ऐसा क्यों है कि अपने क्षेत्र में पदक जीतने वाले सर्वोत्तम भारतीय गणितज्ञ विदेशों में हैं? लेकिन, अभी उनके पास लोकसभा में बहुमत हासिल है, इसलिए उन्हें देश को अपनी तरह से बर्बाद करने का अधिकार है, जैसा कि पिछली प्रभुत्व वाली पार्टियां करती थीं. सबसे दिलचस्प बात यह है कि अगर उन्होंने वास्तव में विवेकानंद को पढ़ा होता, जिनकी नीतियों पर चलने की वे कसमें खाते हैं, तो उन्हें पता चलता कि प्राचीन संस्कृत के यश पर विवेकानंद का संदेह कितना मज़बूत था.
अमेरिकी राष्ट्रपतियों जॉन एफ कैनेडी और लिंडन जॉनसन के प्रशासन में विदेश मंत्री रह चुके डीन रस्क ने एक बार कहा था कि वाशिंगटन के आशावादी लोग रूसी भाषा सीख रहे हैं, जबकि निराशावादी लोग चीनी. उस समय रूस अमेरिका का अच्छा दुश्मन था और चीन बुरा. भारत में संस्कृत की बजाय जर्मन भाषा पढ़ाने का फैसला यह जाहिर करता है कि भारत के दूरंदेशी, विकासोन्मुखी लोग जर्मन सीखने को तरजीह देना चाहते हैं, लेकिन रूढ़िवादी देश को प्राचीन परंपरा की तरफ़ ले जाना चाहते हैं और संस्कृत सीखना चाहते हैं. यह भी एक रूमानी सोच है, जब सभी भारतीय संस्कृत बोलते थे, उस समय भारत में दूध और शहद की नदियां बहती थीं. यह एक मिथ्या है.
संस्कृत अभिजात्य वर्ग की भाषा थी, जिसे ब्राह्मण बोला करते थे. यही वजह थी कि बुद्ध एवं महावीर ने अपने उपदेश क्रमश: पाली और अर्द्ध-मगधी भाषाओं में दिए. उस समय जो भी स्थिति रही हो, लेकिन आज संस्कृत एक मृतप्राय: भाषा बन गई है. इस भाषा को बोलने वाले जो थोड़े-बहुत लोग हैं, वे भी अशुद्ध भाषा बोलते हैं. अशुद्ध उच्चारण से वसुधैव कुटुंबकम जैसे शब्दों की दुर्गति होते हम कितनी बार सुनते हैं. संस्कृत इतिहास में हमेशा अभिजात्य वर्ग की भाषा थी, जिसे सीखने का सौभाग्य केवल ब्राह्मणों को प्राप्त था. हालांकि, मैकाले नए शासक वर्ग के लिए एक तिरस्कारित नाम है, लेकिन अगर वह नहीं होता, तो शायद श्याम कृष्ण वर्मा को संस्कृत पढ़ने की अनुमति कभी न मिलती और न बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को पढ़ाई करने का मौक़ा मिलता तथा न वे फक्र से अपना सिर ऊंचा कर पाते. यहां तक कि नरेंद्र मोदी भी उस मुकाम पर न पहुंच पाते, जहां वह आज हैं.
इसके बावजूद देश में सांस्कृतिक अतिवाद का एक पक्ष है, जो यह हठ पकड़ कर बैठा है कि स्कूलों में जर्मन भाषा की बजाय संस्कृत पढ़ाई जाए. ऐसे लोगों को कौन समझाए कि संस्कृत की बहुत-सी रचनाओं को विदेशियों, खास तौर पर जर्मन विद्वानों ने गुमनामी के अंधेरों से निकाल कर दुनिया के सामने पेश किया. एक तरफ़ तो प्रधानमंत्री भारत की महत्वाकांक्षाओं, तकनीकी दृष्टि से सक्षम और भविष्य की ओर अग्रसर होने की बात कर रहे हैं और दूसरी तरफ़ हम यहां बड़ी तेज़ी से अतीत की ओर जा रहे हैं. यह भाजपा का पागलपन है. अगर इसे फलने-फूलने का मौक़ा दिया गया, तो यह सबके लिए विकास की योजना के तहत पूरे भारत को एकजुट करने का मोदी का सपना तहस-नहस कर देगा. संपूर्ण भारत की बात कौन करे, संस्कृत को तो सभी हिंदू ही पसंद नहीं करते. तमिल तो संस्कृत जितनी ही पुरानी भाषा है और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बहुत सारे लोग उसका इस्तेमाल करते हैं. तो फिर तमिल को ही क्यों न सभी स्कूलों में पढ़ाया जाए? बोलचाल की भाषा के रूप में संस्कृत का कोई उपयोग नहीं है और यह आधुनिक तकनीक के लिए भी उपयुक्त नहीं है. हालांकि नि:संदेह कई लोग होंगे, जो इसमें नए और जटिल प्रयोग (छशेश्रेसळीाी) कर सकते हैं.
संस्कृत अभिजात्य वर्ग की भाषा थी, जिसे ब्राह्मण बोला करते थे. यही वजह थी कि बुद्ध एवं महावीर ने अपने उपदेश क्रमश: पाली और अर्द्ध-मगधी भाषाओं में दिए. उस समय जो भी स्थिति रही हो, लेकिन आज संस्कृत एक मृतप्राय: भाषा बन गई है. इस भाषा को बोलने वाले जो थोड़े-बहुत लोग हैं, वे भी अशुद्ध भाषा बोलते हैं. अशुद्ध उच्चारण से वसुधैव कुटुंबकम जैसे शब्दों की दुर्गति होते हम कितनी बार सुनते हैं.
जर्मन, फ्रेंच, जापानी या मंडारिन जैसी आधुनिक भाषाएं सीखने की बात तो समझ में आती है, लेकिन संस्कृत को स्कूलों के ऊपर थोपना संसाधन की बर्बादी है. आख़िरकार संस्कृत की हर क्लासिक कृति का बेहतर अनुवाद प्रत्येक भारतीय भाषा में मौजूद है. अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए एक लंबे समय तक इंतज़ार करने के बाद, अब हिंदू राष्ट्रवादी देश में अपना सांस्कृतिक कार्यक्रम लागू करने के लिए अधीर हैं. उनकी सोच अतीत के महिमा मंडन तक संकुचित है. वे यह विश्वास कर लेना चाहते हैं कि सभी अच्छी एवं महान बातें वेदों और महाकाव्यों में दर्ज हैं. यह हीन भावना से ग्रसित होने के संकेत हैं, जो अहंकार की तरफ़ ले जाते हैं. अगर यह सच भी है, तो इससे भारत की प्राचीन संस्कृति की ही बदनामी होगी कि वेद लिखे जाने के बाद सैकड़ों सालों तक भारतीय सभ्यता में ठहराव आ गया. वे यह तर्क देंगे कि पाइथागोरस के थ्योरम (प्रमेय) वैदिक काल में प्रतिपादित हुए थे. अगर यह मान भी लिया जाए, तो इससे क्या अंतर पड़ता है? भारत का गणित के क्षेत्र में योगदान इस एक थ्योरम से कहीं अधिक है. यह महत्वपूर्ण नहीं है कि थ्योरम की खोज कहां हुई, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि वे गणितज्ञ कहां हैं, जो गणित के क्षेत्र में नया काम कर रहे हैं?
ऐसा क्यों है कि अपने क्षेत्र में पदक जीतने वाले सर्वोत्तम भारतीय गणितज्ञ विदेशों में हैं? लेकिन, अभी उनके पास लोकसभा में बहुमत हासिल है, इसलिए उन्हें देश को अपनी तरह से बर्बाद करने का अधिकार है, जैसा कि पिछली प्रभुत्व वाली पार्टियां करती थीं. सबसे दिलचस्प बात यह है कि अगर उन्होंने वास्तव में विवेकानंद को पढ़ा होता, जिनकी नीतियों पर चलने की वे कसमें खाते हैं, तो उन्हें पता चलता कि प्राचीन संस्कृत के यश पर विवेकानंद का संदेह कितना मज़बूत था. भगवद् गीता पर उनका व्याख्यान पढ़िए और गीता के लेखन के संबंध में श्रीकृष्ण की ऐतिहासिकता और अर्जुन का एक हाड़-मांस का इंसान होने पर उनके संदेह को स्वयं देख लीजिए. विवेकानंद कहते हैं कि शायद आदि शंकराचार्य ने खुद ही गीता की रचना की थी और महाभारत में डाल दिया था! एक मात्र सांत्वना यह है कि अगर किसी विषय को छात्रों से नापसंद कराना हो, तो मेरी नज़र में इससे बेहतर तरीका नहीं हो सकता कि उस विषय को स्कूल में ख़राब ढंग से पढ़ाना शुरू कर किया जाए. जैसे ही छात्र इस शिक्षा प्रणाली से बहार निकलेंगे, वे अपने लिए उस भाषा का चयन करेंगे, जो उनके करियर में उपयोगी साबित हो.