biharrबिहार के बदले राजनीतिक स्वरूप में जातीय और दलित राजनीति का असर मगध में भी पड़ा. कभी मगध के चार लोकसभा क्षेत्रों में से दो नवादा और गया सुरक्षित हुआ करते थे, आज सिर्फ गया ही सुरक्षित लोकसभा क्षेत्र है. जबकि मगध के 26 विधानसभा क्षेत्रों में से आज भी 6 विधानसभा क्षेत्र सुरक्षित हैं. मगध में राजनीति के बदलते रंग का गहरा प्रभाव पड़ा. गया सुरक्षित संसदीय क्षेत्र से जीतने वाले सांसद ही मगध की दलित राजनीति के प्रमुख माने जाते रहे हैं. पिछले 30-35 वर्षों के मगध के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें, तो गया संसदीय क्षेत्र से सांसद रहे रामस्वरूप राम, राजेश कुमार, कृष्ण कुमार चौधरी, रामजी मांझी, राजेश कुमार मांझी और हरि मांझी में से सिर्फ तीन रामस्वरूप राम, राजेश कुमार और रामजी मांझी ही अपनी बड़ी पहचान बना सके.

इसमें भी राजेश कुमार की छवि कुछ अलग हटकर और सर्व जातीय समर्थन के कारण मजबूत थी. मगध की राजनीति में बढ़ती साख के कारण ही 2005 के विधानसभा चुनाव में गया जिले के इमामगंज सुरक्षित विधानसभा क्षेत्र से लोजपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे राजेश कुमार की हत्या चुनावी सभा से लौटने के दौरान करा दी गई. आज राजेश कुमार के बेटे और बोधगया सुरक्षित विधानसभा से दूसरी बार विधायक बने कुमार सर्वजीत वर्तमान में मगध की दलित राजनीति के बड़े चेहरे हैं. क्षेत्र में ऐसी भी चर्चा है कि कुमार सर्वजीत ही पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को बड़ी चुनौती दे सकते हैं.

हालांकि इसे नकारा नहीं जा सकता है कि राजद के वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद रामजी मांझी भी मगध की दलित राजनीति का तीसरा कोण हैं. जीतन राम मांझी मगध के विभिन्न सुरक्षित सीटों से विधायक बनते रहे, लेकिन मगध के दलित वर्ग का सर्वमान्य नेता नहीं बन सके. वहीं इमामगंज से लम्बे समय तक विधायक रहने वाले उदय नारायण चौधरी भले ही बिहार विधानसभा के अध्यक्ष रहे, लेकिन मगध के दलित वर्ग के लिए कुछ नही कर सके. वो सिर्फ इमामगंज की क्षेत्रीय राजनीति में ही इलझे रहे. हार के बाद वे अपने लिए नई जमीन तलाशने में लगे हैं.

दलित पहचान के कारण मुख्यमंत्री बने जीतन राम मांझी का कद अचानक बढ़ गया, लेकिन उतनी ही जल्दी ये हटे. आज जीतन राम मांझी मगध, विशेष कर गया जिले की राजनीति में ही अपना समय दे रहे हैं. 2015 के विधानसभा चुनाव में इनकी पार्टी ‘हम’ आधा दर्जन सीटों पर चुनाव लड़ी थी, लेकिन सफलता सिर्फ एक पर मिली. दो स्थान मखदुमपुर और इमामगंज से चुनाव लड़ने वाले पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को भी एक स्थान से हार ही मिली. बोधगया के राजद विधायक कुमार सर्वजीत अपने पिता पूर्व सांसद स्व. राजेश कुमार की राजनीतिक विरासत को संभालते हुए मगध दलितों के साथ-साथ सभी जाति के युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास कर रहे हैं.

पूर्व सांसद और राजद के वरिष्ठ नेता रामजी मांझी भी अपने पुराने संबधों को बरकरार रखते हुए मगध की राजनीति में स्थापित रहकर काम करने में लगे हैं, जिससे कि आने वाले संसदीय चुनाव में उन्हें इसका लाभ मिल सके. हालांकि सच यही है कि जातीय आधार पर राजनीति कर अपने को बड़े नेता साबित करने वाले नेताओं से मगध के दलितों का या दलित वर्ग का कितना कल्याण या विकास हुआ इसका लेखा जोखा देखा जाए तो जातीय राजनीति का ‘बदरंग’ चेहरा ही सामने आएगा.

बिहार में दलित राजनीति की शुरुआत कांगेस में 80 के दशक में उभरे राजनीतिक असंतोष से हुई थी. 80 के दशक में जब कांग्रेस में ज्यादा उठा-पटक होने लगी और वरीय नेताओं की उपेक्षा की जाने लगी, तो जगजीवन राम ने दलितों के मान-सम्मान को मुद्दा बनाया. जगजीवन राम के बाद रामविलास पासवान ने इस दलित वोट बैंक को भुनाया. हालांकि अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए लोकसभा और विधानसभा सुरक्षित क्षेत्रों से चुनाव जीतने वाले ज्यादातर नेता पार्टी से ही बंधे रहे, लेकिन जगजीवन राम और रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने प्रदेश और देश स्तर का नेता बनने के लिए दलित वोट बैंक का उपयोग अपनी राजनीति में किया.

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