पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल जब एक भरी सभा में कहते हैं कि गुरु गोविंद सिंह बादशाह के 350 वें प्रकाशोत्सव में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिस शानदार तरीके से तैयारी की, उसकी जिम्मेदारी अगर उन्हें मिलती, तो वह भी नहीं कर पाते. इसके बाद भला कुछ कहने के लिए क्या रह जाता है? प्रकाश सिंह बादल यहीं तक नहीं रुके. उन्होंने कहा कि बिहार ने प्रकाश पर्व पर जितना किया है, वह सिख परम्परा के इतिहास में हमेशा चर्चा का विषय बना रहेगा.
सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह की 350वीं जयंती प्रकाश पर्व के रूप में पटना में एक से पांच जनवरी के बीच मनाई गई. गुरु गोविंद सिंह का जन्म राजधानी पटना में हुआ था. अपने बचपन के पहले चार वर्ष उन्होंने यहीं बिताए थे. जानकार मानते हैं कि प्रकाशोत्सव का भव्य आयोजन एक ऐसा उदाहरण बन गया है, जो भविष्य के किसी आयोजन के लिए नजीर के रूप में पेश किया जाएगा.
नीतीश सरकार द्वारा प्रकाशोत्सव का शानदार आयोजन क्या समर्थक, क्या विरोधी, सबका दिल जीत लेने वाला रहा. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिनकी नीतीश से राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता जगजाहिर है, ने नीतीश की तारीफ में कसीदे पढ़े और कहा कि उन्हें लोग बताते थे कि नीतीश जी ने पूरी तैयारी पर खुद ही बारीक नजर रखी है. उन्होंने यहां तक कहा कि बिहार के इस सत्कार को कभी भुलाया नहीं जा सकता है.
यह हकीकत है कि प्रकाशोत्सव की तैयारी बिहार सरकार ने अपने स्तर पर एक साल से करनी शुरू कर दी थी. चमचमाती सड़कें, दुधिया रौशनी में नहाई राजधानी, श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए तीन टेंट सिटी यानी तीन अस्थाई शहरों का निर्माण और आवागमन के लिए दो सौ से ज्यादा मुफ्त बसों का इंतजाम किया गया था.
सुरक्षा और सहायता के लिए हजारों पुलिस व गैर पुलिसकर्मी, प्रकाशोत्सव के दौरान सरकारी छुट्टी देकर तमाम अमले को इसी काम में लगाना, कर्मियों की कमी पूरी करने के लिए दूसरे जिलों से बुलाना, मतलब ये कि बिहार सरकार ने अपनी पूरी ताकत और संसाधन प्रकाश पर्व के लिए झोंक दिए. हालांकि इस आयोजन पर सरकार ने कितने खर्च किए, इसकी जानकारी अभी तक सार्वजनिक नहीं हो सकी है. जानकारी मिली है कि सिर्फ पटना के गांधी मैदान पर अस्थाई रूप से बनी टेंट सिटी व गुरुद्वारे के निर्माण पर ही 30 करोड़ रुपये खर्च कर दिए गए.
इसके अलावा गांधी मैदान से 9 किलोमीटर दूर पटना साहब गुरुद्वारे के करीब संकरी गलियों के चौड़ीकरण, रोशनी से नहाई सरकारी इमारतों के सजावट, कंगन घाट, जहां गुरु गोविंद सिंह ने बचपन में अपने हाथों का कंगन गंगा में फेंक दिया था, का सौंदर्यीकरण किया गया. बिहार के निवासियों ने भी जमकर मेजबानी की. इसी का नतीजा था कि प्रकाश सिंह बादल को भी यह कहना पड़ा कि प्रकाशोत्सव के आयोजन की जिम्मेदारी अगर उन्हें सौंपी जाती, तो वे भी ऐसा कमाल नहीं दिखा पाते.
ऐसे में एक सवाल लोगों के जेहन में उभरना लाजिमी है कि आखिर नीतीश सरकार की, सत्कार की ऐसी नजीर पेश करने के पीछे क्या रणनीति थी? आखिर क्यों बिहार सरकार ने अपना आर्थिक व मानव संसाधन इस आयोजन में झोंक दिया? इसके अलावा यह भी कि नीतीश ने इस आयोजन से क्या हासिल करना चाहा? दरअसल, नीतीश बिहारी अस्मिता और बिहारी उपराष्ट्रीयता को बड़ी मजबूती से पकड़ते हैं. वह कट्टरपंथी राष्ट्रवाद की राजनीति के बजाय बिहारियत के ऐसे मुद्दे को अपना हथियार बनाते हैं, जिसका जुड़ाव आम बिहारी से होता है. उन्हें इस बात का बखूबी इल्म है कि बिहार के बाहर, जो यहां की छवि है, उससे खुद अनिवासी बिहारी असहज महसूस करते हैं. ऐसे में बिहारियत की भावना को पकड़ लेना नीतीश का हुनर है.
पिछले ग्यारह वर्षों में, जबसे नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं, ऐसी कई मिसालें हैं. एक ऐसा ही भव्य आयोजन दो वर्ष पहले बिहार दिवस के रूप में नीतीश सरकार ने किया था. नीतीश ने प्रकाश पर्व में बिहारियत की वह भावना जगा दी कि विपक्षी नेता सुशील मोदी को भी यह कहना पड़ा कि प्रकाश पर्व के लिए अच्छी मेहमाननवाजी हुई है. यह मेहमाननवाजी केंद्र व राज्य सरकार के आपसी सहयोग से संभव हो सकी है. सारांश यह कि नीतीश ने प्रकाश पर्व के आयोजन के माध्यम से एक ऐसी लकीर खींची कि मजबूर होकर अन्य बिहारी नेताओं को भी इस लकीर पर चलना पड़ा.
प्रकाशोत्सव में छुपी सियासत
सियासत अपने हर कदम की कीमत सियासी कसौटी पर ही वसूलती है. प्रकाश पर्व में सत्ता के दखल ने भी सियासी कीमत वसूली. ऐसा होना अपरिहार्य भी था, क्योंकि कोई मुख्यमंत्री अपनी व्यस्ततम दिनचर्या को छोड़कर एक पखवाड़े तक अपनी पूरी नौकरशाही, पूरा संसाधन यूं ही नहीं झोंक सकता. प्रकाश पर्व के समानांतर सियासी गहमागहमी मौन रूप में चल रही थी.
प्रकाश पर्व के अंतिम दिन उस समारोह में, जिसमें पीएम नरेंद्र मोदी, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, भाजपा के कई केंद्रीय मंत्री व राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव समेत उनके मंत्री पुत्रों की पूरी जमात मौजूद थी, मंच पर जो चंद चेहरे थे, उनमें पीएम, सीएम नीतीश कुमार, केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान, रविशंकर प्रसाद व गर्वनर रामनाथ कोविंद के अलावा पटना साहब गुरुद्वारा के प्रमुख व शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष शामिल थे.
इतना ही नहीं, राजद प्रमुख व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव आमंत्रित जरूर थे, लेकिन वे सब मंच के सामने फर्श पर बैठे थे. इस धार्मिक आयोजन में जो तकरीरें हुईं, उसमें धर्म से ज्यादा सियासी बातें ही छुपी थीं.
नीतीश को इस आयोजन के लिए खूब बधाइयां मिल रही थीं. जब नीतीश ने अपनी बात रखी, तो उन्होंने इन तैयारियों का श्रेय अपने एक- एक नौकरशाहों के नाम गिना-गिनाकर दिया. जबकि अपने एक भी मंत्री, यहां तक कि उपमुख्यमंत्री का भी नाम नहीं लिया. ऐसा कत्तई नहीं हो सकता कि नीतीश अपने मंत्रियों का नाम भूल गये हों, बल्कि यह उनकी रणनीति का हिस्सा था. उन्होंने मुख्य सचिव, पर्यटन सचिव, पटना के डीएम और यहां तक कि एसएसपी की भूमिका की तारीफ तो की, पर सरकार के किसी विभाग के मंत्री का नाम तक नहीं लिया.
गौर से देखें तो इस आयोजन में (जो धार्मिक होते हुए भी राजनीतिक बन चुका था) पीएम मोदी और पंजाब के मुख्यमंत्री ने नीतीश कुमार को दूल्हा घोषित कर दिया और नीतीश ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए अपने आईएएस व आईपीएस अफसरों को सहबाला बना डाला, जहां उनके मंत्री महज बाराती की हैसियत में थे. अपने दल के मंत्रियों का बारात बन जाना तो अलग बात है, लेकिन गठबंधन के सबसे बड़े दल राजद कोटे के मंत्रियों और यहां तक की उपमुख्यमंत्री व लालू के बेटे तेजस्वी यादव की हैसियत भी इन्हीं बारातियों की तरह बना देना स्वाभाविक तौर पर चर्चा का विषय रहा.
तब उसी शाम राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद ने इन सवालों को रेखांकित किया. उन्होंने कहा कि इस मुद्दे को वे गंभीरता से लेंगे. हालांकि लालू प्रसाद से जब राज्य सरकार के इस रवैये के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि पीएम मोदी या अन्य लोगों ने बिहार सरकार की तारीफ की है और तारीफ सरकार के मुखिया की ही होती है.
इस मामले में आम लोगों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिक दलों और नेताओं के अपने-अपने जो भी विचार हों, पर इस आयोजन का एक राजनीतिक पहलू तो यह जरूर है कि सीएम नीतीश कुमार ने अपने अंदाज में सियासी शह और मात का आईना जरूर दिखाया. एक बात तो तय है कि इस सियासी आईने में जद (यू) के सहयोगी राजद की बेबसी ही ज्यादा झलकती है.