आज अर्जुन सिंह मीडिया के, राजनीतिक दलों के, ख़ुद उनके अपने दल कांग्रेस के निशाने पर हैं. दो दशक से ज़्यादा बीत गए, मीडिया को भोपाल गैस त्रासदी महज़ एक खानापूर्ति की तरह याद थी. दिसंबर की तीन तारीख़ को, दरअसल दो और तीन दिसंबर की रात साढ़े तीन बजे के बाद गैस रिसी थी, जिसने लगभग बीस हज़ार से ज़्यादा जानें ले लीं. अब तक वर्ष में एक बार बस तीन दिसंबर को भोपाल गैस कांड की याद में कुछ ख़बरें लिखी जाती रहीं और कुछ टीवी पर दिखाई जाती रहीं. स़िर्फ कुछ दिनों के लिए भोपाल गैस कांड पर चीख पुकार शुरू हुई है.
भाजपा को क्यों कहें, कांग्रेस ही उनका साथ नहीं दे रही. महासचिव दिग्विजय सिंह एक बात कहते हैं तो सत्यव्रत चतुर्वेदी उनकी बात का मज़ाक उड़ाते हैं. ताक़तवर महासचिव जनार्दन द्विवेदी दोनों को लताड़ देते हैं. कांग्रेस पार्टी ने अर्जुन सिंह को अकेला छोड़ दिया है. अर्जुन सिंह ख़ामोश हैं. मीडिया उनसे कुछ बुलवाना चाहता है और कांग्रेस के भी कुछ नेता उन्हें उकसा रहे हैं. अर्जुन सिंह कमज़ोर नहीं हैं कि अपना बचाव न कर सकें, पर उनकी राजनैतिक शिष्टता और अनुशासन उन्हें ख़ामोश रहने पर मजबूर कर रहा है.
पच्चीस साल से भोपाल गैस के शिकार परिवार अकेले लड़ाई लड़ रहे थे. कोई राजनैतिक दल उनके साथ नहीं खड़ा था. भाजपा तो बिल्कुल नहीं, आज भाजपा के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि वह गैस पीड़ितों के हितों की रक्षा करेंगे, पर भाजपा की सरकार तो पहले भी मध्य प्रदेश में रही है. उसने न मरे लोगों को ज़्यादा मुआवज़ा दिलवाने या देने का फैसला लिया और न प्रभावित परिवारों को मदद पहुंचाने का. आज दिल्ली में प्रकाश जावड़ेकर और भोपाल में शिवराज सिंह चौहान गैस पीड़ितों के लिए नहीं लड़ रहे, बल्कि कांग्रेस के मुक़ाबले भाजपा को राजनीतिक फायदा कैसे मिले, इसके रास्ते तलाशते नज़र आ रहे हैं.
केंद्र में सात साल भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार रही, एक बार भी भोपाल गैस पीड़ित और उनका दर्द उन्हें नज़र नहीं आया. आज उन्हें सब याद आ रहा है, हालांकि उन्होंने यूनियन कार्बाइड के नक़ाब वाली कंपनी डाओ से चुनाव में चेक से चंदा तक लिया. उनका गुस्सा यूनियन कार्बाइड के ख़िला़फ कम, अर्जुन सिंह के ख़िला़फ ज़्यादा है. अर्जुन सिंह ने अपनी राजनीति का आधार सांप्रदायिकता के विरोध को बनाया था और केंद्र में या राज्य में पदों पर रहते हुए भाजपा और संघ का मुखर विरोध किया था. भाजपा आज उसका बदला ले रही है.
भाजपा को क्यों कहें, कांग्रेस ही उनका साथ नहीं दे रही. महासचिव दिग्विजय सिंह एक बात कहते हैं तो सत्यव्रत चतुर्वेदी उनकी बात का मज़ाक उड़ाते हैं. ताक़तवर महासचिव जनार्दन द्विवेदी दोनों को लताड़ देते हैं. कांग्रेस पार्टी ने अर्जुन सिंह को अकेला छोड़ दिया है. अर्जुन सिंह ख़ामोश हैं. मीडिया उनसे कुछ बुलवाना चाहता है और कांग्रेस के भी कुछ नेता उन्हें उकसा रहे हैं. अर्जुन सिंह कमज़ोर नहीं हैं कि अपना बचाव न कर सकें, पर उनकी राजनैतिक शिष्टता और अनुशासन उन्हें ख़ामोश रहने पर मजबूर कर रहा है.
मैं 10 जून की सुबह साढ़े ग्यारह बजे उनसे मिला. संयोग से उनकी एप्वाइंटमेंट लिस्ट में मेरा नाम पहला था. एक नए उर्दू साप्ताहिक अख़बार चौथी दुनिया के प्रकाशन शुरू होने के अवसर पर होने वाले समारोह में उन्हें निमंत्रण देने गया था. इसी अवसर पर अनौपचारिक बातचीत हुई. मैंने कहा कि टीवी चैनल आपके घर के बाहर खड़े हैं. सोचकर बोले कि सबसे ज़्यादा कन्फ्यूज़न ये टीवी वाले ही फैलाते हैं. अर्जुन सिंह के चेहरे पर उदासी थी. शायद उन्हें तीन दिसंबर का दिन याद आ रहा होगा. हम में से किसी ने एक साथ दस या बीस लाशें नहीं देखी होंगी, पर अर्जुन सिंह ने तो पंद्रह हज़ार से ज़्यादा लाशें तीन, चार और पांच दिसंबर के बीच देख ली थीं. उस समय उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता लोगों की जान बचाना थी कि कहीं पंद्रह हज़ार की संख्या डेढ़ या दो लाख में न बदल जाए. गैस को लेकर अफवाहें और फिर भगदड़. जो मर गए थे, उनकी लाशें हटाना और जो ज़िंदा बचे थे, उनके इलाज का इंतज़ाम करना. भोपाल में सरकार ख़त्म हो चुकी थी, न दवाएं थीं और न क़फन के लिए कपड़े. भोपाल निवासियों ने सरकार का दायित्व संभाल लिया था. कपड़े वालों ने कपड़े और दवा वालों ने दवाएं मुफ्त देनी शुरू की.
चौथी दुनिया टीवी पर इस घटना के चश्मदीद गवाह सुधीर पांडे ने बताया कि जो भी घर से निकलता था, वह साथ में रोटी बांधकर निकलता था, ताकि वे किसी के काम आ सकें. इस गवाह ने ख़ुद पांच से सात लाशें एक साथ बांध कर जलाईं और कुछ को दफनाया. सभी लोग इस काम में लगे थे कि कहीं महामारी न फैल जाए. इस प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार, दहशत की वजह से शहर के बाहर जाने वाली हर सवारी खचाखच भरी जाती थी. यदि कोई कुचल जाता था तो कौन कुचला, इसे देखने भी कोई नहीं रुकता था. प्रशासन की कोई गाड़ी और कोई अधिकारी सड़क पर निकल ही नहीं पा रहा था. सभी अफवाहों की वजह से शहर छोड़कर भाग जाना चाहते थे. मौत न हिंदू देख रही थी और न मुसलमान. ऐसे में अर्जुन सिंह के सामने सबसे बड़ा ख़तरा लूटमार, चोरी, डकैती के साथ सांप्रदायिक दंगे का भी रहा होगा. भोपाल गैस रिसाव जैसी घटना आज़ाद भारत में पहले कभी नहीं हुई थी. किसी तरह शहर को पटरी पर लाना था. शहर एक महीने बाद ही पटरी पर आ पाया था.
अर्जुन सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, प्रणव मुखर्जी, ए बी वर्धन या ममता बनर्जी जैसे लोगों के निर्माण में पचास-साठ साल लगते हैं. इनसे चूक हो सकती है, फैसले लेने में देर हो सकती है, पर ये देशद्रोही नहीं हो सकते. मीडिया में आए ग़ैर ज़िम्मेदार लोग बिना जानकारी या परिस्थिति समझे इन्हें देशद्रोही की तरह पेश करने लगते हैं. इनके लिए सबसे बड़ा सवाल है कि वारेन एंडर्सन कैसे गया. एक अफवाह फैली कि किसी का दिल्ली से फोन गया था. जिसे यह मालूम है, उसे नाम भी मालूम होगा. पर इस ख़बर के पीछे की अफवाह भरी कहानी उड़ाने वाले की तलाश कोई नहीं कर रहा. सभी भरोसा कर रहे हैं और चाहते हैं कि अर्जुन सिंह किसी कांग्रेस नेता का नाम ले लें. अगर अर्जुन सिंह नाम नहीं लेते तो उन्हें देशद्रोही बताने में मीडिया कोई देर नहीं करेगा. कोई भी सरकार होती, एंडर्सन को नहीं रोक पाती. भाजपा ने अपने किसी कार्य से यह साबित नहीं किया कि वह अमेरिका को जवाब देने की स्थिति में है. न्यूक्लियर लाइबिलिटी बिल इसका उदाहरण है, जिसमें कांग्रेस और भाजपा एक साथ खड़े हैं.
मैंने एक रात पहले एक दोस्त से असावधानीवश कह दिया था कि मैं कल अर्जुन सिंह से मिल रहा हूं. उन्होंने अगले दिन शाम मुझसे पूछा कि क्या बात हुई, उन्हें ऑफ द रिकॉर्ड बता दें. वे दोस्त टेलीविज़न की बड़ी पर्सनालिटी हैं. मैंने उन्हें बताया कि मैं उर्दू चौथी दुनिया का निमंत्रण लेकर मिला और थोड़ी ही बात हुई. थोड़ी देर बाद देखा कि टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही थी कि अर्जुन सिंह ने चुप्पी तोड़ी. चौथी दुनिया के प्रधान संपादक को इंटरव्यू दिया. बातचीत इंटरव्यू में बदल गई. रात साढ़े नौ बजे मुझे विनोद दुआ लाइव में साफ कहना पड़ा कि ऐसी पत्रकारिता ग़लत है और अगर अर्जुन सिंह चुप हैं तो बिल्कुल ठीक कर रहे हैं. भोपाल गैस कांड के पीड़ितों के दर्द का व्यापार चल रहा है. कौन सा दल या कौन सा नेता जीतता है पता नहीं, किसी टीवी चैनल को कैसी सुर्खी बनाने को मिलती है पता नहीं, पर भोपाल गैस कांड के शिकार लोगों की तकलीफ, उनका दर्द जहां है, वहीं रहेगा. उनका व्यापार होगा, उनके आंसू कोई नहीं पोछेगा.