startupबिहार भाजपा के अध्यक्ष नित्यानंद राय इस मामले में भाग्यशाली हैं कि अपने मनोनयन के कुछ ही महीनों के भीतर उन्हें अपनी टीम मिल गई. मार्च के अंतिम दिनों में अड़तीस पदाधिकारियों सहित लगभग ढाई सौ नेता-कार्यकर्त्ताओं की समिति गठित कर दी गई. पार्टी के करीब ढाई दर्जन प्रकोष्ठों व प्रभागों के अध्यक्षों का चयन कर उनके नाम भी जारी कर दिए गए. इन नई नियुक्तियों में सूबे के सभी सामाजिक समूहों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया गया है, साथ ही इसे किसी तरह के असंतुलन से मुक्त रखा गया है. पार्टी की विस्तार रणनीति के अनुरूप कमिटी में महिला, अतिपिछड़ा और दलित-महादलित समूहों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया गया है.

दावा यह भी किया जा रहा है कि संगठन में इस नएपन की वजह से आने वाले समय में सूबे में पार्टी की राजनीति को नई उड़ान देने में अपेक्षित सफलता मिलेगी. अभी तो समिति का गठन ही हुआ है, लिहाजा इन दावों के बारे में कुछ भी कहना कतई उचित नहीं होगा. समिति के गठन के बाद पटना में पार्टी के पदाधिकारियों की एक बैठक में समिति के गठन के लिए केन्द्रीय नेतृत्व को बधाई दी गई और पुरानी कमिटी के लोगों ने पार्टी हित में हर वह काम करने का संकल्प दुहराया, जिसकी जरूरत नई समिति को होगी. लेकिन क्या सब कुछ इतनी ही सहजता से होता रहेगा, जैसा ‘पीड़ित’ नेता भरोसा दिला रहे हैं? यह लाख टके का सवाल है.

बिहार भाजपा के पदाधिकारियों व कार्यसमिति के सदस्यों के नामों की सूची जारी होने के साथ बिहार के राजनीतिक हलको में जिस बात की सबसे अधिक चर्चा रही और आगे भी रहेगी, वह है सबसे कद्दावर नेता सुशील कुमार मोदी के राजनीतिक पराभव की. सुशील मोदी के राजनीतिक उत्कर्ष का दौर करीब ढाई दशक पहले आरंभ हुआ था. 1996 में भाजपा विधानमंडल दल के नेता और इस लिहाज से विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता बनने के साथ प्रादेशिक नेतृत्व में वे निर्विवाद हस्ती बन गए और कभी-कभी तो निर्विकल्प से लगते रहे. उनकी ये हैसियत गत विधानसभा चुनावों तक बनी रही.

लेकिन उसके बाद पार्टी में उनके पर कतरे जाने की शुरुआत हुई. पार्टी में उनकी उपेक्षा का जो दौर आरंभ हुआ, वह निरन्तर गहराता गया और अब नई समिति में उनके किसी भी खास को कोई जगह नहीं दी गई है. इसी तरह का, लेकिन इससे थोड़ा नरम सलूक दूसरे बड़े नेता नंदकिशोर यादव के साथ हुआ है. नंदकिशोर यादव को पहला झटका लगा, जब उन्हें बिहार विधान सभा में विधायक दल के नेता पद से वंचित कर दिया गया.

सुशील कुमार मोदी और तत्कालीन प्रादेशिक अध्यक्ष मंगल पांडेय की अथक कोशिशों और उनकी समस्त राजनीतिक तैयारियों के बावजूद यह पद डॉ. प्रेम कुमार को दे दिया गया. मोदी-मंगल-नंदकिशोर त्रिगुट को यह उनके दिन लद जाने का खुला संदेश था. मोदी जी के साथ-साथ नंदकिशोर जी को भी इस नई समिति में कोई अहमियत नहीं दी गई है. उनके दो-तीन समर्थकों को नई समिति में शामिल तो किया गया है, लेकिन वे कब तक उनके साथ बने रहेंगे, कहना कठिन है. इसके बरअक्स, उक्त त्रिगुट (मोदी-मंगल-नंदकिशोर) के कट्टर विरोधी के तौर पर चर्चित, विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता डॉ. प्रेम कुमार और सांसद अश्विनी कुमार चौबे अपने अनेक ‘लोगों’ को नई समिति में शामिल करवाने या प्रकोष्ठों के अध्यक्ष बनवाने में सफल हो गए.

प्रदेश भाजपा की इस नई समिति के पदाधिकारियों के चयन में पार्टी संविधान के प्रावधानों की उपेक्षा की बातें भी कही जा रही हैं. यदि यह सही है, तो यह गंभीर मसला है. पार्टी संविधान के अनुसार पदाधिकारियों की टीम की संरचना में महिलाओं को कम से कम तैंतीस प्रतिशत हिस्सेदारी दी जानी है. इसके अलावा दलित-आदिवासी सामाजिक समूहों को भी बीस प्रतिशत से अधिक भागीदारी देने की परिपाटी रही है. लेकिन इस बार संविधान के उक्त प्रावधान की इज्जत नहीं की गई. का जा रहा है कि यह सूची बिहार भाजपा के प्रभारी भूपेन्द्र यादव की सहमति से बनी है. तो क्या राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए भी पार्टी संविधान पर ध्यान देना जरूरी नहीं रहा?

पार्टी के ग्यारह उपाध्यक्षो में केवल दो महिलाओं (श्यामा सिंह व निवेदिता सिंह) और एक दलित (शिवेश राम) को जगह मिली है. चार महामंत्री बनाए गए हैं, लेकिन महिला और दलित समुदायों से किसी भी नेता को महामंत्री के लायक नहीं समझा गया है. ग्यारह सचिवों के समूह में एक दलित और तीन महिलाओं को जगह मिली है. प्रादेशिक कमिटी के नौ प्रवक्ता हैं, लेकिन किसी दलित और महिला को इस पद के लायक नहीं समझा गया है.

बिहार की एक दबंग पिछड़ी जाति के ही दो नेताओं को प्रवक्ता बनाया गया है. वैसे, प्रवक्ताओं के समूह में एक अल्पसंख्यक का भी नाम शामिल है. मोहम्मद अजफर शमसी को भी प्रवक्ता बनाया गया है. अर्थात पार्टी पदाधिकारियों की चालीस सदस्यों की सूची में महिला व दलितों का प्रतिनिधित्व दो दलित और पांच महिलाओं तक रह गया है.

पदाधिकारियों की सूची में एक और विसंगति की चर्चा हो रही है. पुरानी भाजपा में सक्रिय लोगों के अनुसार पदाधिकारियों की टीम की संरचना के दौरान सूबे के भोगौलिक संतुलन का सदैव ख्याल रखा जाता रहा है. लेकिन इस बार के पदाधिकारियों के समूह में बिहार के अनेक बड़े जिलों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. इस बार मुजफ्फरपुर, पूर्वी चंपारण, मुंगेर, सीतामढ़ी, सहरसा, पूर्णिया, भागलपुर, नवादा, सुपौल, कटिहार आदि जिलों से किसी को भी पदाधिकारी नहीं बनाया जा सका है. लेकिन दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, भोजपुर, लखीसराय आदि जिलों पर पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व खूब मेहरबान रहा है. इन जिलों से समिति में दो-दो, तीन-तीन लोग लिए गए हैं.

भाजपा की इस नई समिति में धनबल को उदारता से राजनीतिक हैसियत दी गई है. दिलीप जायसवाल को ही फिर से कोषाध्यक्ष बनाया गया है. जायसवाल भाजपा के पुराने ‘सेवक’ हैं, लेकिन पार्टी-नेतृत्व के लिए बार-बार परेशानी का सबब बनते रहे हैं. उन पर गत विधानसभा चुनावों में पार्टी उम्मीदवार से भीतरघात का भी आरोप लगा था. फिर भी, दिल्ली के नेताओं ने उन पर भरोसा जताया है. उनके सहायक, अर्थात्‌ सह कोषाध्यक्ष राकेश तिवारी का नाम भी धनबली की कोटि में शुमार होता है.

उनके बारे में भाजपा के बिहारी नेता कम, दिल्ली के नेता अधिक जानते हैं. वे वर्षों से विधान परिषद की उम्मीदवारी के लिए परेशान रहे हैं, लेकिन उस मोर्चे पर सफलता नहीं मिली. धनबलियों की इस सूची में, दिल्ली में रह कर अमीर बने आनंद झा भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं. बिहार भाजपा के लिए बिल्कुल अपरिचित इस चेहरे के बारे में पार्टी के दिल्ली के नेता ही ज्यादा जानते हैं. प्रदेश मंत्री के तौर पर मनोनीत डीएन मंडल भी सामान्य धनबली नहीं हैं. अतिपिछड़ों के कोटे से पदाधिकारी बने इस नेता को इनके गृह जिला मधुबनी के भाजपाई भी कम ही जानते हैं. ये गत विधानसभा चुनाव में फुलपरास से कांग्रेस से उम्मीदवारी चाहते थे.

ऐसा नहीं होने पर भाजपा में शामिल हो गए और अब नित्यानंद राय की टीम में आकर राज्य नेतृत्व का हिस्सा बन गए हैं. कमिटी में कई पैरवी पुत्र भी हैं. कभी अरुण जेटली की पैरवी पर दिल्ली से किसी युवा नेता को लाकर सीधे विधान परिषद में भेज दिया गया था. बाद में वे राजनेता भाजपा में रहे ही नहीं. इस बार भी लगभग आधा दर्जन ऐसे लोगों को प्रदेश की टीम में शामिल कर दिल्ली के प्रभावशाली नेताओं को खुश रखने की कोशिश की गई है. ऐसे लोगों की सूची में नवीन कुमार सिंह, विश्वमोहन चौधरी आदि हैं. ऐसे कई लोगों का नाम भाजपा के बिहारी नेताओं-कार्यकर्त्ताओं ने पहली बार सुना है. लोगों का मानना हैं कि इनमें से कुछ आने वाले वर्षों में अवसर और हवा के रुख के अनुसार काम करेंगे.

नित्यानंद राय को बिहार में भाजपा की राजनीति के अनुकूल पीच मिला है. केन्द्र में प्रचंड जनादेश से नरेन्द्र मोदी की सरकार है और उसके दर्जनों कल्याणकारी कार्यक्रम आम जन को आकर्षित कर रहे हैं. प्रदेश भाजपा की इस नई टीम की पहली बैठक 24-25 अप्रैल को किशनगंज में हो रही है. लेकिन देखने वाली बात होगी कि ये नई टीम बिहार के लिए क्या राणनीति तय करती है और उस पर अमल का क्या रोड मैप बनता है.

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