सबकी भी चिंता करनी है, लेकिन राजनीति में आगे बढ़ना है तो सबको साथ लेकर चलना ही होगा. जो आपने कहा ठीक है, कुछ ऐसे लोग हैं जो अपना वर्चस्व टूटता देखकर नकारात्मक चर्चाएं करते हैं, या नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते हैं, लेकिन हम जिस प्रकार की योजनाएं बना रहे हैं, उसमें भाजपा में सभी लोग साथ में रहेंगे.
सवालः राम मंदिर निर्माण का मसला भाजपा के लिए प्राथमिकता पर नहीं रहा. सौ प्रतिशत को साथ लेकर चलने के तर्क में समान आचार संहिता और धारा-370 के मसले से बचने का उपाय तलाशता हुआ भाजपा का चेहरा नज़र आता है. उत्तर प्रदेश में चुनाव सामने है, इसे लेकर आप लोगों को क्या जवाब देंगे? राम मंदिर चुनाव का मसला बनेगा कि नहीं?
बंसलः देखिए हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह जी ने स्पष्ट कहा है कि राम मंदिर हमारे लिए चुनाव का मसला नहीं है. यह हमारी आस्था का मसला है. जब भी चुनाव आता है तो राम मंदिर की चर्चा शुरू हो जाती है. सिंहस्थ कुंभ में भी साधु-संतों ने यह मांग की. चलेगा यह सब, इस तरह की चर्चाएं तो चलती रहेंगी. लेकिन यह स्पष्ट है कि राम मंदिर भाजपा का चुनावी मुद्दा नहीं है. हम राम मंदिर के मुद्दे पर चुनाव नहीं लड़ना चाहते, राम मंदिर हमारा पॉलिटिकल एजेंडा नहीं है.
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सवालः अभी कुछ दिनों पहले राम मंदिर की चर्चा खूब तेज हुई. सुब्रमण्यम स्वामी तो यहां तक बोल गए कि एक महीने के अंदर ही मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त हो जाएगा. लेकिन फिर भाजपा ने अचानक चुप्पी साध ली. भाजपा ने अचानक अपना पैंतरा क्यों बदल लिया?
बंसलः देखिए राम मंदिर को लेकर हमने कोई पैंतरा या रणनीति नहीं बदली. हमारा स्पष्ट मानना है कि यह करना ठीक नहीं है. राम मंदिर चुनावी मसला नहीं है, यह आस्था का विषय है. हमारा कमिटमेंट है कि राम मंदिर बने, लेकिन उसको चुनावी इश्यू बनाकर, एजेंडा बनाकर करने का कोई लाभ नहीं है.
सवालः नए प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्य जिस जाति से आते हैं, उसे प्रभावशाली राजनीतिक फैक्टर के रूप में कभी नहीं देखा गया. आप इसका क्या फायदा देखते हैं? पिछड़ा वर्ग की अन्य दबंग व प्रभावशाली जातियों के कद्दावर नेताओं को पार्टी में शरीक कराने की अंदरूनी तैयारियां पटल पर कब आ रही हैं, क्योंकि समय तो अब परिपक्व हो चुका है, इसे उद्घाटित करने का?
बंसलः ऐसा है कि मैंने पहले भी कहा कि अब सौ प्रतिशत सबको साथ लेकर चलने की योजना पर पार्टी अग्रसर है. हम किसी भी वरिष्ठ नेता का अपनी पार्टी में सम्मान के साथ स्वागत करने को तैयार हैं. जहां तक केशव मौर्य को अध्यक्ष बनाए जाने का मसला है, वे पार्टी के पुराने समर्पित कार्यकर्ता हैं, संगठन के सिस्टम से निकले हुए हैं और दूसरे कि वो जिस समुदाय से आते हैं उनमें भी बहुत उत्साह है और वे पार्टी से बड़े पैमाने पर जुड़ रहे हैं. लोकसभा चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश का सोशल कॉम्बिनेशन बदला है. यह सहज है कि अब लोग भाजपा के साथ जुड़ रहे हैं. इस तरह का अब सहज-स्वाभाविक माहौल बन रहा है. मैं अभी किसी बड़े नेता का नाम स्पष्ट तौर पर नहीं ले रहा, लेकिन ऐसे बड़े नेता जो कांग्रेस में हों या बसपा में हों या समाजवादी पार्टी में हों और वहां खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हों या परेशान हों तो भाजपा उनका स्वागत करेगी और सम्मान देगी. देखिए, पॉलिटिक्स में ऐसी कई बातें होती हैं, क्या होता है, क्या निर्णय होगा, अंतिम समय तक पता नहीं होता. जहां तक भाजपा के लीडरशिप का प्रसंग है तो मैं यह कह सकता हूं कि लोकसभा चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी में हर जाति और हर समुदाय का प्रभावी नेता उभर कर सामने आया है.
सवालः इस बार उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने के लिए भारतीय जनता पार्टी जोन वाइज़ चुनाव लड़ने की रणनीति बना रही है. जोन को महत्वपूर्ण दायित्व देकर और उसे परिणामकारी बनाकर चुनाव लड़ने की रणनीति क्या पार्टी के लिए व्यावहारिक साबित होगी? या यह फार्मूला प्रति-उत्पादी (काउंटर प्रोडक्टिव) साबित होगा?
बंसलः ऐसा है कि भाजपा में पहले से जोन बने हुए हैं. यह कोई नई बात नहीं है. प्रदेश में आठ जोन हैं. उसके अध्यक्ष हैं, कार्यकारिणी है, बाकायदा पूरी टीम है. ये जोन स्टेट की फंक्शनिंग का हिस्सा हैं, जो जिले और प्रदेश के बीच में कड़ी का काम करते हैं. अब आठ जोन को कम कर छह जोनों में तब्दील किया जा रहा है. उत्तर प्रदेश इतना बड़ा प्रांत है कि इलेक्शन मैनेजमेंट को कारगर तरीके से परिणामकारी बनाने के लिए छह जोनों को प्रभावकारी बनाया जाना आवश्यक है. छह जोन इतने ताकतवर हों कि चुनाव प्रचार अभियान से लेकर दूसरी व्यवस्थाएं सब कारगर तरीके से हो सकें और उसकी सटीक मॉनिटरिंग की जा सके, यह अकेले लखनऊ से संभव नहीं.
सवालः उत्तर प्रदेश की सारी राजनीतिक पार्टियों में चुनावी सरगर्मियां और तैयारियां दिख रही हैं. लेकिन भाजपा की तैयारी पटल पर कहीं नहीं दिख रही. यह रणनीति का हिस्सा है या तैयारी का अभाव है?
बंसलः भाजपा की तैयारी तो पिछले छह महीने से चल रही है. बूथों के गठन का काम चल रहा है. एक लाख 40 हजार बूथों में से एक लाख 13 हजार बूथों का गठन हो चुका है, मई महीने तक बूथों के गठन का बाकी काम भी पूरा हो जाएगा. बूथों के गठन के काम को साथ-साथ वैरीफाइ भी किया जा रहा है. वोटर लिस्ट के द्वारा और दूसरे दस्तावेजों के जरिए. कुल बूथ हैं एक लाख 40 हजार. ग्रामोदय से भारत उदय कार्यक्रम के तहत 56 हजार ग्राम पंचायतों में से करीब 36 हजार ग्राम पंचायतों में भाजपा के कार्यकर्ता गए और मोदी सरकार के कामकाज और उपलब्धियों को लोगों को बताया. गांवों में छोटी-छोटी चौपालें लगाकर लोगों से संवाद बनाया. हम लोग 56 हजार ग्राम पंचायतों में जाएंगे. चुनाव की तैयारियां तो हमारी चल रही हैं, लेकिन बहुत ही साइलेंटली ग्राउंड लेवल पर चल रही हैं. यह रणनीति है, यह ग्राउंड लेवल पर हमारा कैंपेन है, जिसका असर चुनाव में दिखेगा.
सवालः प्रदेश अध्यक्ष चुनने में देरी क्यों हुई? अभी तमाम कमेटियां बननी बाकी हैं, प्रदेश कार्यकारिणी का गठन होना अभी बाकी ही है. तो पार्टी चुनाव कब लड़ेगी?
बंसलः प्रदेश अध्यक्ष बनने में तकरीबन एक महीने की देरी हुई यह मानता हूं. देर तो हुआ लेकिन दुरुस्त हुआ. इसका एक पॉलिटिकल इम्पैक्ट भी पूरे उत्तर प्रदेश में पड़ा है. इसलिए उस दृष्टि से बाकी होमवर्क पूरा करके रखा हुआ था. मई तक संगठनात्मक काम पूरा कर लिया जाएगा. जिला अध्यक्षों के चयन का काम करीब-करीब पूरा कर लिया गया है. मई में ही जिला कमेटियां बन जाएंगी और प्रदेश कार्यकारिणी का भी गठन कर लिया जाएगा. नया संगठनात्मक ढांचा खड़ा करने का काम मई महीने में पूरा हो जाएगा, यानी इससे अधिक डिले हम और नहीं करेंगे और उसके बाद हम सब चुनावी प्रक्रियाओं में उतर जाएंगे.
सवालः नए अध्यक्ष को अपने मुताबिक टीम चुनने का कोई मौका नहीं मिला. अध्यक्ष चुने जाने के पहले ही तकरीबन 50 जिला अध्यक्ष चुन लिए गए थे. यह कौन सी लोकतांत्रिक प्रक्रिया है?
बंसलः भाजपा में संगठन के चुनाव की एक प्रक्रिया है जिसे प्रत्येक तीन वर्ष के अंतराल में पूरा किया जाता है. बूथ से लेकर राष्ट्रीय अध्यक्ष तक. सबसे पहला काम बूथ इकाई का अध्यक्ष चुनना, उसके बाद उनके माध्यम से मंडल अध्यक्ष चुनना और मंडल अध्यक्षों के जरिए जिला अध्यक्षों का चुनाव कराना. इसके बाद जिला अध्यक्ष ही प्रदेश के अध्यक्ष को चुनते हैं. इस प्रक्रिया के लिहाज से यह तो जरूरी है न कि प्रदेश अध्यक्ष के पहले जिला अध्यक्ष चुन लिए जाएं.
सवालः अव्वल तो उत्तर प्रदेश में जिला अध्यक्षों का चयन चुनाव की प्रक्रिया से तो हुआ ही नहीं. चुनाव की प्रक्रिया के दरम्यान मतभेद, गुटबाजी और हिंसा जैसी कई घटनाएं सतह पर आईं. बाद में सारा निर्णय बंद कमरे में ही लेना पड़ा. प्रदेश अध्यक्ष चुने जाने के पहले करीब 50 जिला अध्यक्ष चयनित हुए. आप कहते हैं कि सारे जिला अध्यक्ष मिलकर नया प्रदेश अध्यक्ष चुनते हैं तो सारे जिला अध्यक्ष पहले ही क्यों नहीं चुन लिए गए, 25 छोड़ क्यों दिए गए? जिला अध्यक्षों को अपना प्रदेश अध्यक्ष चुनने का मौका क्यों नहीं दिया गया? राष्ट्रीय अध्यक्ष ने अपने मन और अपने पसंद का प्रदेश अध्यक्ष कैसे मनोनीत कर दिया? इससे क्या लोकतांत्रिक प्रक्रिया बाधित नहीं हुई?
बंसलः सामान्यतः चुनाव का अर्थ यह ही नहीं है कि वोट डले. चुनाव का अर्थ यह भी है कि सर्वसम्मति से सब लोग मिलकर चुन लें. भारतीय जनता पार्टी में हमने उस प्रक्रिया को अपनाया कि सब मिलकर के चुन लें, इससे संगठन का समूहिक निर्णय उभरकर सामने आता है. इस बार के जिला अध्यक्षों के चुनाव में सामूहिक निर्णय के आधार पर ही, यानी चुनाव अधिकारी गए, मंडल अध्यक्षों से राय ली, वरिष्ठ नेताओं से बात की और इस आधार पर जो पैनल बना, उस आधार पर ही जिला अध्यक्ष चुने गए. इस बार अपनाई गई इस प्रक्रिया में कहीं से भी कोई विरोध सामने नहीं आया. जिला अध्यक्ष और एक प्रतिनिधि चुना जाता है जो प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव में वोटर होता है. वही प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव करता है. इस तरह प्रदेश अध्यक्ष चुने जाने की बाकायदा एक प्रक्रिया रहती है.
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सवालः यानी, कागज पर सारी प्रक्रियाएं अपनाई जाती हैं. केशव जी का चयन तो उस प्रक्रिया से हुआ नहीं. केशव जी का चयन तो राष्ट्रीय अध्यक्ष के मनोनयन से हुआ?
बंसलः हां, केशव जी का चयन नहीं हुआ, उनका मनोयन हुआ. 50 प्रतिशत अगर जिला अध्यक्ष चुन लिए गए हों तो प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव हो सकता है. इसी तरह अगर 50 प्रतिशत प्रदेश अध्यक्ष चुन लिए गए हों तो राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने जा सकते हैं. राष्ट्रीय अध्यक्ष का चयन हो जाने के बाद चुनाव की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है. इसके बाद जो होगा वह राष्ट्रीय अध्यक्ष के मनोनयन से ही होगा. राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा केशव जी प्रदेश अध्यक्ष मनोनीत कर दिए गए. अब केशव जी बचे हुए जिला अध्यक्षों को मनोनीत कर रहे हैं.
सवालः बड़े-बड़े नेताओं के छोटे-छोटे हित जो पार्टी का नुकसान पहुंचा रहे हैं, उससे निबटने की कोई रणनीति है कि नहीं?
बंसलः वरिष्ठों का पार्टी में सम्मान रहना चाहिए. देखिए हमारा मानना है कि भाजपा में जो भी हमारे ऐसे सहयोगी हैं, उनका भी तो सपना है कि भाजपा प्रदेश में फिर से ताकतवर बने. भाजपा अगर आगे नहीं बढ़ेगी तो मैं कैसे आगे बढ़ूंगा. अगर भाजपा की सरकार नहीं बनती है तो मैं भी छोटा ही नेता बना रहूंगा. सरकार बनेगी तो सबका कद बढ़ेगा. इसलिए सब लोगों का संगठन में उपयोग करते हुए और सबको साथ लेकर चलने की रणनीति हम बना रहे हैं, उससे कोई अपने आपको अलग नहीं समझे. सबको साथ लेकर चलने से ही हम आगे बढ़ सकते हैं. ऐसा नहीं हो सकता कि हम पुरानों को छोड़ दें और नए को आगे लेकर चलें.
सवालः हर सुबह एक चर्चा होती है कि बंसल तो आज जा रहे हैं, इसका फीडबैक आपको भी मिलता होगा. इसका कैडर में नकारात्मक असर जा रहा है. यह चर्चा बहुत ही नियोजित तरीके से फैलाई जा रही है. इस तरह की नकारात्मक चर्चाएं पार्टी के उन कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ती हैं कि नहीं, जो नई व्यवस्था में प्रतिबद्धता से संलग्न हैं? आप इन स्थितियों से निपटने के लिए क्या कर रहे हैं?
बंसलः सामान्यतः मेरा काफी लंबा समय हो गया सामाजिक जीवन में काम करते हुए. लगभग 26 साल लग गया सामाजिक काम में. ऐसे विषयों में मेरा मानना है कि अपना काम ईमानदारी से करते चलना है. इसी मूल मंत्र पर चलने के कारण मैं न परेशान होता हूं और न निराश होता हूं. मेरा काम है करना, इसी कारण से धीरे-धीरे जो ऐसे लोग हैं वो अपने आप संगठन में आइसोलेट हो रहे हैं. अपने आप हो रहा है यह सब. उनके लिए ऐसा अलग से करने की जरूरत नहीं है. क्योंकि एक बड़ा वर्ग है जिसके मन में बहुत उत्साह है. कार्यकर्ता ग्राउंड पर चाहता है कि भाजपा खड़ी हो तभी तो वह मोटिवेट होकर उत्तर प्रदेश में दो करोड़ तीन लाख सदस्य बना लेता है. जबकि हम लोगों ने डेढ़ करोड़ का लक्ष्य रखा था. यह कुछ लोग नहीं हैं बल्कि भाजपा के लाखों कार्यकर्ता हैं जो जमीनी स्तर पर काम करते हैं. भाजपा का कार्यकर्ता 50 लाख फॉर्म भरवाकर ले आता है, इसे आप क्या कहेंगे. दो करोड़ तीन लाख सदस्यों का पूरा डाटा पार्टी के पास है, जिलावार, बूथवार और विधानसभावार. जिन्हें लगता है कि उनकी मोनोपॉली समाप्त हो रही है, यह दरअसल दोष किसी व्यक्ति विशेष का नहीं है. यह एक माइंडसेट बन गया है एक लंबे समय के दरम्यान. उनके दिमाग में यह स्थापित हुआ है कि भाजपा में गुटबाजी होगी, जातिवाद होगा, परिक्रमा होगी, नेताओं के आगे-पीछे घूमो, लोगों ने वर्षों से यही राजनीति की है. जो देखा उसी की नकल पर चलते रहे और पूरी पार्टी परिक्रमा और मिठाई के पैकेट पर चलती रही. यही बड़े नेताओं ने दिखाया, बताया और सबने यही सीखा. लेकिन जब हम लोगों ने जमीनी स्तर पर काम शुरू किया तो यह मैसेज गया कि काम करो तभी पार्टी में आगे बढ़ सकोगे.
सवालः नई व्यवस्था के तहत अब सांगठनिक बैठकों में भाषण प्रतियोगिता का ऊबाऊ चलन समाप्त हुआ है. अब चुने हुए लोग ही बोलते हैं और प्रोडक्टिव बैठकें होती हैं. इससे बातबहादुर नेता नाखुश हैं, इसे आप कैसे देखते हैं?
बंसलः उसमें कई समस्याएं थीं. पहले तो छह महीने मैंने कई बातें ऑब्ज़र्ब कीं. बैठक में मंच पर पीछे से कुर्सियां उठ उठ कर आती रहती थीं और धीरे-धीरे मंच नेताओं से भर जाता था. फिर स्वागत का क्रम चलता था, देर तक माल्यार्पण ही चलता रहता था. फिर भाषण का क्रम शुरू होता था. सामने बैठा कार्यकर्ता ऊबता था, ऊंघता था. उसकी मजबूरी थी कि वह नेताओं के भाषण सुनना ड्यूटी समझता था. फिर मैंने समझा कि यह ठीक नहीं है. मीटिंग में आने की औपचारिकता पूरी करने के चलन को मैंने रोका. बैठक को प्रोडक्टिव बनाया. अब बैठकें होती हैं और उनमें समय का रचनात्मक इस्तेमाल होता है. अब मैंने पूरे सिस्टम को टू-वे कर दिया है, ताकि कार्यकर्ता भी अपना सीधा जुड़ाव महसूस कर सकें. बिना इन्वॉल्वमेंट के सफलता नहीं मिल सकती.
सवालः चलते-चलते यह सवाल भी… देश के खिलाफ अब खुलेआम नारे लग रहे हैं, संविधान और क़ानून के डर का आवरण जैसे खत्म होता दिख रहा है. आपकी राष्ट्रवादी सरकार इससे निपटने में डरती क्यों है? क्या केवल भारत माता की जय कहने से काम चल जाएगा?
बंसलः ऐसा लगता है कि और कठोर क़ानून बनाने की आवश्यकता है. देश के साथ कोई समझौता नहीं होना चाहिए. ऐसे क़ानून जिसका सहारा लेकर ऐसे तत्व बच जाते हैं, उसे रोकने के लिए और सख्त क़ानून लाने की जरूरत है. इस मसले पर समाज में जागरूकता पैदा हुई है, यह सकारात्मक संकेत है.