उत्तर प्रदेश में अब सेना की भर्ती रुक सकती है. भारतीय थलसेना उत्तर प्रदेश में सैनिकों की भर्ती रोककर उसे किसी अन्य राज्य को देने पर विचार कर रही है. सेना ने उत्तर प्रदेश सरकार को इस बारे में पत्र लिखकर चेतावनी भी दी है और उससे जवाब भी मांगा है. अगर सेना ने उत्तर प्रदेश में सैनिकों की भर्ती रोकी, तो यह राज्य के लिए भारी नुक़सान वाला क़दम साबित होगा. लेकिन, उत्तर प्रदेश सरकार को महोत्सव और मौज-मस्ती से फुर्सत नहीं है. ग़ौरतलब है कि थलसेना के जवानों का 20 फ़ीसद हिस्सा अकेले उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड से भरा जाता है. यहां होने वाली भर्तियों के कारण प्रदेश के युवकों को रोज़गार मिलता है और प्रदेश को राजस्व के साथ-साथ सम्मान मिलता है. लेकिन, उत्तर प्रदेश सरकार के ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैये के चलते सूबे में होने वाले सेना भर्ती कार्यक्रमों पर ग्रहण लगने की आशंका है. सेना ने उत्तर प्रदेश सरकार पर आरोप लगाया है कि वह सेना भर्ती के आयोजनों में उसे सहयोग नहीं कर रही है. इस वजह से उत्तर प्रदेश से सेना में अपेक्षित भर्तियां नहीं हो पा रही हैं. उत्तर प्रदेश सरकार की इस उपेक्षा के कारण प्रदेश के युवकों का नुक़सान हो रहा है. उत्तर प्रदेश सरकार के अलमबरदार सेना के आला अधिकारियों के साथ फोटो खिंचवाने का शौक तो रखते हैं, लेकिन सेना की ज़रूरतों का ध्यान नहीं रखते. सेना के अधिकारी कहते हैं कि सेना में युवकों की भर्ती का फ़ायदा प्रदेश को ही मिलता है. प्रदेश सरकार के इसी रवैये के चलते फैजाबाद स्थित डोगरा रेजिमेंट के उखड़ कर हिमाचल प्रदेश चले जाने का रास्ता तैयार हुआ है. उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के सेना भर्ती के उप-महानिदेशक ब्रिगेडियर एमडी चाको की यह आधिकारिक शिकायत काफी गंभीर है. ब्रिगेडियर चाको ने उत्तर प्रदेश सरकार पर सेना भर्ती में पूरी तरह असहयोग बरतने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि पिछले दिनों झांसी
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के सेना भर्ती के उप-महानिदेशक ब्रिगेडियर एमडी चाको की यह आधिकारिक शिकायत काफी गंभीर है. ब्रिगेडियर चाको ने उत्तर प्रदेश सरकार पर सेना भर्ती में पूरी तरह असहयोग बरतने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि पिछले दिनों झांसी ज़िला प्रशासन ने भर्ती की पूर्व घोषित तारीख से एक दिन पहले भर्ती कार्यक्रम रद्द करने का एकतरफ़ा फैसला सुना दिया, जिससे अफरातफरी मच गई.
ज़िला प्रशासन ने भर्ती की पूर्व घोषित तारीख से एक दिन पहले भर्ती कार्यक्रम रद्द करने का एकतरफ़ा फैसला सुना दिया, जिससे अफरातफरी मच गई. सेना में भर्ती के कार्यक्रम काफी होमवर्क और कवायद के बाद तैयार किए जाते हैं. उनके बारे में संबद्ध ज़िला प्रशासनों को बाकायदा पहले से सूचना दी जाती है. भर्ती की सूचनाएं बाकायदा प्रसारित की जाती हैं, ताकि विभिन्न इलाकों से बच्चे भर्ती के लिए उस स्थान पर आएं. उन प्रसारित सूचनाओं पर अलग-अलग इलाकों से बच्चे आते हैं, लेकिन आने पर पता चलता है कि प्रशासन ने भर्ती का कार्यक्रम रद्द कर दिया है. भर्ती प्रक्रिया में शामिल रहने वाले सेनाधिकारियों और अन्य सैन्य कर्मियों को भी प्रशासन के फैसले का पता बाद में चलता है. सेना के भर्ती कार्यक्रम सेना मुख्यालय और रक्षा मंत्रालय की अनुमति और सहमति लेकर तय किए जाते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार सेना के इस काम की गंभीरता को समझती ही नहीं. इससे उत्तर प्रदेश सरकार की छवि भी आम लोगों की निगाह में गिर रही है. हालत यह है कि सेना के इन कार्यक्रमों में उत्तर प्रदेश सरकार की लापरवाही के कारण इसमें सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है. ब्रिगेडियर चाको ने कहा है कि वाराणसी में भी भर्ती रैली की अनुमति पीएमओ के हस्तक्षेप के बाद मिल सकी. रायबरेली के ज़िलाधिकारी ने तो उनके जनपद के अलावा दूसरे ज़िलों की भर्ती की अनुमति देने से लिखित रूप से इंकार कर दिया. ब्रिगेडियर ने कहा कि भारतीय सेना में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की 20 फ़ीसद भागीदारी है. लगभग 15 से 20 हज़ार सैनिक यहां से हर वर्ष भर्ती होते हैं, जिसमें बड़ा भाग उत्तर प्रदेश का होता है. एक जवान को वर्ष में सेना की ओर से जो वेतन एवं सुविधाएं दी जाती हैं, वह धन संबंधित प्रदेश में ही खर्च होता है, क्षेत्र की बेरा़ेजगारी दूर होती है. इसके बावजूद प्रदेश सरकार के अधिकारियों का रवैया समझ से परे है. सेना भर्ती में स्थानीय स्तर पर असहयोग पर ब्रिगेडियर ने उत्तर प्रदेश सरकार को आड़े हाथों लिया. फर्रुखाबाद की फतेहगढ़ छावनी स्थित करियप्पा कॉम्प्लेक्स में पिछले दिनों चल रही भर्ती के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार के असहयोगात्मक रवैये को देखकर चाको ने प्रदेश सरकार पर गंभीर आरोप जड़े. ब्रिगेडियर चाको ने यहां तक कहा कि हालात बेहद खराब हैं और यदि यही स्थिति बनी रही, तो उत्तर प्रदेश का भर्ती कोटा किसी अन्य राज्य को दे दिया जाएगा. उन्होंने बताया कि इस संबंध में उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर जवाब मांगा गया है. सेना के पत्र का जवाब उत्तर प्रदेश सरकार को 10 जनवरी तक दे देना था, लेकिन तब तक सरकार की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया था. इस बारे में सेना का आधिकारिक पक्ष जानने के लिए जब थलसेना के मध्य कमान मुख्यालय की जनसंपर्क अधिकारी गार्गी मलिक सिन्हा से बात की गई, तो उन्होंने कहा कि सेना के पत्र के जवाब में राज्य सरकार ने क्या लिखा है और लिखा भी है कि नहीं, इसका उन्हें पता नहीं है. वह शहर के बाहर हैं और आने पर इस बारे में कुछ बता पाएंगी. सेना की पीआरओ ने इतना ज़रूर कहा कि राज्य सरकार के असहयोग के मद्देनज़र सेना भर्ती के कार्यक्रमों पर कोई निर्णायक फैसला सेना मुख्यालय ही ले सकता है. मध्य कमान मुख्यालय राज्य सरकार का जवाब सेना मुख्यालय को भेज देगा.
एक तरफ़ कमी, दूसरी तरफ़ कोताही
जवानों और अफसरों की कमी से जूझ रही भारतीय सेना को प्रदेश सरकारों का असहयोगात्मक रवैया भी झेलना पड़ रहा है. भारत सरकार यह आधिकारिक रूप से स्वीकार करती है कि देश की तीनों सेनाओं को मिलाकर अफसरों और जवानों की भारी कमी है. ऐसे में उत्तर प्रदेश में सेना में भर्ती होने के लिए बड़ी संख्या में जुटने वाले युवकों को और उत्साहित करने की ज़रूरत है, लेकिन प्रदेश सरकार अपने असहयोग के चलते ऐसे युवकों का मनोबल गिरा रही है. आपको याद ही होगा कि लखनऊ में एक भर्ती रैली के दौरान युवकों को सीवर की छत पर खड़ा करा दिया गया था. सीवर की छत ढह जाने की वजह से तक़रीबन 50 युवकों की मौत हो गई थी. प्रशासनिक अराजकता का यह भीषण उदाहरण है. बरेली में भी भर्ती के लिए आए कई युवकों की सरकारी इंतजामात की कमी के कारण मौतें हो चुकी हैं. खास तौर पर सेना की भर्ती रैली में आने वाले युवकों की भगदड़ या बदइंतजामी के कारण होने वाली मौतों की ख़बरें लगातार आती रहती हैं. सरकार इंतजाम से पल्ला झाड़ती रहती है, लेकिन शासन-प्रशासन की मदद के बगैर सेना भर्ती रैलियां नहीं हो सकतीं. सरकार के इस बेजा रवैये की वजह से सेना में गहरी नाराज़गी है. आज देश का कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचा, जहां सेना की मदद की ज़रूरत नहीं पड़ती. अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की हिफाजत एवं आतंकियों से लगातार परोक्ष युद्ध लड़ते हुए सेना को प्राकृतिक आपदाओं और क़ानून व्यवस्था के मामलों में भी उतरना पड़ता है. पुलिस पूरी तरह नाकाम है. यहां तक कि बोरवेल में बच्चा गिरने पर भी सेना को ही उसे निकालने के लिए आना पड़ता है.
शासन-प्रशासन को इससे शर्म भी नहीं आती. सेना का संकट यह है कि अफसरों के अलावा जवानों की भारी कमी है. अफसरों के कुल स्वीकृत 47,574 पदों में से 9,845 पद रिक्त हैं. इनमें लेफ्टिनेंट कर्नल, मेजर, कैप्टन एवं लेफ्टिनेंट शामिल हैं. जवानों की कमी लगभग 60-70 हजार आंकी गई है. सेना में भर्ती होने के बाद भी वे सेना छोड़कर भाग रहे हैं. पिछले पांच सालों के दौरान ही क़रीब 50 हज़ार जवान सेना की नौकरी छोड़कर जा चुके हैं. ऐसी स्थिति में सेना में भर्ती के राष्ट्रीय अनिवार्यता वाले कार्यक्रमों के प्रति उत्तर प्रदेश सरकार का असहयोगात्मक रवैया बेहद गंभीर है.
चला जाएगा डोगरा रेजिमेंटल सेंटर
सैनिकों के सम्मान के साथ भेदभाव बरतने वाले राज्य उत्तर प्रदेश से भारतीय सेना की डोगरा रेजिमेंट अपना बोरिया-बिस्तर समेटने की तैयारी कर रही है. भारतीय सेना की प्रतिष्ठित डोगरा रेजिमेंट का रेजिमेंटल सेंटर उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में है. डोगरा रेजिमेंटल सेंटर होने के कारण फैजाबाद की एक बड़ी आबादी का रा़ेजगार चलता है और पूरी छावनी बसी रहती है. लेकिन, सेंटर उखड़ जाने से फैजाबाद का बड़ा हिस्सा वीरान हो जाएगा और वहां की चहल-पहल ख़त्म हो जाएगी. डोगरा रेजिमेंटल सेंटर को हिमाचल प्रदेश ले जाने की कोशिशें हो रही हैं. इसमें हिमाचल सरकार काफी सक्रिय है. हिमाचल प्रदेश सरकार ने डोगरा रेजिमेंट की स्थापना के लिए राज्य में मुफ्त में भूमि उपलब्ध कराने का आश्वासन भी दिया है. लेकिन, विडंबना यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार की खाल पर इससे कोई फ़़र्क ही नहीं पड़ रहा. इतनी बड़ी और प्रतिष्ठित रेजिमेंट को अपने यहां बनाए रखने में उत्तर प्रदेश सरकार की कोई रुचि नहीं है. लिहाजा इसके लिए कोई कोशिश या पहल भी नहीं हो रही है.
सैनिकों के साथ भेदभाव
मुआवजे, पुरस्कार और सम्मान देने में भी उत्तर प्रदेश सरकार फौजियों के साथ भेदभाव का रवैया रखती है. उत्तर प्रदेश में मुआवजा मुख्यमंत्री की मर्जी पर टिक गया है. करगिल युद्ध के पहले 1962, 65 और 71 के युद्धों में शहीद हुए सैनिकों की 10 विधवाओं के पुनर्वास के लिए सरकार ने महज पांच लाख रुपये दिए हैं. करगिल युद्ध के शहीदों को अपेक्षाकृत अधिक तरजीह दी जा रही है, जबकि 1962, 65 और 71 का युद्ध ही पूर्ण युद्ध था. वीर सैनिकों के सम्मान के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने मात्र 73 लाख रुपये का बजट रखा है. जबकि पुलिस के एक सीओ की हत्या पर 50 लाख रुपये और दो सरकारी नौकरियों के मुआवजे दिए जाते हैं. शांति काल के वीरता पुरस्कार अशोक चक्र और युद्ध काल के वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र के विजेताओं के लिए हिमाचल प्रदेश और पंजाब की सरकार 25 लाख रुपये का पुरस्कार देती है. जबकि उत्तर प्रदेश सरकार उसी स्तर की वीरता या शहादत के लिए 1.45 लाख रुपये का नकद पुरस्कार देती है. चुनाव के दौरान किसी कर्मचारी की मौत पर दस लाख रुपये तक का मुआवजा देने वाली उत्तर प्रदेश सरकार देश सेवा के लिए शहादत देने वाले सैनिकों के लिए संकीर्ण दृष्टिकोण रखती है. बहादुरी का पुरस्कार जीतने वाले सैनिकों को राज्य सरकार की ओर से जो धनराशि दी जाती है, उसकी तुलना सैन्य अधिकारियों के एक माह के वेतन से भी नहीं की जा सकती. उत्तराखंड सरकार भी इसी तरह सैनिकों का हक़ दबाए बैठी है. उत्तराखंड सरकार ने पूर्व सैनिकों के आश्रितों को दोहरी पेंशन देने के केंद्र के आदेश को ठंडे बस्ते में डाल रखा है. केंद्र सरकार ने इस बारे में 17 जनवरी, 2013 को ही शासनादेश जारी कर दिया था. इसी शासनादेश के तहत उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य में दोहरी पेंशन व्यवस्था लागू की है. रक्षा मंत्रालय ने 17 जनवरी, 2013 को जारी किए अपने आदेश में ऐसे सैन्य पेंशनरों के परिवारीजनों के बारे में व्यवस्था की थी, जो सैन्य सेवा से मुक्त होने के बाद केंद्र अथवा राज्य सरकार की सरकारी सेवाओं में दोबारा नियुक्ति पाते हैं. ऐसे पूर्व सैन्य कर्मियों की मृत्यु के बाद सैन्य सेवा के लिए स्वीकृत पेंशन के साथ परिवार को उनकी सिविल सेवा के लिए भी स्वीकृत पारिवारिक पेंशन मिलेगी. पूर्व सैनिक की मृत्यु के बाद दोहरी पेंशन देने का औचित्य यह था कि सिविल में कार्मिक को 60 वर्ष की आयु में सेवा से रिटायर होने का लाभ मिलता है, जबकि सैनिक कम उम्र में रिटायर होने के बाद दोबारा 60 वर्ष की आयु तक सिविल में सेवाएं देता है. केंद्र के इस आदेश पर उत्तराखंड सैनिक कल्याण निदेशालय ने प्रस्ताव तैयार करके 17 मई, 2013 को प्रदेश के सैनिक कल्याण सचिव के पास भेजा. 12 जून, 2014 को शासन ने सभी ज़िलाधिकारियों को दोहरी पेंशन का लाभ पाने वालों के आंकड़े जुटाने का निर्देश दिया. इस पर ज़िला सैनिक कल्याण अधिकारियों ने सूची बनाकर भेज दी, लेकिन उत्तराखंड सरकार उसे दबाकर बैठ गई.