लाखों लोगों को मौत के मुंह में ढकेलने अथवा अपंग बना देने वाली विश्व की भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना भोपाल गैस त्रासदी को राज्य सरकार ने महज़ एक साधारण दुर्घटना मान रखा है. सरकार का कोई भी अधिकारी-कर्मचारी इस पर चर्चा करने के लिए सहज तैयार नहीं दिखता.
2/3 दिसंबर 1984 की रात हुए भोपाल गैस कांड को 25 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन यूनियन कार्बाइड कारखाने में पड़ा हज़ारों टन मलवा आज भी शहर केलोगों के शरीर में धीमा ज़हर घोल रहा है. मध्य प्रदेश सरकार इस मलवे को लेकर अभी भी असमंजस की स्थिति में है. सरकार के कुछ ज़िम्मेदार अधिकारी बड़ी लापरवाही से कहते हैं कि कारखाने के मलवे से कोई खतरा नहीं है, लेकिन रसायन विशेषज्ञ मलवे की गहन छानबीन के बाद बताते हैं कि इसमें आज भी का़फी ज़हरीले रसायन मिले हुए हैं, जो हर साल बरसात के मौसम में प्राकृतिक जल में घुलकर कारखाने के आसपास के तीन-चार किलोमीटर तक के क्षेत्र की मिट्टी और भूमिगत जल को प्रदूषित कर रहे हैं. सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट की निदेशक सुनीता नारायण ने बताया कि जब राज्य सरकार ने इस मलवे की रासायनिक जांच कराने में कोई रुचि नहीं ली तो इनके संगठन ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्री और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल की अनुमति तथा राज्य के प्रदूषण नियंत्रण मंडल के सहयोग से भोपाल के मध्य स्थित यूनियन कार्बाइड कारखाने के साथ-साथ आसपास के क्षेत्रों की मिट्टी एवं भूमिगत जल के नमूने प्रयोगशाला जांच के लिए एकत्र करने में सफलता हासिल की. जांच के बाद पता चला कि जो घातक रसायन कारखाने की मिट्टी और पानी में घुले हुए हैं, वे ही कारखाने के आसपास के तीन-चार किलोमीटर तक के क्षेत्र की मिट्टी और पानी में घुले पाए गए. सीसा, पारा और अन्य कई प्रकार के ज़हरीले रसायनों के अलावा कई हैवी मेटल्स घुले होने की वजह से यहां का पानी मनुष्य के शरीर के लिए धीमे ज़हर का काम कर रहा है. पुराने भोपाल में गैस पीड़ितों की बीमारियां लगातार गंभीर हो रही हैं और अब वे नई-नई बीमारियों के शिकार हो रहे हैं. लेकिन सरकार को इसकी कोई चिंता नहीं है.
यूनियन कार्बाइड कारखाने की ज़मीन की क़ीमत आज अरबों में है.  राज्य सरकार इस भूमि का अधिग्रहण करना चाहती है. सरकार को इस बात की जल्दी तो है कि मलवा हटे और कारखाने की ज़मीन खाली हो, लेकिन यह खर्चीला, मुश्किल और जो़खिम भरा काम है. 1989 और 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने यूनियन कार्बाइड कारखाने में शेष बचे कचरे और मलवे के निपटान के बारे में निर्देश दिए थे, लेकिन कारखाने ने इस खर्चीले और जो़खिम भरे काम से बचने के लिए अपने शेयर एक भारतीय कंपनी को बेच दिए. वर्ष 1997 में इस कंपनी यानी एवरेडी इंडस्ट्रीज इंडिया लिमिटेड ने नागपुर के एक प्रतिष्ठित संस्थान से मलवे की जांच कराई, लेकिन इसके निष्कर्ष आज तक गुप्त रखे गए. एवरेडी यहां इलेक्ट्रॉनिक उद्योग लगाना चाहती थी, लेकिन शायद इस जगह मौजूद प्रदूषण के कारण इसने अपना फैसला बदल दिया.
चूंकि मलवे को हटाने और कारखाने को प्रदूषण मुक्त करने के लिए 1000 करोड़ रुपये खर्च आने का अनुमान है, इसलिए यूनियन कार्बाइड ने उच्च न्यायालय में सा़फ कह दिया कि एकमुश्त मुआवजा भुगतान के बाद इस संबंध में अब उसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं बचती है. अत: मलवा हटाने का काम उस पर नहीं थोपा जा सकता है.  न्यायालय ने आदेश दिया है कि लगभग 390 टन ज़हरीले मलवे को एकत्र कर उसे उपचारित किया जाना चाहिए. 2007 के इस आदेश के बाद लगभग 40 टन मलवा धार ज़िले के पीतमपुर भेज दिया गया. गुजरात सरकार इस मलवे को लेने से सा़फ मना कर दिया है और वह मामले को सर्वोच्च न्यायालय तक ले गई है.
इसी बीच राज्य सरकार के मंत्री बाबूलाल गौर ने कारखाने को जनता के लिए खोल देने की घोषणा करके ज़हरीले मलवे के मामले को अगंभीर बना दिया. गौर ने कहा कि जब लोग यहां आएंगे तो उनकी वह धारणा दूर हो जाएगी कि कारखाने में अभी भी खतरनाक रसायनों का असर मौजूद है. गौर ने एक प्रयोगशाला की जांच का हवाला देकर कहा कि कारखाने में खतरनाक ज़हरीले तत्व नहीं पाए गए. राज्य सरकार की इस अगंभीरता के कारण कारखाने से मलवा हटाने का काम टल गया है. यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री के आसपास लगभग तीन किलोमीटर के दायरे में पिछले 15 वर्षों में आबादी का़फी त़ेजी से बढ़ी है. अन्य क्षेत्रों की तुलना में यहां खांसी, दमा, सांस, पीलिया, टीबी, कैंसर और त्वचा-फेफड़े से संबंधित रोगों से पीड़ितों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से ज़्यादा है.
शाकिर अली चिकित्सालय के डॉक्टर बताते हैं कि यहां आने वाले लोगों में आंखों और फेफड़ों की बीमारियां आम हैं. डॉक्टर ममता मिश्रा कहती हैं, हमें हर रोज़ क्रॉनिक ऑब्स्ट्राक्टिव पल्मनरी डिसऑर्डर के 50 से ज़्यादा केस देखने को मिलते हैं. यूनियन कार्बाइड के ठीक पीछे बसी नव जीवन कॉलोनी की निवासी राजपति बाई की बेटी दुर्घटना के समय छह महीने की थी. दस वर्ष की आयु में उसे वर्टिलिगो (स़फेद दाग) हो गया और तभी से उसका वजन लगातार घट रहा है. भोपाल गैस कांड के बाद केंद्र सरकार की पहल पर यूनियन कार्बाइड से पीड़ितों को मुआवजा और राहत दिलाने के लिए 470 मिलियन डॉलर यानी लगभग 750 करोड़ रुपये की धनराशि का समझौता हुआ था. कंपनी ने यह राशि केंद्र सरकार को दे दी, लेकिन लगभग दो वर्षों तक मुआवजा वितरण प्रक्रिया तय न होने के कारण यह धन भारतीय रिजर्व बैंक में जमा रहा, जिस पर ब्याज मिलता रहा. 1989 में मुआवजा वितरण किस्तों में तय किया गया और एक बड़ी धनराशि बैंक में जमा रह जाने से सरकार को ब्याज की कमाई होती रही. 750 करोड़ रुपये की मूल राशि ब्याज मिलाकर 3000 करोड़ रुपये हो गई. सरकार ने लगभग 5.74 लाख लोगों को 1.549 करोड़ रुपये का नकद मुआवजा वितरण 15 वर्षों में किया. इसके अलावा लगभग 512 करोड़ रुपया पीड़ितों के इलाज पर खर्च होना बताया गया. आज भी लगभग 1000 करोड़ रुपया मुआवजा मद में बैंक में जमा है और उस पर लगातार ब्याज भी मिल रहा है. भोपाल गैस पीड़ितों के लिए काम कर रहे संगठनों का कहना है कि पीड़ितों को अभी और मुआवजा मिलना चाहिए.
लोगों का यह भी कहना है कि राज्य सरकार के गैस राहत मंत्री बाबूलाल गौर अपने चुनाव क्षेत्र के निवासियों को न्याय दिलाने के लिए उन्हें गैस पीड़ित घोषित कर मुआवजा दिलाना चाहते हैं, लेकिन इसे वास्तविक पीड़ित स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.
क़ातिल एंडरसन कहां है?
दो/तीन दिसंबर 1984 की उस काली रात का ग़ुनहगार और हज़ारों मौत का ज़िम्मेदार है वारेन एंडरसन. यूनियन कार्बाइड का मालिक एंडरसन. उसके प्रत्यर्पण के लिए भारत सरकार ने अमेरिका से अनुरोध भी कर रखा है, लेकिन 25 साल बीत जाने के बाद अभी तक भोपाल के इस क़ातिल को अदालत की चौखट तक ला पाने में भारत सरकार और सीबीआई असफल रही है. ऐसा इसलिए, क्योंकि एंडरसन को सज़ा दिलवाने की मंशा और इच्छा शक्ति सरकार के पास नहीं है. एक दस्तावेज के मुताबिक़ पिछले 25 सालों में एंडरसन के प्रत्यर्पण के प्रयासों पर सीबीआई ने महज़ 2 लाख रुपये खर्च किए. जबकि मोनिका बेदी को पुर्तगाल से भारत लाने के लिए सीबीआई ने करोड़ों रुपये बहा दिए थे. यदि दो लाख रुपये का हिसाब लगाया जाए तो एक बार अमेरिका आने-जाने का खर्च भी इससे ज़्यादा पड़ता है. ज़ाहिर है, उक्त दस्तावेज भोपाल गैस पीड़ितों को न्याय दिलाने को लेकर सीबीआई और भारत सरकार की मंशा को सा़फ कर देता है.

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