santosh-bhartiyaबिहार विधानसभा चुनाव तो लग रहा है कि पिछले सारे चुनावों के रिकॉर्ड तोड़ देगा. पहले यह माना जाता था कि राजनीति में भाषा का संयम बड़े नेता अवश्य रखेंगे, पर बिहार में तो बड़े नेताओं ने ही सीमा तोड़ दी है. प्रधानमंत्री किसी को शैतान कह रहे हैं, जवाब में कोई किसी को कुत्ता पालक कह रहा है. ऐसी-ऐसी अभद्र भाषा का इस्तेमाल हो रहा है, जिसका ज़िक्र करना कम से कम मुझे ठीक नहीं लगता.

पर इतना अवश्य लगता है कि विधानसभा का यह चुनाव भाषा की सारी मर्यादाओं को लगभग लांघ चुका है और जब तक यह चुनाव समाप्त होगा, तब तक राजनीति के कैंपेन की एक नई भाषा लिख चुका होगा. अब यह पता नहीं कि इस भाषा का असर बिहार की जनता के ऊपर क्या पड़ेगा? क्या चुनाव में गाली-गलौज और अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने वालों को जनता जिताएगी या नहीं जिताएगी? इन सवालों के जवाब में एक तथ्य यह सामने आया कि जनता भी इस भाषा का आनंद उठा रही है.

वह न केवल आनंद उठा रही है, बल्कि इसमें हिस्सेदार भी बनती जा रही है. इसलिए यह कहना कि जनता हमेशा सही फैसले लेती है, कितना न्यायसंगत है, कहा नहीं जा सकता. हर नेता की सभाओं में भीड़ दिखाई दे रही है और वह नेता द्वारा किए जा रहे प्रचार की शैली में निकलने वाली गालियों पर तालियां बजा रही है. इतना भी होता, तो भी सहन किया जा सकता था, लेकिन इससे आगे और कुछ हो रहा है.

बिहार में जिन लोगों के पास भी स्मार्टफोन है, उनके फोन के ऊपर ऐसे-ऐसे संदेश आ रहे हैं, जिन्हें पढ़कर सांप्रदायिक उन्माद तेजी के साथ बढ़ सकता है. इस तरह के वीडियो आ रहे हैं, जिन्हें देखकर नफरत पैदा हो सकती है. पैदा हो सकती है, हम यह क्यों कहें, नफरत पैदा होगी ही. एक वीडियो में धर्म विशेष का व्यक्ति भैंस के ऊपर बैठकर उसका सिर काटकर चाकू से उसे गोद रहा है. एक अन्य वीडियो में एक व्यक्ति गाय काटता हुआ दिखाई दे रहा है और धार्मिक नारे लगा रहा है. संदेश ऐसे-ऐसे आ रहे हैं, जो बताते हैं कि अगर संभला न गया, तो एक क्षण में आग दावानल की तरह फैल सकती है.

आग लगने का सारा इंतजाम बिहार में हर तऱफ दिखाई दे रहा है और मजे की बात यह है कि इसे रोकने की कोशिश कोई भी राजनीतिक दल नहीं कर रहा है.बिहार में चुनाव जीतना भारतीय जनता पार्टी परम आवश्यक समझ रही है और इसके लिए वह साम, दाम, दंड, भेद का प्रचंड इस्तेमाल कर रही है. दूसरी तऱफ नीतीश कुमार, लालू यादव और कांग्रेस का महा-गठबंधन किसी भी क़ीमत पर इस चुनाव में हारना नहीं चाहता. अगर भाजपा हारती है, तो पार्टी के भीतर अंतर्विरोध बढ़ जाएगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मजबूर होकर अपने मंत्रिमंडल से कुछ लोगों को हटाना पड़ेगा या तत्काल उनके विभाग बदलने पड़ेंगे.

अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार में जीत जाते हैं, जो वैसे ही संवादहीनता को अपना शस्त्र बना चुके हैं, तो वह इसे और बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं. भारतीय जनता पार्टी में यह संवादहीनता बहुत चर्चा का विषय बनी हुई है. दूसरी तऱफ अगर लालू यादव, नीतीश कुमार और कांग्रेस का महा-गठबंधन चुनाव जीतता है, तो भी वह सरकार कितनी स्थिर रहेगी, यह कहा नहीं जा सकता.

तीनों पार्टियों के अपने अलग-अलग एजेंडे हैं और शायद अभी भी उनमें यह समझदारी नहीं पैदा हुई है कि चुनाव के बाद नतीजे चाहे जो हों, उन्हें एक रहना है. नीतीश कुमार एवं लालू यादव को पूरा भरोसा है कि वे चुनाव में जीतेंगे और उनका गठबंधन सत्ता में आएगा तथा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार होंगे. रणनीति के तहत लालू यादव ने पिछड़ों एवं अगड़ों के बीच की रेखा बिहार में और मजबूत कर दी है. कांग्रेस का प्रचार अभियान चल रहा है, लेकिन उसे मिली चालीस सीटें कितने जीते उम्मीदवारों के साथ वापस आएंगी, अभी कोई नहीं कह सकता.

और, सबसे बड़ा फैक्टर असदुद्दीन ओवैसी हैं. ओवैसी ने 25 उम्मीदवार उतारने की घोषणा की थी, लेकिन वह छह उम्मीदवारों के ऊपर आ गए. उन्होंने एक टीवी चैनल पर कहा कि वह तो स़िर्फ छह सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन मुलायम सिंह यादव कागठबंधन सारी सीटों पर चुनाव लड़ रहा है, उन्हें लेकर कोई चिंता किसी में क्यों नहीं होती? दरअसल, ओवैसी को भारतीय जनता पार्टी अपने पक्ष में मान रही है, क्योंकि उसका मानना है कि जो भी वोट ओवैसी काटेंगे, वे लालू यादव, नीतीश कुमार या कांग्रेस के समर्थक वोट होंगे. वहीं दूसरी तऱफ नीतीश कुमार का मानना है कि असदुद्दीन ओवैसी को सीमांचल में कोई समर्थन नहीं मिल रहा है.

इसलिए उन्होंने स़िर्फ छह उम्मीदवार मैदान में उतारे, जबकि उनकी घोषणा 25 उम्मीदवार उतारने की थी. इसका एक मतलब यह हो सकता है कि बिहार का मुसलमान मजबूती के साथ यह संदेश देने में सफल हो गया है कि असदुद्दीन ओवैसी को मुसलमानों का वोट नहीं मिलेगा. और, भारतीय जनता पार्टी ओवैसी को उसी तरह अपनी जीत का ट्रम्प कार्ड मान बैठी, जैसे उसने महाराष्ट्र में माना था. महाराष्ट्र में यह माना जा रहा है कि ओवैसी की वजह से कांग्रेस और एनसीपी के वोट कटे, जिसकी वजह से भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना सत्ता में आईं.

ये अंतर्विरोध हैं, लेकिन इन अंतर्विरोधों का कोई मतलब नहीं है. इन अंतर्विरोधों का मतलब तब होता, जब राजनीतिक भाषा, राजनीतिक शैली और राजनीतिक समझ चुनाव में दिखाई देती. इतना ही नहीं, कम से कम यह समझदारी होती कि अगर लोग आमने-सामने आ जाएंगे, तो विकास की बात, जिसे राजनीतिक दल कह रहे हैं, वह तो कहीं लुप्त हो जाएगी. फिर तो नफरत होगी, हिंसा होगी, लाशें होंगी और सारे धर्मों की अच्छी बातों का एक साथ खून हो जाएगा.

अ़फसोस इसी बात का है कि इन बातों को न भारतीय जनता पार्टी समझ रही है या शायद समझना नहीं चाहती और न लालू यादव एवं उनके साथी समझ रहे हैं, शायद वे भी नहीं समझना चाहते. इसका मतलब बिहार में जो नई शैली पैदा हो रही है, वह इस देश के लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालने का काम करेगी. शायद भारत में लोकतंत्र का सबसे विद्रूप स्वरूप देखना हमारी किस्मत में लिखा है. चलिए देखते हैं, लोकतंत्र के कौन-कौन से बदरंग चेहरे हमें बिहार चुनाव में दिखाई देते हैं या लोकतंत्र का सबसे विद्रूप स्वरूप किस तरह सामने आता है. पर मन डर रहा है, मन कांप रहा है और वे सारे लोग, जिनकी लोकतंत्र में आस्था है, बिहार चुनाव को देखकर आंसू तो बहा ही रहे हैं.

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