ऐसा लगता है कि न सरकार, न संसद और न न्यायपालिका को इस देश की समस्याओं की चिंता है. क्या पच्चासी प्रतिशत जनता को जीने का हक़, पढ़ने का हक़, नौकरी का हक़, पीने के पानी का हक़, बिजली-सड़क-अस्पताल का हक़, अल्पसंख्यकों का हक़, कमज़ोर वर्गों का हक़ मिल गया है?
तीन सौ सतहत्तर धारा को हटाने का खेल ख़ामोश होकर भी देखा जा सकता है. बहुत से लोग देख भी रहे हैं, क्योंकि लगता है उन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि इस धारा के हटने का मतलब क्या होगा. लोगों को अहसास भले न हो, क्योंकि उनके सामने सच्चाई आते-आते आएगी. लेकिन राजनैतिक दल ख़ामोश क्यों हैं? एक भी दल ने इस धारा को हटाने के ख़िला़फ अभी तक एक शब्द भी नहीं कहा है. राजनैतिक दलों की ख़ामोशी बताती है कि वे इस खेल के ख़ामोश खिलाड़ी हैं. सरकार की ओर से क़ानून मंत्री वीरप्पा मोहली ने सबसे पहले कहा कि वह भी इस क़ानून को हटाने का बिल ला सकते हैं. देश के गृह सचिव साफ कह रहे हैं कि हो सकता है सरकार सुप्रीम कोर्ट में न जाए, और दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के आधार पर ही कार्रवाई करे.
लेकिन खेल है क्या और कौन लोग इस खेल को खेल रहे हैं? धारा तीन सौ सतहत्तर के हटने का मतलब होगा कि देश में समलैंगिक वेश्यावृत्ति खुलेआम शुरू हो जाएगी. यही क़ानून बाल वेश्यावृत्ति को भी रोकता है, लेकिन इसके हटने के साथ यह भी शुरू हो जाएगी. मज़े की बात है कि पुरुष का पुरुष से सेक्स (एमएसएम) एड्स फैलने का महत्वपूर्ण कारण माना गया है और इसे हाई रिस्क कहा गया है. इसे हाई रिस्क क्यों कहा गया इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, न ही इस बात का पक्का सबूत है कि एमएसएम के तहत आने वाला वर्ग एड्स फैला रहा है.
लेकिन इस धारा के ख़िला़फ हाई कोर्ट के फैसले और भारत के क़ानून मंत्री की टिप्पणी ने ऐसा माहौल बना दिया मानो लगता है कि बस यही एक समस्या थी, जिसका हल तलाश लिया गया है. चंद लाख लोग और हमारा सर्वशक्तिमान मीडिया इसे आज़ादी आने जैसा मान रहे हैं. ताज्जुब तो यह कि हाईकोर्ट में तर्क देने वालों ने हाई कोर्ट को ही गुमराह करने की कोशिश की. अगर इस धारा के कारण एमएसएम में भरोसा रखने वाले लोग सामने नहीं आते और चोरी छिपे मिलकर एड्स फैला रहे हैं, तो अब जब क़ानून हटने की बात हुई है तब खुलेआम प्राइवेट में संपर्क बना ऐसे लोग एड्स को आठ से दस गुना फैलाएंगे. हाईकोर्ट का यह फैसला एड्स को बढ़ावा देगा, उसे रोकने या कम करने में मददगार नहीं बनेगा.
रहस्य इस बात का है कि जिस तीन सौ सतहत्तर धारा का इस्तेमाल ही नहीं हुआ और अब तक इसमें केवल एक सज़ा हुई, वह भी आज़ादी से पहले, तो उस क़ानून को हटाने के लिए इतनी ताक़तें क्यों इकट्ठा हो रही हैं? इस क़ानून को हटाने की जल्दबाज़ी ही संदेह पैदा कर रही है और जब जल्दबाज़ी की दौड़ में सरकार भी दिखाई दे, तो संदेह और गहरा हो जाता है.
ऐसा लगता है कि न सरकार, न संसद और न न्यायपालिका को इस देश की समस्याओं की चिंता है. क्या पच्चासी प्रतिशत जनता को जीने का हक़, पढ़ने का हक़, नौकरी का हक़, पीने के पानी का हक़, बिजली-सड़क-अस्पताल का हक़, अल्पसंख्यकों का हक़, कमज़ोर वर्गों का हक़ मिल गया है? इन वर्गों की आबादी सौ करोड़ के आस-पास होगी और इसे साफ कहना चाहिए कि इन्हें एक भी हक़ नहीं मिला है. ऐसा क्यों हो रहा है कि सौ करोड़ के हक़ से ज़्यादा चिंता कुछ लाख के हक़ की हो रही है, और सारी व्यवस्था इन कुछ लाख लोगों को उनका मनपसंद जीवन देना चाहती है ?
दरअसल कहानी कुछ और है. हमें कहने में कोई हिचक नहीं कि तीन खरब के टर्नओवर को कंट्रोल करने वाला विदेशी माफिया इसके पीछे है. अब जब कि इस क़ानून को हटाने का इशारा भारत सरकार ने दिया है तो वे सब बहुत ख़ुश हैं जो देश में सेक्स इंडस्ट्री के आने का रास्ता तलाश रहे हैं. 50 अरब के टर्नओवर वाली संभावित सेक्स इंडस्ट्री में पैसा लगाने के लिए देसी-विदेशी निवेशक तैयार हैं. सेक्स के जितने विकृत रूप हो सकते हैं, अब उन सबका बाज़ार हिंदुस्तान बन जाएगा. कम से कम अभी तो ऐसा ही लगता है.
इस कहानी के पात्रों में अख़बार, टेलीविजन, संसद और न्याय व्यवस्था के लोग शामिल लग रहे हैं. तीन सौ सतहत्तर के हटने पर कुछ न बोलना इन वर्गों का उसे हटाने का समर्थक माना जाना चाहिए. ऐसा तो नहीं माना जा सकता कि इन तबकों को इस का मतलब ही पता न हो. ब्राज़ील, मैक्सिको, फिलीपींस और थाईलैंड में सरकार चलाने वाले, उसका विरोध करने वाले और वहां की न्यायपालिका, माफिया से हाथ मिलाकर चलते हैं. हमारे हिंदुस्तान में ऐसा नहीं होगा, यह मानने का कोई कारण नहीं है.
धार्मिक संगठन भी ख़ामोश हैं. अभी राममंदिर और बाबरी मस्जिद का मुद्दा खड़ा हो, तो आपस में लड़ने-मरने के लिए सड़क पर धार्मिक संगठन खड़े हो जाएंगे, पर भारत रूपी मंदिर और हिंदुस्तान रूपी मस्जिद को तबाह करने की साज़िश का विरोध अभी तक हिंदू-मुस्लिम-सिख-ईसाई या किसी और धार्मिक संगठन ने नहीं किया है. कुछ बयान आए, पर क्या यह विषय स़िर्फ बयान देने का है ?
हम एक और चेतावनी देना चाहते हैं. जब देश में तीन खरब को कंट्रोल करने वाला मा़फया ऑपरेट करेगा तो उसकी जद में हिंदू भी आएंगे और मुसलमान भी, सिख भी और ईसाई भी. हमारे देश की ग़रीबी को दूर करने के तर्क गढ़े जाएंगे और वे सब एक बड़े देशव्यापी सेक्स मार्केट के पक्ष में खड़े दिखाई देंगे. आज अगर धार्मिक संगठन न चेते और उन्होंने आवाज़ नहीं उठाई तो बहुत कुछ बिखर जाएगा. राजनेता आसानी से ख़रीदे जा सकते हैं, पर अपने को भगवान, अल्लाह, वाहे गुरु और गॉड के साए में रखने वाले अगर बिक गए तो इस मुल्क का क्या होगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. हम देश की न्यायपालिका और संसद से कहना चाहते हैं कि वे इस देश को सेक्स इंडस्ट्री का ग़ुलाम होने से बचा लें. हमारी न्याय व्यवस्था और संसदीय व्यवस्था चाहे तो माफिया को मुंहतोड़ जवाब दे सकती है. अगर अभी जवाब न दिया गया तो बाद में जवाब देने की ताक़त ही नहीं बचेगी.
अगर डर सच साबित हुआ तो अगले पांच सालों से हमें दिखाई देगा कि हमारी संसद और न्याय व्यवस्था इस माफिया के रहमोकरम पर है. जिस दिन दिल्ली हाईकोर्ट ने तीन सौ सतहत्तर पर फैसला सुनाया, उसी दिन केंद्र सरकार ने आठ से चौदह साल के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा देने का फैसला लिया. शर्मिंदगी के साथ कहना पड़ता है कि टीवी और अख़बार इस फैसले को तो तरह-तरह से दिखाने में लगे थे, पर किसी ने भी आठ साल से चौदह साल के बच्चों की मुफ़्त शिक्षा की जानकारी देश को नहीं दी.
कौन बोलेगा? अगर न्यायपालिका और संसद कुछ न करें, तो क्या इस देश का आम आदमी, चाहे वह मुसलमान हो या हिंदू, सिख हो या ईसाई ख़ामोश रह जाएगा और सब कुछ होने देगा? इसी सवाल का जवाब तलाशना है. हमें विश्वास है कि जवाब मिलेगा और ज़रूर मिलेगा.