बिहार विधान सभा से पारित निजी विश्वविद्यालय स्थापना सम्बन्धी विधेयक द्वारा प्रशस्त प्रस्तावित पांच नये विश्वविद्यालयों के अस्तित्व में आ जाने के बाद यह आशा की जा रही है कि राज्य में मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेन्ट समेत वोकेशनल व सामान्य कोर्स की प़ढाई को उ़डान मिलेगी और राज्य सरकार 2020 तक अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर होगी.
शिक्षा प्रणाली के नीतिकारों को इस बात की खुशी है कि पर्याप्त उच्च शिक्षण संस्थाओं की कमी झेल रहे बिहार में प्रस्तावित सीवी रमण विश्वविद्यालय वैशाली, जागेश्वरी मेमोरियल विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर, संदीव यूनिवर्सिटी मधुबनी, अल करीम यूनिवर्सिटी कटिहार और केके यूनिवर्सिटी नालंदा की विधिवत स्थापना के बाद विश्वविद्यालयों की कुल संख्या 26 हो जायेगी.
इनमें 14 राज्य विश्वविद्यालय, 7 केन्द्रीय विश्वविद्यालय और 5 निजी विश्वविद्यालय होंगे. लेकिन क्या संख्यात्मक दृष्टि से होने वाली प्रगति बिहार के उच्च शिक्षा जगत में परिव्याप्त नैराश्यपूर्ण वातावरण को समाप्त कर पायेगी! राष्ट्रीय स्तर पर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता, विस्तार और वास्तविकता को मापने के लिए 2011 में स्थापित अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण रिर्पोट में दस करो़ड की आबादी वाले बिहार को अंतिम पायदान पर रखा गया है.
आंक़डे बताते हैं कि बिहार के 38 जिलों में 25 जिले शैक्षणिक दृष्टि से पिछ़डे हैं. लम्बे समय से उच्च शिक्षा की अनवरत उपेक्षा का परिणाम यह निकला है कि अठारह वर्ष से लेकर 23 वर्ष के आयुवर्ग वाले इच्छुक एवं योग्य शिक्षार्थियों के लिए बिहार में प्रति एक लाख जनसंख्या पर मात्र छह महाविद्यालय हैं. जबकि मौजूदा दौर में राष्ट्रीय औसत प्रति एक लाख छात्रों पर 26 महाविद्यालयों का है.
भारत के आरंभिक पच्चीस विश्वविद्यालयों में एक और बिहार के आरंभिक विश्वविद्यालयों में पटना विश्वविद्यालय के बाद दूसरे क्रम मे आने वाले बी आर अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय की दुर्दशा को देखकर अब शायद ही कोई इस बात पर विश्वास करेगा कि कभी डॉ राजेन्द्र प्रसाद, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, आचार्य कृपलानी, डा. के. के. दत्त सरीखे विद्वतजनों ने इस संस्थान को अपनी मेधा से सींचा था. विगत दो ढाई वर्षों के अन्दर वर्तमान कुलपति डा. पंडित पलांडे के नेतृत्व में नि:सन्देह विश्वविद्यालय सचिवालय की प्राचीरें ऊंची हुई हैं, प्रशासनिक भवन को रंग रोगन कर सजाया-संवारा गया है, सोलर प्लांट लगाकर कुछ नया करने की प्रतिबद्धता को लोकस्वीकृति दिलाई गई है.
लगातार दो दीक्षंात समारोहों का आयोजन हुआ और विश्वविद्यालय ने राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद (नैक) मूल्यांकन में बी ग्रेड प्राप्त कर प्रशस्ति पाई है. पर ये समस्त उपलब्धियां उस समय छोटी लगने लगती हैं, जब विश्वविद्यालय प्रशासन पर ये आरोप लगते हैं कि वोकेसनल एवं सेल्फ फाइनेंस्ड कोर्स के नाम पर छात्रों से नाजायज फीस वसूली जा रही है, कई विभागों में वित्तीय अनियमितता बरती जा रही है, पास को फेल और फेल को पास कराने का संगठित उद्यम चल रहा है और गैर शिक्षकों के द्वारा परीक्षण कार्य कराए जा रहे हैं.
विश्वविद्यालय के सर्वोच्च पदों पर आसीन विद्वतजनों की भूमिका भी कम संदिग्ध नहीं है. विगत दो वर्षों के अन्दर विश्वविद्यालय के ऊपर जितने भी आरोप लगे, आज तक न किसी की जांच पूरी हुई और न ही किसी भी मामले में दोषियों पर कार्रवाई की गई. 2014 की होम्योपैथी परीक्षा में परीक्षण के दौरान सादी उत्तर पुस्तिकाओं में अंक देने के मामले का खुलासा होने और विधान परिषद् में शोरगुल के बाद 21 फरवरी, 2015 को कुलपति ने दोषियों पर कठोर कार्रवाई करने के निमित्त एक तीन सदस्यीय जांच समिति गठित की थी, लेकिन आज तक उसका कोई परिणाम नहीं निकला.
बिहार टॉपर घोटाला के मास्टरमाइंड बच्चा राय के सिंडिकेट की महत्वपूर्ण सदस्या डॉ. शकुन्तला के प्राचार्य रहते रामबृक्ष बेनीपुरी महिला कॉलेज में घटित प्रश्न लीक मामले में भी जांच किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंची है. विश्वविद्यालय में पंजीयन करवाये बिना 2015 की त्रिवर्षीय स्नातक तथा स्नातकोत्तर परीक्षाओं में शामिल होकर उतीर्ण होने वाले छात्रों के मुद्दे पर भी पदाधिकारियों की चुप्पी कई तरह के संदेह और अफवाहों को मजबूती दे रही है. मुजफ्फरपुर स्थित एस.के.जी. लॉ कालेज की तीन वर्ष पूर्व हुई वित्तीय अनियमितता संबंधी जांच रिर्पोट का गायब हो जाना यह दर्शाता है कि यहां घोटालेबाजों की पक़ड कितनी मजबूत है.
शिक्षण, प्रशिक्षण और शोध कार्य को उत्कृष्टता के सर्वोच्च शिखर तक पहुंचाने के उद्देश्य से 1952 में स्थापित बिहार विश्वविद्यालय में शोध व अनुसंधान कार्यों की दशा सर्वाधिक दयनीय है. विगत वर्ष विश्वविद्यालय के मूल्यांकन हेतु आई नैक टीम के सदस्यों के लिए वह क्षण मानसिक आघात से कम न था, जब इन्हें पता चला कि विश्वविद्यालय के 150 शिक्षक 1260 शोधार्थियों का मार्गदर्शन कर रहे हैं.
अपारदर्शिता, अराजकता और भ्रष्टाचार का आलम यह है कि विश्वविधालय के पीएचडी सेक्शन को आज यह भी पता नहीं कि शोध-कार्य के निदेशन में लगे शिक्षकों के अधीन कितने शोधार्थी काम कर रहे हैं और वर्ष 2003 में पीएचडी करने वालों की गायब फाइलों का क्या हुआ. गौरतलब है कि 2013 में तैयार की गई एक सूची से पहली बार यह पता चला था कि नियमों की खुलेआम अनदेखी करते हुए कई प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और असिस्टेंट प्रोफेसर निश्चित संख्या से अधिक शोधार्थियों को अपने अधीन पंजीकृत करवा चुके थे.
विश्वविद्यालय के कतिपय रसूखदार शिक्षकों के अधीन पीएचडी प्रोडक्शन की इन्डस्ट्री चल रही है. इनके सम्पर्क सूत्र बिहार झारखण्ड सहित नेपाल और उत्तर-पूर्व के राज्यों तक फैले हैं. स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि यह विश्वविद्यालय शोधार्थियों की बढ़ती भीड़ को संभालने में अब अपने आप को अक्षम पा रहा है.
विश्वविद्यालय की शैक्षणिक गुणवत्ता का आलम यह है कि यहां न तो पाठ्यक्रम में समयानुसार अपेक्षित बदलाव हुआ है और न कोई ऐेकेडमिक कैलेण्डर हीं तैयार हो सका है. विश्वविद्यालय तीन वर्ष में हीं छात्रों को चार साल वाले कोर्स की डिग्री देकर इन्हें जगहंसाई का पात्र बना रहा है.
विश्वविद्यालय मुख्यालय स्थित रामदयालु सिंह कालेज में नामांकित बैचलर ऑफ फिशरीज साइंस के छात्रों को वर्ष 1996 से ही ऐसी डिग्री दी जा रही है, जो यूजीसी के मापदंड पर खरा नहीं उतरती और परिणामत: ऐसे छात्रों को डिप्लोमा धारक ही माना जाता है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के स्पष्ट दिशा-निर्देश के बावजूद अभी तक स्नातक स्तर पर सेमेस्टर सिस्टम को लागू नहीं करना बिहार विश्वविद्यालय की कार्यशैली और प्राथमिकताओं के निर्धारण के मापदंडों को दर्शाता है.
बी आर ए बिहार विश्वविद्यालय की वित्तीय दशा तो बेहद खराब है. यहां के पदाधिकारियों को न तो यह पता है कि गैर मद कोष का विचलन और खर्च गंभीर अनुशासनहीनता की कोटी में आता है और न इसका ज्ञान है कि कब और कहां से किस-किस मद में कितनी राशि प्राप्त हुई है.
महालेखाकार के हालिया रिर्पोट से यह स्पष्ट हो चुका है कि विश्वविद्यालय के अधिकारियों की सांठ-गांठ से तकरीबन 45 करो़ड रुपयों का खुलकर दुरूपयोग हुआ है. 2016 की सीएजी रिपोर्ट के अनुसार विश्वविद्यालय पुस्तकालय में पुस्तक क्रय, परीक्षा हेतु उत्तर-पुस्तिकाओं की आपूर्ति, विश्वविद्यालय कर्मचारियों के अग्रिम समायोजन, प्रयोगशालाओं के उत्क्रमण अपग्रेडेशन, कम्प्यूटरीकरण, महिला छात्रावास निर्माण, कैंटीन-निर्माण, खेल-कूद सामग्री की खरीद तथा स्नात्तकोत्तर विभागों के फेस लिफ्टिंग के नाम पर उच्च पदस्त अधिकारियों ने संवेदकों को नाजायज ढंग से वित्तीय लाभ पहुंचाया.
इतना हीं नहीं मशीन क्रय पर दस लाख रुपये के निरर्थक खर्च, यूजीसी के द्वारा प्रदत्त 1.74 करो़ड की अतिरिक्त अनुदान राशि को प्राप्त करने में बरती गई शिथिलता, स्पोर्ट काउंसिल के खाते से 11.25 लाख का भुगतान, अल्पाहार मद में 8.66 रुपये का अनियमित भुगतान और परीक्षा निधि से 5.14 करो़ड की राशि का विचलन जैसी वित्तीय अनियमितताओं ने विश्वविद्यालय की सम्पूर्ण आर्थिक दशा न्यूनतम बिंदु तक पहुंचा दिया है, जहां से इसका पुनर्जीविकरण शायद असंभव है. स्थिति की भयावहता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि विगत छह माह से किसी न किसी बहाने शिक्षकों के मूल्यांकन बिल, टेबुलेशन की पारिश्रमिक तथा परीक्षा के आयोजन पर हुए खर्च के बिलों का भुगतान लगभग रुका हुआ है.