डॉ. वेदप्रताप वैदिक

बिहार के चुनाव के बाद किसकी सरकार बनेगी, कहा नहीं जा सकता। यदि दो प्रमुख गठबंधन सही-सलामत रहते तो उनमें से किसी एक की सरकार बन सकती थी। एक तो नीतीश कुमार का और दूसरा लालूप्रसाद का। लेकिन बिहार में अब चार गठबंधन बन गए हैं।

नीतीशकुमार के गठबंधन में जदयू और भाजपा हैं और लालू के गठबंधन में उनका राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां हैं। लालू के बेटे तेजस्वी यादव के नेतृत्व में लड़े जा रहे इस चुनाव में उनका दावा है कि वे सरकार बनाएंगे, क्योंकि चार बार के मुख्यमंत्री नीतीश से अब बिहार की जनता ऊब चुकी है, उन्होंने वादे तो बड़े-बड़े किए लेकिन उन पर अमल नहीं किया, कोरोना की तालाबंदी के दौरान नीतीश का रवैया बहुत ही लापरवाही का रहा और लालू परिवार को दी जा रही सजा का भी जनता पर उल्टा असर हो रहा है।

केंद्र की भाजपा सरकार की कई नीतियों, जैसे नोटबंदी, तालाबंदी, जीएसटी, कृषि-कानून, हाथरस कांड आदि ने आम जनता को इतना त्रस्त किया है कि उसका असर भी बिहार के चुनाव में दिखेगा। राजद का सबसे बड़ा तर्क यह है कि नीतीश का कुछ भरोसा नहीं। वे कब किससे हाथ मिला लें। उन्होंने 2013 में भाजपा से रिश्ता तोड़ा, राजद से हाथ मिलाकर 2015 का चुनाव लड़ा और फिर वे भाजपा की गोद में जा बैठे। राजद के इन तर्कों के विरुद्ध सबसे तगड़ी लोहे की दीवार अगर कोई है तो वह नरेंद्र मोदी की छवि है।

भाजपा को भरोसा है कि वह अपनी सीटें मोदी के नाम पर जीतेंगे। बिहार की जनता भाजपा को इतनी सीटें जिताएगी कि भाजपा ही सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी। जाहिर है कि फिर मुख्यमंत्री भी उसका ही बनेगा लेकिन वह अभी इस तरह का कोई दावा नहीं कर रही है। चुनाव-परिणाम आने के बाद ये गठबंधन क्या-क्या रुप ले सकते हैं, यह भी अभी नहीं कहा जा सकता। कौन पार्टी किससे अलग होकर अन्य किससे मिल जाएगी, कुछ पता नहीं।

अभी रामविलास पासवान की लोजपा नीतीश का विरोध कर रही है लेकिन भाजपा का समर्थन कर रही है। उसने अपने आपको छुट्टा रखा हुआ है। चुनाव के बाद जिसका पलड़ा भारी हुआ, वह उसी में बैठ जाएगी। बिहार में या भारत में कहीं भी कांग्रेस और भाजपा आपस में गठजोड़ नहीं बना सकते। बाकी कोई भी पार्टी मौके के मुताबिक अपना भविष्य तय करेगी, क्योंकि इन पार्टियों के लिए सत्ता ही ब्रह्म है, गठबंधन तो मिथ्या हैं।

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