भारतीय जनता पार्टी के अंदर एक तरह से तूफान से पहले की शांति है. कई वरिष्ठ नेता और मंत्री हाशिए पर हैं. पार्टी के फैसलों में उनकी हिस्सेदारी न के बराबर हो गई है. मोदी और अमित शाह को लेकर भारतीय जनता पार्टी के एक खेमे में रोष है. इन नेताओं को लगता है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह का पार्टी पर कब्जा हो गया है. पार्टी में संवादहीनता का माहौल है.
पिछले कुछ महीनों में कई नेताओं ने पार्टी के आंतरिक-क्रियाकलापों पर नकारात्मक टिप्पणी भी की लेकिन उन्हें पार्टी के अंदर ही दबा दिया गया. बिहार चुनाव के नतीजों का सीधा असर भारतीय जनता पार्टी की आंतरिक राजनीति पर होगा. इसके दो कारण हैं. पहला, दिल्ली में विधानसभा चुनाव हारने के बाद अमित शाह ने बिहार चुनाव की पूरी जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली. चुनाव से जुड़े सारे फैसले अमित शाह और उनके सहयोगी ले रहे हैं.
अमित शाह को इस बात का आभास है कि बिहार में चुनाव हारने के साथ ही उनके नेतृत्व पर सवाल उठने लगेंगे. कई वरिष्ठ नेता सार्वजनिक रूप से सरकार की नीतियों और पार्टी के फैसलों पर सवाल उठाने लगेंगे. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की साख को भारतीय जनता पार्टी के अंदर से ही चुनौती मिलने लगेगी. अमित शाह और नरेंद्र मोदी इस तरह का कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते हैं. आंतरिक कलह कहीं सार्वजनिक न हो जाए, इसलिए बिहार में मुख्यमंत्री के नाम की घोषणा नहीं की गई. नरेंद्र मोदी के चेहरे के साथ चुनाव लड़ने का फैसला उनकी लोकप्रियता के साथ-साथ पार्टी में चल रहे घमासान को दबाने की भी मजबूरी है.
भारतीय जनता पार्टी की आंतरिक कलह की हालत ऐसी है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह को पार्टी पर अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए बिहार चुनाव में जीत दर्ज करना अवश्यंभावी हो गया है. यदि भाजपा बिहार चुनाव जीत जाती है तो पार्टी के अंदर उठ रहे विरोध के स्वर कुछ समय के लिए दब जायेंेगे. विरोधी खेमे को उत्तर प्रदेश चुनाव तक इंतजार करना होगा. यदि भाजपा हार जाती है तो हार का ठीकरा अमित शाह और नरेंद्र मोदी के सिर पर फूटेगा. ऐसे में विरोधी खेमा खुलकर सामने आ जाएगा और पार्टी संगठन के साथ-साथ मंत्रिमंडल में बदलाव की मुहिम तेज़ हो जाएगी.
बिहार चुनाव मोदी सरकार के लिए भी महत्वपूर्ण है. लोकसभा में बहुमत होने के बावजूद, उनके पास अपने मनमुताबिक फैसलों को संसद में पास कराने लायक संख्या बल राज्यसभा में नहीं है. भाजपा को यदि राज्यसभा में अपनी संख्या बढ़ानी है तो उसके लिए बिहार जैसे बड़े राज्यों के चुनाव जीतना जरूरी है. वर्तमान में मोदी सरकार विपक्ष की सहायता के बगैर कोई भी क़ानून संसद में पास नहीं करवा सकती है. भूमि-अधिग्रहण क़ानून इसका जीता-जागता उदाहरण है, जिसे मोदी सरकार को वापस लेना पड़ा. बिहार चुनाव के नतीजे मोदी सरकार के फैसले लेने की शक्ति पर भी असर डालेंगे. जिस तरह के नव-उदारवादी नीतियों को मोदी सरकार लागू करना चाहती है, उसके लिए कई कड़े फैसले लेने की जरूरत है.
जन-समर्थन के आभाव में कोई भी सरकार ऐसे फैसले नहीं ले सकती. यही वजह है कि बाजार और निवेशक भी बिहार चुनाव की ओर देख रहे हैं. भाजपा की जीत से बाजार और निवेशकों का नरेंद्र मोदी सरकार पर विश्वास बढ़ेगा, वहीं बिहार में हार का मतलब नव-उदारवादी नीतियों पर लगाम लगना होगा. लोकसभा चुनाव के बाद नरेंद्र मोदी और अमित शाह के सामने बिहार विधानसभा चुनाव सबसे बड़ी चुनौती है. यही वजह है कि दोनों बिहार चुनाव में जीत दर्ज करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं. इस चुनाव से भाजपा में यह फैसला भी होगा कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी का पार्टी में वर्चस्व रहेगा या नहीं.
नरेंद्र मोदी और अमित शाह की तरह बिहार चुनाव नीतीश कुमार के लिए भी जीवन-मरण का सवाल है. पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर लड़े और मुख्यमंत्री बने. जदयू और बीजेपी गठबंधन की जीत ऐतिहासिक थी. लेकिन लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नीतीश कुमार ने भाजपा से रिश्ता तोड़कर अपने राजनीतिक जीवन का सबसे अहम और साहसिक फैसला लिया. 2015 का विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार के पास यह सिद्ध करने का आखिरी मौक़ा है कि उनका भाजपा से अलग होने का फैसला सही था. राजनीतिक स्तर पर भाजपा से अलग होकर नीतीश कुमार ने स्वयं की राजनीति और पार्टी के भविष्य को दांव पर लगा दिया था. लोकसभा चुनाव में जनता का फैसला नीतीश के पक्ष में नहीं था.
जदयू के अंदर कई लोगों को यह लगने लगा था कि भारतीय जनता पार्टी से अलग होने का फैसला सही नहीं था. लोकसभा चुनाव में लोगों के बीच नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की होड़ और भाजपा के एग्रेसिव कैंपेन की वजह से नीतीश कुमार को मनमाफिक परिणाम नहीं मिले. इस वजह से नीतीश कुमार को बेनिफिट ऑफ डाउट दिया जा सकता है. लेकिन, बिहार विधानसभा चुनाव में सरकार बनाने की कवायद है. बिहार का अगला मुख्यमंत्री कौन होगा इसका फैसला होना है. इस चुनाव में नीतीश कुमार के शासनकाल के क्रियाकलापों, उनके सुशासन मॉडल और उपलब्धियों पर जनता अपना फैसला सुनाएगी.
इसलिए नीतीश कुमार के लिए यह चुनाव जीतना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. यही वजह है कि नीतीश कुमार ने पहले भाजपा के खिलाफ देशव्यापी गठबंधन यानी जनता परिवार बनाने की कोशिश की. अपने अहम को दरकिनार कर उन्होंने अपने धुरविरोधी लालू यादव से हाथ मिलाया, ताकि भाजपा को कड़ी चुनौती दी जा सके. नीतीश कुमार के लिए खुशी की बात यह है कि अब तक जितने भी चुनावी सर्वे हुए हैं, उनमें वह मुख्यमंत्री की दौड़ में सबसे आगे हैं.
मुख्यमंत्री के रूप में वह बिहार की जनता की पहली पसंद हैं. भाजपा ने नरेंद्र मोदी के चेहरे को आगे कर इस चुनाव को नरेंद्र मोदी बनाम नीतीश कुमार में तब्दील कर दिया है. यह नीतीश कुमार के लिए चुनौती के साथ-साथ एक अवसर भी है. अगर नीतीश कुमार भाजपा को हराकर फिर से मुख्यमंत्री चुने जाते हैं तो वह नरेंद्र मोदी को टक्कर देने वाले देश के सबसे बड़े नेता बन जाएंगे. 2019 के लोकसभा चुनाव में वह भाजपा विरोधी खेमे के सबसे पसंदीदा प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनकर उभर सकते हैं.
यदि वह विधानसभा चुनाव हार जाते हैं तो उन्हें भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह की तरह पार्टी के अंदर विरोध का सामना करना पड़ेगा. जदयू के कई नेता भाजपा से अलग होने के फैसले से सहमत नहीं थे लेकिन नीतीश कुमार के नेतृत्व में उनके भरोसे की वजह से वे शांत रहे और उनका साथ दिया. बिहार विधानसभा चुनाव में हार के बाद ये सारे नेता खुलकर सामने आ जाएंगे. कहने का मतलब यह कि नीतीश कुमार के लिए यह चुनाव उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी चुनौती है.
बिहार चुनाव जीतने के साथ ही वह राष्ट्रीय राजनीति की प्रथम पंक्तिके अहम नेता बन जाएंगे, लेकिन हारने के बाद उनका कद एक ऐसे असरहीन क्षेत्रीय नेता का हो जायेगा, जिसकी आवाज केंद्र सरकार के फैसलों को प्रभावित नहीं कर सकेगी.
बिहार विधानसभा चुनाव लालू यादव के लिए संजीवनी का काम कर सकता है. 15 साल तक बिहार में एकछत्र राज करने वाले लालू यादव पिछले कई चुनावों से लगातार कमजोर होते जा रहे हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में तो वह इतनी भी सीटें नहीं जीत सके, जिससे कि वह नेता प्रतिपक्ष की दावेदारी पेश कर पाते. पिछले विधानसभा चुनाव में लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल मात्र 24 सीट जीत सका था.
यहां यह समझना जरूरी है कि लालू यादव भले ही चुनाव में सीटें जीतने में पीछे जरूर थे, लेकिन जहां तक वोट का सवाल है तो लालू यादव का आधार वोट जो बैंक है, वह अभी तक लालू यादव के साथ है. कई सीटों पर हार का अंतर बहुत ही कम था. लोकसभा चुनाव में भी उनका प्रदर्शन खराब रहा. बिहार की आम जनता को लगता है कि बिहार के पिछड़ेपन के लिए बहुत हद तक लालू यादव जिम्मेदार हैं.
लालू यादव और नीतीश कुमार के एक साथ होने का सबसे ज्यादा फायदा लालू यादव को होगा. नीतीश कुमार के कुशल प्रशासन की वजह से लालू यादव के कुशासन का मुद्दा पीछे छूट गया है. दूसरी बात यह कि जिन विधानसभा सीटों पर हार का अंतर कम था. उन सीटों पर नीतीश कुमार के समर्थकों की मदद से वह जीतने में कामयाब हो सकते हैं. लालू यादव फिलहाल चुनाव नहीं लड़ सकते हैं इसलिए जब तक अदालत का आखिरी फैसला नहीं आता तब तक यह कहा जा सकता है कि वह मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की रेस में शामिल नहीं हैं.
लालू यादव के लिए बिहार चुनाव अस्तित्व का सवाल नहीं है. लालू यादव पिछले एक दशक से राजनीतिक तौर पर कमजोर जरूर हुए हैं लेकिन बिहार में उनकी पार्टी और समर्थन बरकरार है. महा-गठबंधन की जीत का मतलब लालू यादव के हाथ में सत्ता की चाभी होना और हार का मतलब, पिछले दस साल के नतीजों का दोहराव होना. जब तक लालू यादव राजनीतिक तौर पर सक्रिय हैं तब तक उनकी पार्टी बिहार की राजनीति के केंद्र में बनी रहेगी. चुनाव में जीत या हार का असर लालू यादव पर सबसे कम पड़ने वाला है.
कांग्रेस पार्टी किसी जमाने में बिहार की सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी. बिहार में कई दशकों तक कांग्रेस का एकछत्र राज रहा. आज कांग्रेस की हालत यह है कि उसके पास प्रदेश में 243 में से सिर्फ 4 विधायक हैं, जबकि राहुल गांधी ने पिछले चुनाव में तूफानी प्रचार किया था. बिहार में कांग्रेस का अस्तित्व ख़तरे में है, लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी को एक संजीवनी मिली है. महा-गठबंधन में कांग्रेस पार्टी को 40 सीटें मिली हैं जो कि आश्चर्यजनक है. यदि सही ढंग से उम्मीदवारों का चयन और चुनाव प्रबंधन हो तो कांग्रेस पार्टी इन चालीस सीटों की बदौलत बिहार में अपनी जड़ें जमा सकती है.
कांगे्रस पार्टी की समस्या यह है कि पार्टी के पास कोई सुदृढ़ वोट बैंक नहीं है. राहुल गांधी ने बिहार के हर जिले में संगठन तो तैयार किया लेकिन युवा नेताओं को आगे बढ़ाने में कामयाब नहीं हुए. बिहार में संगठन की स्थिति ढुलमुल है. कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इस चुनाव के माध्यम से क्या कांग्रेस पार्टी खुद को बिहार की राजनीति में फिर से प्रासंगिक बनाने में कामयाब होगी या नहीं. बिहार में हार राहुल गांधी के लिए बड़ा झटका साबित होगी. इसके बाद मोदी को चुनौती देने वाले नेताओं की लिस्ट में वह और भी पीछे चले जाएंगे.
वैचारिक तौर पर बिहार चुनाव में एक ऐतिहासिक घटना हुई है लेकिन इस घटना पर मीडिया की नजरें नहीं गईं हैं. पहली बार देश की सारी महत्वपूर्ण वामपंथी पार्टियों ने एक गठजोड़ बनाया है. बिहार चुनाव में देश के सभी(छह) वामदल मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं. वैचारिक रूप से ये वामदल आपस में एक-दूसरे के प्रतियोगी रहे हैं. बिहार में वामपंथी आंदोलन का एक इतिहास रहा है. बिहार के कई इलाकों में वामपंथी पार्टियों के समर्थक हैं.
बिहार में सीपीआई (माले) इस गंठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी है. वह विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करती आई है और सीटें भी जीतती रही है. सवाल है, बिहार में वामपंथियों के एकजुट होने के क्या कारण हैं? वैचारिक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि पूंजीवादी व्यवस्था अब नव-उदारवादी नीतियों के तहत दुनिया भर में स्थापित की जा रही है. भारत में नव-उदारवादी नीतियां लागू हों उसके पीछे भी वैश्विक पूंजीवादी शक्तियों का हाथ है. नव-उदारवादी व्यवस्था गरीब किसान और मजदूरों के हितों के खिलाफ है.
सरकार से लेकर मीडिया और गैर-सरकारी संस्था हर तरफ नव-उदारवादी व्यवस्था को मजबूत करने वाली ताकतों को प्राथमिकता मिल रही है. नव-उदारवादी नीतियों के खिलाफ संघर्ष अगल-थलग रहकर नहीं किया जा सकता है. नव-उदारवाद से लड़ने का मतलब सर्वशक्तिमान वैश्विक ताकतों से लड़ना है. इससे लड़ना किसी एक पार्टी के वश की बात नहीं है. यही वजह है कि देश के वामपंथी पार्टियों को वाम-एकता की जरूरत पड़ी है. राजनीतिक तौर पर यह कहा जा सकता है कि बंगाल में वाममोर्चा की हार के बाद से भारतीय राजनीति से वामपंथ हाशिये पर चला गया है.
धीरे-धीरे यह अप्रासंगिक होता जा रहा है. अपनी प्रासंगिकता को बरकरार रखने की मजबूरी ने वामपंथी पार्टियों को एकजुट कर दिया है. बिहार में पहली बार यह प्रयोग हो रहा है. इसलिए यह जरूरी है कि वाममोर्चा का प्रदर्शन बेहतर हो. इस प्रयोग की सफलता के लिए वोट के साथ-साथ वाममोर्चा को 5 से 10 सीटें जीतनी होंगी. वाममोर्चा अगर ऐसा कर पाता है तो उसकी प्रासंगिकता बनी रहेगी, अन्यथा भारतीय राजनीति की मुख्यधारा से अलग-थलग हो रहा वामपंथ और भी हाशिये पर चला जाएगा.
बिहार में एक और मोर्चा अपनी किस्मत आज़मा रहा है. इस मोर्चे में कुल छह पार्टियां हैं. इसमें मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, शरद यादव की नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी, पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी, पी ए सांगमा की नेशनलिस्ट पीपुल्स पार्टी, नागमणि की समरस समाज पार्टी और देवेंद्र प्रसाद यादव की समाजवादी जनता पार्टी शामिल है.
यह गठबंधन दरअसल नाराज नेताओं का गठबंधन है. समाजवादी पार्टी कुछ दिन पहले तक जनता परिवार में शामिल थी, लेकिन सीटों के बंटवारे को लेकर लालू यादव और नीतीश कुमार से मनमुटाव हुआ और मुलायम सिंह ने अलग होने का फैसला ले लिया. समाजवादी पार्टी भले ही उत्तर प्रदेश में एक बहुमत वाली सरकार चला रही है, लेकिन बिहार में उनके पास न तो समर्थन है और न ही संगठन.
वहीं, पप्पू यादव मधेपुरा और इसके आसपास के इलाकों में लोकप्रिय हैं, वह कुछ दिन पहले तक लालू यादव की पार्टी में थे. वह खुद को लालू यादव के उत्तराधिकारी के रूप में देखते हैं, लेकिन जबसे लालू यादव ने अपने बेटों को राजनीति में आगे किया, पप्पू यादव नाराज हो गए. शरद पवार की एनसीपी सीमांचल की एक लोकसभा की पार्टी है, जहां से तारिक अनवर चुनकर आते हैं. देवेंद्र प्रसाद यादव चार बार सासंद रह चुके हैं लेकिन, इस बार विधायक का टिकट नहीं मिलने पर वह जदयू से बाहर हो गए और मुलायम सिंह यादव के साथ जुड़ गए. कहने का मतलब, इन पार्टियों का बिहार में राज्यव्यापी जनाधार नहीं है लेकिन ये पार्टियां कुछ सीटों पर अच्छा प्रदर्शन कर नतीजों को प्रभावित कर सकती हैं. समाजवादी पार्टी के नेतृत्व में बने इस मोर्चे की चुनौती केवल इतनी है कि वह इस चुनाव के नतीजों को किन-किन इलाकों में कितना प्रभावित कर सकता है.
बिहार में पहली बार असदुद्दीन ओवैसी की एमआईएम चुनाव मैदान में है. उन्होंने बिहार के सीमांचल इलाके की 24 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है. यह इलाका मुस्लिम बाहुल्य इलाका है. ओवैसी हैदराबाद से आते हैं और उनकी राजनीति मुसलमानों के विकास के इर्द-गिर्द घूमती है. वह भारत के मुसलमानों के नेता बनना चाहते हैं. अपनी पार्टी को राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बनाना चाहते हैं. यही वजह है कि उन्होंने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारे. वहां उनकी पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहा. वह दो सीट जीतने में कामयाब भी हुए.
ओवैसी यह जानते हैं कि राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बनने के लिए उन्हें उत्तर भारत के मुसलमानों का समर्थन मिलना जरूरी है. यही वजह है कि वह बिहार के चुनावी मैदान में कूदे हैं. वह पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि वह उत्तर प्रदेश में चुनाव ल़ड़ेंगे. यह खबर भी आ रही है कि मायावती के साथ गठबंधन करने की पहल हो चुकी है. लेकिन बिहार में वह अकेले ही लड़ रहे हैं.
असदुद्दीन ओवैसी के सामने वैसी ही चुनौती है जैसी नीतीश कुमार की. असदुद्दीन ओवैसी जिस राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा की वजह से बिहार में चुनाव लड़ने आए हैं उसका एकमात्र रास्ता सीटें जीतने से ही शुरू होता है. असदुद्दीन ओवैसी के लिए हर हाल में वोट के साथ-साथ 2 से 4 सीटें जीतना जरूरी है. यदि वह इसमें सफल होते हैं तो नतीजे आते ही देश की राजनीति में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो जाएगी. यदि वह सीटें नहीं जीत सके, तो उत्तर भारत में उनकी हैसियत एक वोट-कटवा पार्टी की हो जाएगी. इसके बाद उत्तर प्रदेश के चुनाव में उन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेगा.
इसमें कोई शक नहीं है कि बिहार चुनाव का राष्ट्रीय महत्व है. इस चुनाव का नतीजा भारतीय राजनीति की दिशा और दशा तय करेगा. देश की सभी बड़ी पार्टियां के लिए यह चुनाव निर्णायक साबित होने वाला है. चुनाव के नतीजों का असर हर राजनीतिक दलों की आंतरिक-कार्यप्रणाली और सगंठन पर पड़ने वाला है. साथ ही इस चुनाव के नतीजों का सीधा असर संसद और केंद्र सरकार की नीतियों पर पड़ेगा.
इसके अलावा इस चुनाव के नतीजों के बाद ही यह पता चलेगा कि देश की राजनीति बीजेपी और एंटी-बीजेपी खेमे में बंटेंगी या नहीं. इस चुनाव का असर भविष्य की गठबंधन राजनीति पर भी होगा. भारतीय राजनीति का यह अजीबोगरीब पहलू है कि देश के सबसे गरीब और पिछड़े राज्य की जनता, भारत की राजनीति के भविष्य को तय करने वाली है. यह प्रजातंत्र की खूबसूरती है कि देश के सबसे गरीब, पिछड़े, बेरोज़गार, अशिक्षित और वंचित भारत का भविष्य तय करने वाले हैं. यही वजह है कि बिहार का विधानसभा चुनाव हर चुनाव की जननी है.